Thursday, 19 April 2012

चौतरफा चक्रव्यूह की चुनौतियों के बीच...

कांस्टीट्यूशन क्लब में 13 अप्रैल, 2012 को "मीडिया में लैंगिक भेदभावः मिथक या हकीकत" विषय पर आयोजित सेमिनार में पढ़ा गया पर्चा

एक सभ्य और विकासमान समाज अपने आगे बढ़ने के रास्ते खुद तैयार करता है, उसकी बाधाओं से निपटता है और एक तरह से किसी जड़ और सत्तावादी व्यवस्था का जनतांत्रिक विकल्प भी तैयार करता है। आज की इस बहस को मैं इसी की एक कड़ी मानती हूं। विषय का चुनाव शायद बहुत सोच-समझ कर किया गया-- "मीडिया में लैंगिक भेदभाव- मिथक या हकीकत।" मेरे मन में यह सवाल है कि किसके लिए मिथक और किसके लिए हकीकत। अगर कोई सत्ता उत्पीड़क है और अपने उत्पीड़क-चरित्र पर उंगली उठाने वालों की आवाज दबा नहीं पाती तो वह आरोपों को "मिथक" साबित करने में लग जाती है। लेकिन जो उत्पीड़न का शिकार तबका है, वह उत्पीड़न के हालात और उसकी वजहों को एक हकीकत के रूप में देखने का आग्रह करेगा। इस लिहाज से देखें तो आज की बहस के विषय का अपना महत्त्व है।

सवाल है कि वे कौन-सी स्थितियां या वजहें हैं, जिनके चलते इस विषय पर बात करने की जरूरत महसूस हुई। जाहिर है, हालात आदर्श तो नहीं ही हैं, बल्कि शायद अब घड़ा भरने लगा है और लाजिमी तौर पर सवाल उठने लगे हैं।

यों तो समूची व्यवस्था ही खुद को बनाए रखने के लिए अलग-अलग रूप में एक ही फार्मूले पर काम करती है, लेकिन समाज के अगुआ माने जाने वाले बौद्धिक तबकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह कम से कम अपने ढांचे के भीतर प्रगतिशील, मानवीय और बराबरी पर आधारित मूल्यों को बढ़ावा देगा। मीडिया की ओर इसीलिए उम्मीद भरी निगाहों से देखा जाता है। मगर हम देख सकते हैं कि हमारे देश का मीडिया इस कसौटी पर कहां खड़ा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचार, विचार से लेकर फीचर, लेख या धारावाहिकों तक में कल्पनाशक्ति, विषय-वस्तु या प्रस्तुति तक के स्तर पर सामाजिक यथास्थिति में तोड़फोड़ मचाने वाली कवायदें शायद ही कहीं दिखती हैं। यानी ये इतने कम पैमाने पर हैं कि इसका असर लगभग नहीं के बराबर है। इस बात की पड़ताल किए जाने की जरूरत है कि आधुनिक और सभ्य होने के तमाम दावों के बीच यह स्थिति क्यों बनी हुई है?

माना जाता है कि भागीदारी से बड़े बदलाव संभव है। यह सही भी है। लेकिन मेरा मानना है कि हमारी व्यवस्था के हर खांचे में सबसे ऊपर बैठे लोगों का अब तक का जो इतिहास रहा है, उसमें जब तक फैसला लेने के अधिकारों का समान बंटवारा नहीं होता है, भागीदारी कोई बहुत बेहतर नतीजे नहीं दे सकती। कम से कम मीडिया में महिलाओं की स्थिति ने इसे साबित किया है। पिछले डेढ़-दो दशकों में प्रिंट और इससे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अच्छी-खासी तादाद में महिलाओं को जगह मिली है, लेकिन ज्यादातर अखबारों की खबरों या फीचर या टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में स्त्री की जो छवि परोसी जाती है, उससे अपने नए रूप में सामाजिक यथास्थिति बहाल रहने की ही जमीन बनती है।

कोई भी संवेदनशील व्यक्ति यह समझता है कि पितृसत्तात्मक ढांचा और उसी बुनियाद पर पलता पुरुष मनोविज्ञान स्त्री की सभी मुश्किलों की जड़ है। भूमंडलीकरण का एक नतीजा इन जड़ों के खिलाफ हमला या इनसे मुक्ति हो सकता था। लेकिन पितृसत्ता की जड़ों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसने उस भूमंडलीकरण और बाजार को भी अपना हथियार बना लिया और स्त्री को ज्यादा निर्मम तरीके से बाजार में खड़ा कर दिया है। और हमारे भारतीय मीडिया ने चूंकि कमोबेश यह मान लिया है कि वह भी महज बाजार है, तो जाहिर है वह भी एक व्यवस्था के तौर पर काम करेगा, जिसमें स्त्रियां सिर्फ मोहरा होंगी। बाजार के कई दूसरे क्षेत्रों की तरह मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने महिलाओं को भागीदारी तो दी, लेकिन वह क्या और कैसे काम करेगी, यह तय करने का अधिकार आमतौर पर उसके हाथ में आज भी नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि महिलाओं से संबंधित किसी सकारात्मक खबर से लेकर उत्पीड़न या अत्याचर तक की खबरों या विश्लेषण में पुरुष कुंठा या दया-भाव दिखता है। मकसद सिर्फ यह होता है कि स्त्री की अस्मिता को उसकी देह या एक वस्तु के रूप में समेट दिया जाए। यह तब और ज्यादा त्रासद हो जाता है जब ऐसा करने वाले को खुद ही पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है। तमाम सवालों और महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद इस प्रवृत्ति पर कोई खास असर नहीं पड़ा है।

मेरे खयाल से लगभग सभी मीडिया संस्थानों में काम की जो स्थितियां या माहौल है, उसमें इससे अलग किसी तस्वीर की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। अगर किसी महिला पत्रकार से बेहतर काम कराने के बजाय संस्थान के पुरुष सहकर्मियों या अधिकारियों की नजर सिर्फ इस बात पर रहती है कि कैसे उन पर दबाव डाल कर या प्रलोभन देकर मजबूर किया जाए, तो ऐसी स्थिति में महिला के सामने क्या विकल्प बचता है। या तो वह चुपचाप हालात से समझौता कर ले, नौकरी छोड़ दे या फिर आवाज उठाए। लेकिन विरोध करने या आवाज उठाने वाली महिलाओं को जिन मुश्किलों या त्रासदियों का सामना करना पड़ता है, "वाह-वाह मीडिया" के शोर में उसकी खबर तक कहीं नहीं आ पाती।

कुछ साल पहले नोएडा में प्रिया नाम की एक लड़की ने जिस तरह खुदकुशी की थी, वह तमाम टीवी चैनलों और अखबारों के लिए एक बहुत "बिकने" लायक मानी जाती, अगर वह खुद मीडिया में काम नहीं कर रही होती। वे कौन-सी वजहें रही होंगी कि खुदकुशी के पहले उसे चिट्ठी लिख कर अपनी बहन तक को बताना पड़ता है कि मीडिया में काम हरगिज न करना? सायमा सहर की शिकायत थी कि एक ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति अपने पद और हैसियत का धौंस दिखा कर उसे साथ शराब पीने के लिए दबाव डालता है और इस शिकायत का नतीजा यह होता है कि उल्टे सायमा को ही नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं दफन हो जाती होंगी, जिसमें कोई महिला पत्रकार अपने किसी वरिष्ठ या सहकर्मी की खिलाफ यौन-उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करती भी है तो इसका खमियाजा उसे ही भुगतना पड़ता है। पुरुष को बख्श दिए जाने का तर्क हमेशा एक ही होता है कि उसकी नौकरी को कैसे मुश्किल में डाला जाए। यानी कि सिर्फ नौकरी बची रहे, इसलिए ऐसे पुरुषों को स्त्री की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की छूट मिल जाती है। शायद ही ऐसे मामले सामने आते हैं कि देश-दुनिया में यौन-उत्पीड़न के खिलाफ चीखने वाले मीडिया अपने संस्थान अपने भीतर किसी आरोपी के खिलाफ सख्त कदम उठाए।

मुझे तो लगता है कि कई बार जानबूझ कर महिला पत्रकारों के सामने ऐसी स्थितियां पैदा की जाती है, ताकि उसके सामने समझौता करने के सिवा कोई चारा ही न बचे। फरीदाबाद में रहने वाली रचना को दस-ग्यारह बजे रात तक काम करने को कहा जाता है, लेकिन उसे उतनी रात को अपने घर जाने के लिए ड्रॉपिंग या किसी तरह की सुविधा देने से इनकार कर दिया जाता है। यह तब होता है जब ओखला रेलवे स्टेशन पर वहशियों के हमले से वह किसी तरह खुद को बचा लेने के बाद अपने दफ्तर में अपना दुखड़ा रोती है। उसकी तकलीफ समझने के बजाय उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। इसके अलावा, बाहरी जोखिम की बात करें तो कोलकाता की शोमादास को, जिसके बारे में पुण्य प्रसून जी भी लिख चुके हैं, अपने विपक्षी खेमे की पत्रकार मान कर तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी का एक खास आदमी बलात्कार करा देने की धमकी दे देता है।

यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। अखबार या चैनल की ओर से सौंपे गए असाइनमेंट को फील्ड में पूरा करना एक पुरुष के लिए आसान और सहज हो सकता है, लेकिन एक महिला उसी असाइनमेंट को पूरा करने निकलती है तो उसके सामने कई तरह की चुनौतियां एक साथ खड़ी हो जाती है, सिर्फ इसलिए कि वह महिला है। किसी का इंटरव्यू करना हो, कोई खबर निकालना हो, या किसी रैली, बंद, आंदोलन या भीड़ की रिपोर्टिंग करनी हो, एक महिला पत्रकार उसे पूरा करने तक लगातार एक जोखिम से गुजरती है। यह स्थिति किसकी बनाई हुई है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं? पता नहीं कितनी महिला पत्रकार इस तरह के खतरों के बाच मरते-जीते काम कर रही होती हैं। मगर न केवल बाहर, बल्कि भीतर का तंत्र भी उसे महज शिकार की तरह ही देखता है।

कोई कह सकता है कि महिला पत्रकारों के उत्पीड़न और जोखिम के हालात आम नहीं हैं। लेकिन ये बातें सिर्फ वहीं तक नहीं है कि मीडिया हाउसों की भीतर की शिकायतें बड़ी मुश्किल से फूट पाती हैं, और मामला यहां "पकड़ा गया सो चोर है" के फार्मूले के हिसाब से "सब कुछ सुहाना" में दबा रह जाता है। अगर वेब मीडिया नहीं होता, तो जो इक्के-दुक्के मामले सामने आ पाए, शायद वे भी नहीं आ पाते। सवाल है कि अगर मामले इक्के-दुक्के भी हैं तो वह चिंता का मसला क्यों नहीं होना चाहिए। दूसरे, क्या सचमुच ऐसे कुछ मामलों के आधार पर कोई नतीजा निकालना ठीक नहीं है? यह सवाल कोई इसलिए भी उठा सकता है, क्योंकि अभी तक मीडिया में महिलाओं के कामकाज की स्थितियों को लेकर कोई ठोस अध्ययन सामने नहीं आया है। लेकिन अच्छी बात है कि एक शोध-छात्रा सुनीता मिनी ने दिल्ली सहित समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में "इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिला पत्रकारों की स्थिति" पर केंद्रित एक व्यापक सर्वेक्षण किया है। इस अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं, वे मीडिया में महिलाओं के साथ भेदभाव को महज एक मिथ या आरोप मानने वालों को आईना दिखाते हैं।

अव्वल तो अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा उठाने वाले मीडिया संस्थानों के भीतर अपनी तकलीफ का बयान करना भी कितना मुश्किल और घातक है, यह शायद किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद अगर लगभग तिरेपन प्रतिशत महिलाएं साफ तौर पर यह कहती हैं कि सहकर्मियों या उच्चाधिकारियों का उनके साथ बदतमीजी से पेश आना, उन पर फब्तियां कसना और अश्लील मजाक करना या उन्हें मानसिक रूप से परेशान करना आम है, तो यह इस बात का सबूत है कि हमारे आसपास बैठा पुरुष दरअसल मानसिक रूप से पिछड़ा और असभ्य है। अगर करीब सैंतीस प्रतिशत महिला पत्रकार कहती हैं कि शोषण की शिकार महिला पत्रकारों की शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं होती या नौकरी खोने के डर से ज्यादातर महिलाएं खुल कर विरोध भी नहीं कर पातीं; पैंसठ फीसद को शिकायत है कि मेहनत और योग्यता के बावजूद महिला पत्रकारों को तनख्वाह पुरुषों के मुकाबले कम दी जाती है: तकरीबन तिहत्तर प्रतिशत मानती हैं कि बारह-चौदह घंटे काम करने के अलावा श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन होता है; लगभग आधी महिला पत्रकारों को लगता है कि अगर कोई महिला खूबसूरत नहीं है तो उसे बहुत संघर्ष करना पड़ता है या उनके प्रोमोशन को शक की निगाह से देखा जाता है और तीन-चौथाई से ज्यादा मानती हैं कि महिला पत्रकारों को चुनौतीपूर्ण और महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारियां नहीं दी जातीं तो इसका मतलब है कि हमारा मीडिया भी सोच और व्यवहार के पैमाने पर एक पिछड़े हुए सामंती समाज के ढांचे से अब तक अपना कोई अलग चेहरा नहीं गढ़ सका है।

सुनीता का बहुत शुक्रिया कि उन्होंने काफी मेहनत से ये तथ्य निकाले हैं। इस मसले पर शायद और काम करने की जरूरत है।

इसी अध्ययन में इस कड़वी हकीकत की एक बार फिर पुष्टि हुई है कि समूचे समाज का प्रतिनिधित्व करने के दावे के बीच पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग की महिलाओं का चेहरा मीडिया में कहां है। समूचे मीडिया में इन वर्गों की महिलाओं की नगण्य मौजूदगी क्या कुछ तल्ख सवाल नहीं खड़े करती है? क्या इन सवालों से सिर्फ यह कह कर बचा जा सकता है कि इन वर्गों से महिलाएं आती ही नहीं हैं और सवाल योग्यता का भी है?

मेरा मानना है कि "मेरिटवाद" का पाखंड अब खुल चुका है और रही बात इन वर्गों की महिलाओं के खुद आगे नहीं आने की, तो समाज में किसी भी अगुआ कहे जाने वाले तबके को यह बहाना बनाने का हक नहीं है।

सवाल है कि दूसरे तमाम क्षेत्रों की तरह हमारा मीडिया भी आधुनिकता के लबादे के भीतर उसी सामंती मन-मिजाज से महिलाओं को देखता और बरतता है, तो उसके आउटपुट में, सामने आने वाले काम में महिलाओं को क्या और कैसी जगह मिलेगी? महिलाओं की "सकारात्मक" तस्वीरों के नाम पर हमारे मीडिया के पास अगर कुछ है तो सोनिया गांधी, ऐश्वर्या राय या इंदिरा नूई जैसी कुछ "पावर वुमेन", जिसके जरिए कुछ अमूर्त सपने परोस कर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली जाती है। दूसरी ओर, महिलाओं के खिलाफ सबसे त्रासद अपराधों के ब्योरे में भी व्यवस्था को बदलने के बजाय व्यवस्था को मजबूत करने और उसे सींचने वाले शब्द ही चुने जाते हैं। वे कौन-सी वजहें हैं कि एक तरफ सरकारी पैमाने पर अंग्रेजी में "रेप" शब्द को "सेक्शुअल असॉल्ट" में बदल कर उसे और गंभीर अपराध बनाने और उसका दायरा बढ़ाने की कवायद चल रही है, तो हिंदी में बलात्कार जैसे अपराध के लिए "दुष्कर्म" और यहां तक कि "ज्यादती" जैसे शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। जेब काटना भी दुष्कर्म होता है और किसी से मीठे मजाक करने को भी ज्यादती कहते हैं। तो क्या हमारे मीडिया के एक हिस्से ने यह मान लिया है कि बलात्कार को जेब काटने या मीठे मजाक करने के बराबर करके देखा जा सकता है? अगर हां, तो इसके पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही है?

एक तो बड़ी समस्या है कि तमाम आधुनिकता, पढ़ाई-लिखाई और समझदारी के दावे के बावजूद हममें से ज्यादातर को अपनी जड़ परंपराओं से प्यार करना अच्छा लगता है, बिना इस बात का खयाल किए कि कौन-सी परंपरा किस तरह की मानसिकता को बनाए रखने में मदद करती है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उसी "माइंडसेट" को निबाहते हुए महिलाएं भी अपनी ही मुश्किल की वजहों की पहचान नहीं कर पातीं।

यानी स्त्री एक तरह से चौतरफा चक्रव्यूह में घिरी हुई हैं। पलते-बढ़ते हुए उसे एक व्यक्ति के बजाय स्त्री बनना है; काम करते हुए उसे याद रखना है कि वह स्त्री है; नतीजे देते हुए उसे एक अच्छी स्त्री बन कर दिखाना है और इस तरह उसे महज पितृसत्ता और पुरुष व्यवस्था का एक औजार भर बन कर रह जाना है। उसने ये शर्तें अगर ठीक से निबाह लीं तो फिर सब कुछ सहज रहेगा!

और जो लोग मीडिया पर थोड़ा करीब से निगाह रखते हैं, वे जानते हैं कि स्त्री को लेकर हमारे मीडिया ने व्यवस्था से अलग अपना कोई अलग चेहरा अब तक पेश नहीं किया है। और इन हालात में महिलाओं या उनकी छवि को लेकर मीडिया का जो रवैया रहा है, उससे अलग हो भी कैसे सकता है?

यानी महिलाओं की लड़ाई किसी एक मोर्चे पर नहीं है। उसके सामने अगर व्यवस्था की चालबाजियां हैं जो उसे एक "आज्ञाकारी" महिला के रूप में देखना चाहती है तो दूसरी ओर संस्कृति से मिला उसका अपना वह "माइंडसेट" भी है जो स्त्री और पीड़ित बनाए रखता है। सोचना उन महिला पत्रकारों को भी है जो इस चुनौतियो से भरे पेशे को चुनती तो हैं, लेकिन अपने दोयम समझे जाने की वजहों पर गौर नहीं करतीं। और जब तक समाज की तरह मीडिया के ढांचे में भी महिला को एक वस्तु की तरह देखा जाएगा, तक तक मीडिया को समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानना थोड़ा मुश्किल होगा। शायद यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आखिर हम सबके घरों में कोई बच्ची होगी, जो पढ़-लिख रही होगी और आगे वह शायद खुली दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए घर से बाहर निकलेगी!

Friday, 20 January 2012

सत्ताओं की बिसात पर सरोकार...


जेएनयू में 11 अक्तूबर, 2011 को "सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया" पर आयोजित सेमिनार में विषय प्रवर्तन करते हुए







साथियों,

‘अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।’

मॅल्कम ने ये बातें कब और किस संदर्भ में कही थीं, यह तो पता नहीं। लेकिन मौजूदा दौर की पत्रकारिता को जरा-सी ईमानदारी से देखने की कोशिश की जाए तो मॅल्कम की ये चंद लाइनें अपने सबसे तल्ख़ असर के साथ मौजूद दिखती हैं।

हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि ‘बीता हुआ सब कुछ अच्छा था’, या फिर ‘भविष्य सुनहरा होगा’ जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा में जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।

यों इन धुंधलकों की सफाई के लिए हम जिन पर भरोसा किए बैठे रहे, दरअसल, उन्होंने ही इसे और ज्यादा गहरा किया। सरोकारों की चादर ओढ़े उन सरमाएदारों की पहचान बहुत मुश्किल काम नहीं है, अगर मॅल्कम की यहां रखी गई बातों को हम यों ही उछाला गया कोई जुमला न समझ लें।

तो भारत का मीडिया कब अपने सरोकारों को लेकर ईमानदार रहा है, इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? आज बाजार का एक हथियार बन चुके मीडिया से यह उम्मीद तो बेमानी है कि मुनाफे के मकसद को वह कभी थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएगा, लेकिन तब खुद को बाजार का मोहरा या खिलाड़ी मानने के बजाय वह कहीं भी अपने मीडियाई सरोकार का झंडा थामे क्यों दिख जाता है?

सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?

वे कौन-सी वजहें हैं कि मीडिया अपने परदों और पन्नों के लिए जिन खबरों का चुनाव करता है, वे इन कसौटियों पर कसी जाती हैं कि इससे आमदनी कितनी हो रही है या फिर वह व्यवस्था को बचाए रखने में कितनी मददगार साबित होती है? दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है?

क्या मीडिया के पन्ने और परदे केवल आभिजात्य वर्गों और उनके तौर-तरीकों के ब्योरे परोसने के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं? अगर नहीं, तो मीडिया के पन्ने और परदे मानस चक्रवर्ती जैसे सामंतों के लिए कैसे सुलभ हो जाते हैं जो समूची स्त्री जाति और दलितों को अपमानित करने की मंशा से वीभत्सतम भाषा में अपनी सामाजिक कुंठाओं की उल्टी करता है और प्रगतिशील कहे जाने वाले अखबार का संपादक उसका बचाव करता है?

मीडिया आज इस हैसियत में है कि वह चाहे तो किसी चुनी हुई सरकार को चंद रोज में ‘जंगल राज’ की पहचान दे दे और चाहे तो किसी ‘पाखंड राज’ को ‘सुशासन ऑफ द इयर’ या ‘सुशासन ऑफ द सेंचुरी’ का सर्टिफिकेट जारी कर दे! तो जिस मीडिया का काम नौ सुखी लोगों के बरक्स एक दुखी व्यक्ति की आवाज बनना था, वह नौ दुखी लोगों को दुनिया के बोझ की तरह पेश करके किसे खुश करने की कोशिश में है?

किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे ‘घाटा सह कर’ नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों के एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?

लेकिन क्या कारण है कि ज्यादातर अखबारों और चैनलों की तमाम प्रस्तुतियों पर उनके सामाजिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह हावी दिखते रहे हैं? जिन मंचों पर हाशिये के सवालों को लेकर घनघोर बहसें आमंत्रित कर अलग-अलग पैमाने पर बदलाव की जमीन तैयार करनी चाहिए थी, वहां मामूली असहमतियों तक को जगह क्यों नहीं मिल पाती?

क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिसने बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों या फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का जो विस्फोट हो रहा है, क्या वे तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी का तर्क कायम दिखता है। लेकिन क्या इसकी आड़ में कोई सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?

बिहार सरकार के दो कर्मचारियों ने किन मजबूरियों के तहत ‘फेसबुक’ के अपने निजी पन्नों पर सरकार की नीतियों के बारे में अपनी अलग राय जाहिर की? आजाद भारत के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि ‘फेसबुक’ पर राय जाहिर करने के एवज बिहार सरकार ने अपने दोनों कर्मचारियों के खिलाफ दमनकारी कदम उठाए। लेकिन अक्सर अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने वाले तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह मुद्दा क्यों नहीं बना?

ऐसा कैसे और किन कारणों से हो गया कि हमारे जिस मीडिया को हमेशा ही सत्ता के खिलाफ एक ताकतवर विपक्ष की भूमिका में होना था, वह इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें, तो सत्ता का मुखापेक्षी और ठकुरसुहाती की हैसियत में खड़ा खुश दिखाई देता है?

मीडिया की दिखने वाली इस दिशाहीनता का दौर क्या सचमुच इतना ही मासूम है? या फिर मुनाफे की मंजिल के बरक्स सामाजिक-राजनीतिक सत्ताओं की कोई बिसात बिछी हुई है, जिसमें सरोकारों को सिर्फ मोहरे के तौर पर इस्तेमाल होना है?

इन सबके बीच बेहद शांत तरीके से एक खतरनाक प्रतिक्रिया यह सामने आई है कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?

ये कुछ सवाल हैं जिन पर बात करना शायद इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि अखबार या टीवी कोई ऐसी चीज नहीं है, जिनका मालिकाना हक उन्हें मुद्दों के साथ बेईमानी करने की छूट दे देता है। जेएनयू में किसी मुद्दे पर बातचीत से उम्मीद यही की जाती है कि इससे बहस की एक जमीन तैयार हो...।

जन-सरोकारों से बहुत दूर है देश का मीडिया...


राज वाल्मीकि

सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया

11 अक्तूबर, 2011

स्थान- जेएनयू एसएल कमिटी रूम





दिल्ली मीडिया रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर और दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट की ओर से 11 अक्टूबर 2011 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज के कमिटी रूम में 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' विषय पर सेमिनार का आयोजन हुआ।

कार्यक्रम की शुरुआत में डीयूजे के महासचिव एसके पांडेय ने संगठन के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों पर लगातार हमारी नजर रहती है और हम चाहते हैं कि मुद्दों पर बहस हो। इस मकसद से हमने समय-समय पर सेमिनारों या बहसों का आयोजन किया है, ताकि एक स्वस्थ और ईमानदार पत्रकारिता की परंपरा कायम की जा सके। 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' पर बातचीत इसी की एक कड़ी है। उम्मीद है कि इससे कुछ ऐसी बातें निकल कर आएंगी जो भविष्य की पत्रकारिता के उपयोगी हो।

कार्यक्रम के प्रारंभ में मृणाल वल्लरी ने विषय प्रवर्तन के रूप में अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने मॅल्कम के एक वक्तव्य का उद्धरण देते हुए कहा कि 'अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।' उन्होंने कहा कि हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि "बीता हुआ सब कुछ अच्छा था" या फिर "भविष्य सुनहरा होगा" जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा ने जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।

उन्होंने भारतीय मीडिया के सरोकारों की ईमानदारी के संदर्भ में कहा कि इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? उन्होंने कहा कि सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर केंद्र में रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?

उन्होंने मीडिया के पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए कहा कि दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है? सुश्री वल्लरी ने एक सार्वजनिक मंच के रूप में मीडिया के मनमाने रवैये पर टिप्पणी की कि किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे घाटा सह कर नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों में एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?

उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया के रवैए के कारण लोगों को दूसरे विकल्पों की शरण लेने के संदर्भ में कहा कि क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिस बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का विस्फोट हो रहा है, क्या ये तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? लेकिन इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी है? या फिर इसके पीछे एक सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?

उन्होंने एक खतरनाक संकेत की ओर इशारा किया कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?






इसके बाद कार्यक्रम के संचालन का जिम्मा संभालने वाले समर ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर को अपनी बात रखने का आग्रह किया। श्री नैयर ने कहा कि हमारे समय में मालिक हमारे काम में दखलअंदाजी नहीं करते थे। पत्रकारिता पर नियंत्रण के संदर्भ में उन्होने अपनी राय दी कि मुझे पीत-पत्रकारिता या गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता भी मंजूर है, पर पत्रकारिता पर सरकार का नियंत्रण मंजूर नहीं। किसी भी शोषण के खिलाफ लड़ाई मैदान में लड़नी होती है, लेकिन आज समस्या यह है कि कोई लड़ने को तैयार नहीं है। उन्होने कहा कि जिस दिन तुम सच्चाई का खून होते देखो और कुछ न बोलो तो उसी दिन से तुम्हारी मृत्यु होनी शुरू हो गई। उन्होने कहा कि पत्रकारिता एक ताकतवर पेशा है। आज मीडिया को धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, आदर्शवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा, क्योंकि देश को इनकी जरूरत है।

जनसत्ता में वरिष्ठ पत्रकार और अपराध-विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले सुधीर जैन ने पावर प्वाइंट के जरिए अपनी बात रखी। उन्होने पत्रकारिता की जिम्मेदारियों का जिक्र करते हुए कहा कि हमें सरकार के खिलाफ होना क्यों जरूरी है? सरकार हम ही बनाते हैं, लेकिन अगर वह ठीक से काम नहीं करती तो उसे ठीक से काम करने के लिए उस पर दबाव बनाना जरूरी है। सुधीर जी ने कहा कि बहुत से मुद्दे हैं, जो शिद्दत से उठाए जाने चाहिए। लेकिन मीडिया उसे उठाता नहीं। बेरोजगारी, गरीबी, सांप्रदायिकता जैसे अहम मुद्दों को नजरअंदाज करके ध्यान भटकाने वाले मुद्दों की दुकान सजाने का ही नतीजा है कि आज मीडिया की कार्यशैली को लेकर सवाल उठ रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज मीडिया ने लगभग तमाम मुद्दों का व्यवसायीकरण कर दिया है। और यही वजह है कि उसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह खड़े हो रहे हैं।

जेएनयू में प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉ विवेक कुमार ने कहा कि आज के ज्यादा मीडिया विश्लेषकों को प्रगतिशीलता के खोल में लिपटे जाति पर आधारित भेदभाव कोई प्रमुख मुद्दा नहीं लगता। इसलिए वे अपने प्रमुख मुद्दों में इसे शामिल नहीं करते। जबकि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में दलितों के खिलाफ तीन लाख सत्तर हजार उत्पीड़न की वारदातें हुई हैं। पर मीडिया के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। अगर किसी मजबूरी के तहत ब्योरा देना पड़ भी जाए तो वह जातीय उत्पीड़न की बात नहीं करता। उन्होंने कहा कि 1970 के दशक में पूरे भारत में दलितों के आंदोलन चल रहे थे, पर मीडिया ने इन पर कोई ध्यान नहीं दिया। आज चालीस साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी मीडिया दलितों की नकारात्मक छवि दिखाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों पर अत्याचार की घटनाओं को कभी-कभी वह दलितो पर अहसान करने के लहजे में थोड़ी-सी जगह दे देता है, जबकि यह उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होनी चाहिए ती। असलियत तो यह है कि इस तरह की खबरों में बड़ी चालाकी से दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं दबा दी जाती है और उत्पीड़क वर्गों को बचा लिया जाता है। दलित तो विक्टिम या पीड़ित हैं। लेकिन जब दलित आरक्षण या अपने सम्मान की बात करता है तो उसे मीडिया उसे ऐसे दिखाता है जैसे वे सवर्णों के साथ ज्यादती कर रहे हों। जबकि दलित केवल अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को लेने की मांग करते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने कुलदीप नैयर के विचारों से असहमत होते हुए कहा कि कुलदीप जी अपने जमाने की पत्रकारिता को ऐसे बता रहे थे जैसे वह पत्रकारिता का स्वर्णयुग था। असल में ऐसा कुछ भी नहीं था। पहले भी चापलूसी और अपने संपादक से लेकर समाज और राजनीति के सत्ताधारी वर्गों को खुश करने वाली पत्रकारिता होती थी, आज भी वही हाल है। उन्होंने कहा कि इस देश का मीडिया शहरी है, एलिट है, हिन्दू समर्थक है, सवर्ण है, कॉरपोरेट है। अन्ना हजारे के अनशन को मीडिया ने ऐसे दिखाया जैसे पूरा देश अन्ना के साथ है। जबकि हकीकत यह है कि अन्ना के आंदोलन में दलितों, पिछड़े तबकों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को को कोई जगह नहीं मिली और न इन वर्गों ने अन्ना का समर्थन किया। जिस तरह अन्ना हजारे के आंदोलन ने दलित-पिछड़ी जातियों के सवालों को साजिशन नजरअंदाज किया, उसे मीडिया ने छिपाने की कोशिश की, लेकिन लोग समझ रहे थे। उन्होंने कहा कि समाज के सत्ताधारी वर्गों के अलावा हमारे देश का मीडिया आमतौर पर बाजार के उतार-चढ़ावों से प्रभावित होता है। शेयर बाजार में अगर किसी क्षेत्र के शेयर भाव गिरने लगते हैं तो वह उसी हिसाब से उससे जुडी खबरों को अपने टीवी चैनल या अखबार में जगह देते हैं। हकीकत यह है कि मीडिया नब्बे प्रतिशत लोगों की बात ही नहीं करता। दलितों के मुद्दों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं है। इसका कारण यही है कि टीवी चैनलों के न्यूज रूम में ऊंची कही जाने वाली जातियों का जबर्दस्त वर्चस्व है। आज का मीडिया विज्ञापनदाताओं का है, क्योंकि मीडिया की कमाई विज्ञापनों से होती है। ऐसे मे स्वाभाविक रूप से मीडिया आम आदमी की बात नहीं करता है। उन्होंने कहा कि जिस मीडिया में दलित-पिछड़े तबकों की बराबर की भागीदारी नहीं है, मुझे ऐसे मीडिया में उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।





वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि मीडिया को समाज में हो रहे बदलावों को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन ऐसा शायद ही हो रहा है। खासतौर पर समाज का सत्ताधारी तबका, जिसका संसाधनों पर नियंत्रण है, वह सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहा है। एक ओर समाज की हकीकत को जानबूझ कर नजरअंदाज करता है तो दूसरी ओर इसी बहाने अपना सामाजिक मकसद पूरा करता है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि कई बार अखबार या टीवी चैनल बहुत सोच-समझ कर सेलेक्टिव तरीके से मुद्दों को जनता के सामने रखते हैं। उनका तरीका ऐसा होता है जिसमें पीड़ितों पर दोषारोपण की स्थिति बनती है और उत्पीड़क वर्गों को या तो बख्श दिया जाता है या खबरों की प्रस्तुति का तरीका ऐसा होता है कि इसमें उत्पीड़न करने वालों के प्रति गुस्सा खत्म हो जाता है, बल्कि कई बार उनके बचाव की स्थितियां पैदा कर दी जाती है। उन्होंने एक टीवी चैनल का उदाहरण देते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी का इन्टरव्यू लेते हुए एक अतिउत्साही पत्रकार ने कहा कि मैं पूरे देश की जनता की ओर से कहता हूं कि जनता आपको प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। क्या यह जनादेश का मजाक नही है। उन्होंने भारतीय इतिहास के कई उदाहरणों को संदर्भ के रूप में सामने रखते हुए कहा कि मीडिया कैसे अपने सरोकारों के साथ अपनी सुविधा के हिसाब से खेल करता रहा है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया दरअसल एक उत्पाद भर बन कर गया है, जिसे बेच कर उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। आज मीडिया मिशन नहीं, प्रोफेशन हो चुका है। इसमे हानि-लाभ का गणित पूरी योजना के साथ बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि मीडिया का चरित्र अगर जातिवादी और समाज की ताकतवर जातियों के पक्ष में है, तो इसके बड़े कारण हैं। दरअसल, किसी भी मीडिया संगठन में काम करने वालों के बीच और खासतौर पर फैसला लेने वाले पदों पर जो लोग रहेंगे, काम पर उसका असर साफ दिखेगा। 2006 में मैंने एक सर्वे किया था। उसमें मीडिया संगठनों में फैसला लेने वाले पदों पर सामाजिक भागीदारी की एक तस्वीर सामने आई थी। यह बेवजह नहीं है कि आज मीडिया को जनसरोकारों से कोई लेना-देना जरूरी नहीं लगता।

आयोजन के दूसरे चरण में खबरों की खरीद-बिक्री, यानी पेड न्यूज पर आधारित उमेश अग्रवाल की एक चर्चित फिल्म ''ब्रोकरिंग न्यूज'' भी दिखाई गई। इस फिल्म में उमेश अग्रवाल ने मीडिया में खबरें छापने के लिए पर्दे के पीछे चलने वाले खेल और सच को दिखाने की कोशिश की है। कहना चाहिए कि उन्होने परदे के पीछे की घिनौनी सच्चाई को सबके सामने लाकर मीडिया का एक ऐसा आयाम सबके सामने रख दिया है जो उसके चौथा खंभा होने के पाखंड को खोलता है। आम लोग अखबार या टीवी की खबरों पर भरोसा करके अपनी राय बनाते हैं और आज अखबार या टीवी एक ऐसी जगह हो चुकी है, जहां बाकायदा खबरें बेची और खरीदी जाती हैं, जहां पैसा लेकर विज्ञापनों को खबरों के रूप में पेश किया जाता है।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद सेमिनार में भाग लेने वाले वक्ताओं के साथ-साथ कई श्रोताओं ने सवाल-जवाब में हिस्सा लिया। उमेश अग्रवाल ने दिलीप मंडल के एक सवाल के जवाब में बताया कि यह दरअसल पचासी मिनट की बनी थी, लेकिन इसकी अधिकतम निर्धारित अवधि की वजह से इसके संपादित अंश में कई हिस्सों को छोड़ना पड़ा।

कई मामलों में मीडिया के अराजक व्यवहार के संबंध में दिलीप मंडल ने राय जाहिर की कि मीडिया पर नियंत्रण के लिए कोई पहल तो करनी होगी। उन्होने कहा कि अगर हम मीडिया के उपभोक्ता हैं तो इससे बेहतर गुणवत्ता की मांग जायज है। अंजलि देशपांडे ने इसका विरोध करते हुए कहा कि मीडिया पर नियंत्रण किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है। दिलीप मंडल ने भागीदारी का सवाल उठाते हुए कहा कि कॉरपोरेट मीडिया में चूंकि सामाजिक भागीदारी बेहद असंतुलित है, इसलिए इनसे ज्यादा किसी सरकारी व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि चाहे किन्हीं कारणों से, वहां भागीदारी के सवाल से जूझने और उसे सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है।

कार्यक्रम के आखिर में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए रजनीश ने कहा कि आज की बातचीत ने साबित किया है कि जेएनयू बहस और विमर्श के जरिए नए रास्ते खोलने के अपनी ताकत के साथ खड़ा है। समाज के वंचित वर्गों को अब तक मीडिया या संचार के दूसरे माध्यमों ने जिस तरह हाशिये के बाहर रखा था, उम्मीद है कि इस स्थिति पर अब बातचीत और बहस का सिरा बहुत आगे तक जाएगा और इससे कोई हल खोजने में मदद मिलेगी।

Wednesday, 11 May 2011

अकेलेपन का अंधेरा...



आर्थिक दृष्टि से वैश्विक भूगोल पर अपनी पहचान बना चुके नोएडा में दो बहनों की दिल दहला देने वाली कहानी ने हमारे समाज को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना महानगरीय जीवन की एक ऐसी तस्वीर खींच रही है जो हमसे रुकने को और थोड़ा ठहर कर सोचने को कह रही है कि उपभोक्तावाद और महानगरीय जीवन में रचे-बसे हम कहां पहुंच गए हैं कि खुद में गुम हो जाना ही एक रास्ता पा रहे हैं। महानगरों में बैठे हम लोग, जिनकी जड़ें किसी छोटे शहरों, गांवों या कस्बों में है, जानते हैं कि वहां निजी और सार्वजनिक का अंतर बहुत हद तक मिट गया-सा होता है। पड़ोसी के घर में क्या सब्जी बनी, यह जाने बिना पेट में दर्द होने लगता था! ऐसी जगहों पर परिवार के अंदर के संकट से उबरने का दृश्य बनता था और हालात अपने आप पैदा हो जाते थे। अगर किराए के कमरे में रह रहा कोई व्यक्ति सुबह देर तक सोता रहा तो मकान-मालिक या पड़ोस का कोई किराएदार दरवाजा खटखटाकर जरूर पूछ लेता कि बाबू, तबियत तो ठीक है न! रात भर प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी में पढ़ाई कर भोर में सोए किसी युवक को जरूर खीझ होती होगी कि सो मैं रहा हूं, तो इन महाशय को क्यों परेशानी हो रही है!

लेकिन बड़े होते शहरों ने परिवार के साथ-साथ समाज को भी बहुत छोटा और व्यक्ति को कहीं न कहीं अकेला कर दिया है। इसका नतीजा चुपचाप पसरा। अब तक लोगों के अकेलेपन से अवासदग्रस्त होने की सूचना आती थी। लगता था कि परिवार छोटा हो रहा है और एकाकीपन लोगों को खा रहा है। हालत यह है कि बड़े अपार्टमेंटों और सोसायटियों में रहने वाले लोग यह नहीं जानते कि उनके बगल के फ्लैट में कौन रह रहा है। हां, नंबर से वे भले अपनी पूरी सोसायटी या अपार्टमेंट के बारे में बता दें। लेकिन नोएडा की घटना तो इन सबसे कहीं आगे छलांग कर हमें बता रही है कि मामला अब केवल वहीं कहीं नहीं ठहरा है। महानगरों के बाशिंदे अब तक सिर्फ अपने मुहल्ले से कटे थे। लेकिन इन बहनों ने जो नई तस्वीर दिखाई है वह यही बताता है कि पढ़ा-लिखा और आधुनिक माना जाने वाला इंसान किस तरह केवल अपने परिवार से नहीं, अपने आप तक से कट रहा है।

यह डरने की बात है कि खाते-पीते लोगों को उनका अकेलापन कहां ले के जा रहा है। अकेलेपन के अपने बनाए दायरे ने परिवार के अंदर भी एक दीवार खड़ी कर दी है। इस तरह का एकाकीपन सभी सुविधाओं से संपन्न रिहाइशी इलाकों के बाशिंदों में ज्यादा दिख रहा है। इन बहनों में अकेलेपन का भाव किसी अपने के अभाव में आया था। यह भाव उस अभाव से नहीं पैदा हुआ था, जैसा रोटी, कपड़ा और मकान की जंग लड़ते आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में होता है। यहां संपत्ति के लिए होने वाले लड़ाई-झगड़े भी नहीं थे। पैतृक चल-अचल संपत्ति और जमा-पूंजी इन बहनों को मिल ही गई थी। थोड़Þे से बेहतर वित्तीय प्रबंधन से वे एक संपन्न और सुविधाजनक जिंदगी जी सकती थीं। आर्थिक अभाव का भाव या तो इंसान को बहुत दीन बनाता है या व्यवस्था के प्रति विद्रोही। जिनके पास आर्थिक रूप से कुछ खोने के लिए नहीं होता, वे समाज और व्यवस्था को लेकर बागी होते हैं। लेकिन खाते-पीते तबकों में अपनों के साथ की कमी का भाव खुद के प्रति विद्रोह पैदा कर देता है। अपना ही अस्तित्व बेगाना लगने लगता है। सवाल है मन की ग्रंथियों में ये भाव कहां से घुसपैठ कर लेते हैं कि कोई अपने प्रति भी इतना बेहरम हो जाता है?

दरअसल, महानगरों में बच्चों के पालन-पोषण के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, उनमें हैसियत का तत्त्व सबसे ऊपर होता है। लेकिन उसमें जो आभिजात्य फार्मूले अंगीकार किए जाते हैं, किसी बच्चे के एकांगी और अकेले होने की बुनियाद वहीं पड़ जाती है। आज यह वक्त और समाज की एक बड़ी और अनिवार्य जरूरत मान ली गई है कि एक आदमी एक ही बच्चा रखे। एकल परिवार के दंपत्ति इस बात को लेकर बेपरवाह रहते हैं कि वे अपने छोटे परिवार के दायरे से निकल कर बच्चों को अपना समाज बनाने की सीख दें। काम के बोझ से दबे-कुचले माता-पिता डेढ़ साल के बच्चे को ‘कार्टून नेटवर्क’ की रूपहली दुनिया के बाशिंदे बना देते हैं। बच्चे के पीछे ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़े, इसलिए उसके भीतर कोई सामूहिक आकर्षण पैदा करने के बजाय उसकी ऊर्जा को टीवी सेट में झोंक देते हैं। फिर दो-तीन साल बाद उसके स्कूल के परामर्शदाता से सलाह लेने जाते हैं कि बच्चा तो टीवी सेट के सामने से हटता ही नहीं और पता नहीं कैसी बहकी-बहकी कहानियां गढ़ता है।

वह ऐसा क्यों नहीं होगा? उसकी दुनिया को समेटते हुए क्या हमें इस बात का भान भी हो पाता है कि हमने उसे इस दुनिया से कैसे काट दिया। होश संभालते ही जिस बच्चे को अपने साथी के रूप में ‘टॉम-जेरी’ और ‘डोरेमॉन’ मिला हो, वह क्यों नहीं आगे जाकर अपने मां-बाप से भी कट जाएगा? स्कूल जाने से पहले मां-बाप छोटे बच्चों को सलाह देते हैं कि अपनी पेंसिल किसी को नहीं देना, अपनी बोतल से किसी को पानी नहीं पीने देना। हम नवउदारवादी मां-बाप बच्चे को पूरे समाज से काटते हुए बड़ा बनाते हैं। उसके पास अपना कहने के लिए सिवा अपने मां-बाप के अलावा और कोई नहीं होता। और जब वही मां-बाप साथ छोड़ देते हैं तो वह अपने को निहायत बेसहारा महसूस करने लगता है। अपने घर की चारदीवारी को ही अपनी जीवन की सीमा का अंत मान लेता है। महानगरों में ऐसे अकेले लोगों की   पूरी फौज खड़ी हो रही है जो रहते तो ‘सोसायटी’ में हैं, लेकिन अरस्तू की परिभाषा के मुताबिक ‘सामाजिक प्राणी’ नहीं हैं। यानी मनुष्य होने की पहली शर्त खो बैठे हैं।

Wednesday, 20 April 2011

एक फर्जी इज्जत के नाम पर.....



एक दूसरे मामले के बहाने ही सही, अच्छा हुआ सुप्रीम कोर्ट ने खापों के कार्यकलाप पर अपनी राय साफ कर दी। दरअसल, हमने देश के स्तर पर तो एक लोकतंत्र को चुन लिया, लेकिन अक्सर इसके भीतर अलग-अलग समाजों के नियम-कायदे के हिसाब से चलना-जीना चाहते हैं। खाप जो भी कहते-करते हैं, उसकी जड़ें जहां से आती हैं, उस पर विचार करना जरूरी न समझ कर कई बार हमारे शासक भी उसे समाज के सेवकों के रूप में पेश करते हैं। लेकिन यहीं वे भूल जाते हैं कि उनका साथ एक जड़-व्यवस्था की जड़े और कितनी मजबूत कर देती हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उनके इस तरह खयालों से देश या समाज की कितनी जगहंसाई होती है या हमारा समाज कहां ठहरा-पिछड़ा रह जाता है, कितना अमानवीय बना रह जाता है।





कुछ ही दिन पहले मैंने बीबीसी की हिंदी वेबसाइट पर एक वीडियो देखा। अफगानिस्तान के किसी गांव से बाहर ऊबड़-खाबड़ जगह पर हजार से ज्यादा लोग जमा थे। वहां खड़े तालिबान के दो नुमाइंदा मौलवी कुछ फरमान जैसा सुना रहे थे। उसके बाद कमर तक खोदे गए एक गड्ढे में बुर्के में ढकी एक स्त्री को दिखाया गया। कुछ ही पल में चारो ओर खड़े लोगों ने गड्ढे में खड़ी युवती पर पत्थर बरसाना शुरू कर दिया। वह चीखती-चिल्लाती बचने की कोशिश करती हुई गड्ढे से बाहर निकलने का जतन कर रही थी कि एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर लगा और वह गड्ढे में गिर गई। लोगों ने पत्थरों की बरसात जारी रखी और गड्ढे में गिरी चीखती-चिल्लाती वह युवती थोड़ी ही देर में खामोश होकर पत्थरों के नीचे दफन हो गई।

इसके बाद एक युवक लगभग घसीटते हुए बीच में लाया गया, जिसके हाथ पीछे बंधे थे। उसका भी हश्र उसी युवती जैसा ही हुआ और बख्श देने की गुहार लगाते हुए उस युवक को भी उसी तरह पत्थरों से मार-मार कर मार दिया गया।

इन दोनों का कसूर महज यह था कि उन्होंने एक दूसरे से प्रेम कर लिया था।

पिछले पांच-छह साल में पत्रकारिता करते हुए काफी उतार-चढ़ाव भरी और कई बार बेहद त्रासद खबरों से वास्ता पड़ा। खासतौर पर सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन करते या रिपोर्टिंग करते हुए उनकी तहों में जाने की कोशिश जरूर की, लेकिन अफगानिस्तान के किसी इलाके की इस घटना के वीडियो ने पहली बार मुझे भीतर तक तोड़ दिया। हालांकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान या अपने ही इस महान देश के भीतर से भी अक्सर आने वाली अमूमन इसी प्रकृति की खबरों से सामना होता रहा था।

अफगानिस्तान में तालिबान के बर्बर बर्ताव का वीडियो देखते हुए कई साल पहले घर में पड़ी किसी पुरानी पत्रिका में लगभग बीस-बाईस साल पहले छपी एक रिपोर्ट का ध्यान आया। मुझे ठीक से याद तो नहीं है, लेकिन शायद वह हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेहराना नाम का एक गांव था। वहां पंचायत के फैसले के बाद दस हजार लोगों की भीड़ के सामने एक लड़का-लड़की के साथ-साथ लड़के के एक दोस्त को भी सरेआम पेड़ से लटका कर फांसी की सजा दे दी गई। लड़के-लड़की का जुर्म वही था- उन्होंने एक-दूसरे से प्रेम कर लिया था। और लड़के के दोस्त का यह कि उसने उन दोनों की मदद की थी।

अफगानिस्तान के किसी इलाके की वह घटना हमारे देश के कुछ राजनीतिक वर्गों के लिए शायद इस लिहाज से मुफीद साबित हो सकती है कि इस बहाने वे किसी खास समुदाय की मजहबी रिवायतों पर सवाल उठा सकते हैं। लेकिन बीस-बाईस साल पहले मेहराना की घटना से लेकर आज भी हमारे महान भारत के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर आने वाली ‘ऑनर किलिंग’ की खबरें उन्हें विचलित नहीं करतीं। बल्कि कई बार इसे संस्कृति को बचाने की लड़ाई के रूप
में भी पेश किया जाता है।

अव्वल तो मैं ‘सम्मान बचाने के लिए मौत’ की एक फर्जी, बेईमान और बर्बर अवधारणा से जन्मे जुमले 'ऑनर किलिंग' का विरोध करती हूं और इसकी जगह पर पर किसी ऐसे शब्द या शब्द समूह का इस्तेमाल शुरू करने की गुजारिश करती हूं जो इस त्रासदी को सही संदर्भों में समझने में मदद करे। तब तक मैं अपनी ओर से इसे ‘झूठी इज्जत के नाम पर हत्या’ और किसी भी रूप में इसका विरोध नहीं करने वालों को हत्यारों का अलंबरदार कहूंगी...।

प्रेम जैसे सहज, प्राकृतिक और अनिवार्य मानवीय व्यवहारों का गला घोंटने की जिन बर्बरताओं पर किसी व्यक्ति या समाज को शर्म से डूब मरना चाहिए, उसे अंजाम देने के बाद अगर कोई बाप गर्व से यह कहता है कि बेटी की वजह से उसकी इज्जत जा रही थी, इसलिए उसने बेटी को मार डाला और उसे समाज के एक बड़े हिस्से का चुप्पा समर्थन मिलता है तो जरूर हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो दिखने में तो सभ्य इंसानों का लगता है, मगर असल में आज भी उसी कबीलाई दौर में जी रहा है जिसमें सोचने-समझने की क्षमता का विकास नहीं हुआ है।

सबसे आधुनिक कंप्यूटरों या मोबाइल फोनों पर उंगलियों से खेलने वाले इस समाज के अच्छे ब्रांडेड कपड़े पहनने वाले, टीवी-फ्रिज या सबसे महंगी कारों के बेहतरीन उपभोक्ताओं के लिए शायद यह एक सख्त टिप्पणी है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इक्कीसवीं सदी का आसमानी सफर करते हुए हमारे समाज में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो देश में मौजूदा तथाकथित विकास के चेहरे लगते हैं, लेकिन दिमागी तौर पर हजार साल पिछड़े हैं? सूट-बूट और टाई पहने किसी जेंटलमैन के बारे में अगर यह खबर आती है कि उसने अपनी बेटी या बहन की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसने किसी लड़के को पसंद कर लिया था, तो यह हमें किस सदी की तस्वीर लगती है? 



अपने घर की किसी लड़की के किसी से प्रेम कर लेने से जिनकी इज्जत लुटने लगती है, दरअसल वे वही लोग हैं जिनकी निगाह में अपने घर की चहारदीवारी के भीतर कैद औरतें तो इज्जत हैं, लेकिन दुनिया की बाकी तमाम औरतें खेलने के लिए महज एक शरीर। यह अलग बात है कि अपने घर की औरतें या बच्चियां जब तक उनकी गुलाम हैं, तभी तक उन्हें इज्जत के रूप में देखा जाएगा। और अगर उसने सिर उठा कर देखने की जुर्रत की, तो बहुत मेहरबानी की जाएगी तो उसे समाज-बाहर कर दिया जाएगा या फिर काट डाला जाएगा।

हमारे स्कूल की इतिहास की किताबों में कभी पढ़ाया गया था कि विदेशी हमलावरों से लड़ने के लिए जब किसी राजा के सभी सैनिक   मोर्चे पर चले जाते थे और जब लड़ाई हार जाने की खबर आती थी तो राजमहल में मोर्चे पर गए सभी सैनिकों और सेनापतियों की पत्नियां एक साथ जौहर का व्रत ले लेती थीं। यानी अग्निकुंड में सामूहिक आत्मदाह...। इसी तरह, सती होने को एक कुप्रथा के रूप में पढ़ाए जाने के बावजूद उसका संदेश यही निकलता था कि सती होने वाली औरते बहुत महान होती थीं, और बाद में उनके नाम का मंदिर बना दिया जाता था। आज भी कई जगहों पर सती मंदिर देखने को मिल जाएंंगे। तब मेरे बच्चा दिमाग में जौहर व्रत लेने वाली या सती हो जाने वाली स्त्रियों को लेकर बड़ी श्रद्धा उमड़ पड़ती थी। लेकिन आज सोचती हूं तो लगता है कि सती प्रथा के पीछे भले संपत्ति हथियाने की मंशा भी रही हो, लेकिन सती और जौहर व्रत के पीछे निश्चित तौर पर दैहिक पवित्रता की ग्रंथि भी स्त्रियों के साथ-साथ समाज के दिमाग पर हावी रही होगा। और इस लिहाज से सती या जौहर व्रत अगर इज्जत बचाने के लिए हत्या नहीं, तो इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या जरूर थी और उसका सिरा भी अलग व्याख्या के साथ तथाकथित आॅनर किलिंग से जुड़ता है।        

सवाल है कि ये इज्जत है क्या और इस तथाकथित इज्जत की यह परिभाषा किसने गढ़ी है...? किसने एक औरत को घर या जमीन की तरह एक जायदाद में तब्दील कर दिया और किसने उसकी अस्मिता के सारे सवालों को खारिज करके उसकी इज्जत को उसके देह का दूसरा नाम बना दिया?

दरअसल, स्त्री को गुलाम बनाए रख कर ही समाज के सामंती चरित्र को बचाए रखा जा सकता है। इसका विस्तार करें तो स्त्रियों के साथ सामाजिक वर्णक्रम में निचले पायदान पर गिनी जाने वाली जातियों को भी इस चक्र में शामिल किया जा सकता है। यानी स्त्रियों और समाज के अधिकांश हिस्से को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले ब्राह्मणवादी सूत्रों ने ऐसा सामाजिक मनोविज्ञान रच दिया है कि उसमें गुलामी और त्रासदी झेलते हुए शोषित और पीड़ित वर्गों को पता भी नहीं चल पाता कि इस व्यवस्था ने कब और कैसे उसके स्वत्व का हरण कर लिया।

अगर किसी लड़की ने अपने गोत्र के किसी लड़के को पसंद कर लिया तो वह अपराधी... अगर किसी अपनी जाति से बाहर और खासतौर पर किसी निचली कही जाने वाली जाति के लड़के को पसंद कर लिया तो अपराधी... और सच कहें तो यह कि अगर उसने अपने भीतर उमड़ रही भावनाओं की हत्या नहीं की तो अपराधी...।

यह कैसा समाज है जिसमें प्रेम कर लेने को इज्जत दांव पर लगाने का अपराध समझा जाता है?

वे कौन-से कारण हैं कि इस समाज की इज्जत तभी जाती है जब कोई लड़की अपने साथी के रूप में जिसको पसंद करने लगती है वह संयोग से निचली कही जाने वाली जाति से आता है।

यहां हमारे इस महान सामाजिक संरचना को खतरा दरअसल दोहरा है। पहला, अपनी मर्जी की राह पर चल पड़ना और दूसरा सामाजिक श्रेष्ठता की तथाकथित पवित्रता को भंग करने की कोशिश- दोनों से ही समाज के मौजूदा सामंती ढांचे की नींव खोखली होती है। इसलिए सामाजिक सत्ताधीशों ने समाज के इस चेहरे को बचाने के लिए ऐसे-ऐसे फार्मूले गढ़े कि इसके निशाने पर रखे गए वर्गों को भी पता नहीं चला। अब बताइए जरा कि पति की मौत के बाद उसके साथ सती हो जाने वाली स्त्री के दिमाग पर महान होने का कौन-सा मनोविज्ञान और कैसे हावी हो जाता रहा होगा कि जिंदा जल जाने का वीभत्स फैसला और उस पर अमल से ही उसे ‘शांति’ मिलती होगी?

दरअसल, स्त्री का किसी भी रूप में स्वतंत्र होना सामाजिक सत्ताधीशों के लिए सबसे बड़े खतरे का सूचक रहा है। इसलिए उसे काबू में रखने के मकसद से जो सामाजिक हथियार तैयार किए गए, वे सभी पहलुओं से स्त्री की अस्मिता का बार-बार दमन करते हैं। इन हथियारों में एक ओर जहां पैदा होने के बाद शुरू से ही शासित और शोषित के रूप में उसे ढालने के लिए तय किए गए तमाम पारिवारिक-सामाजिक व्यवहार हैं तो दूसरी ओर मजाक में या फिर अपमानित करने के लिए दी जाने वाली गालियों से लेकर घर की चहारदीवारी के बाहर हल्की-फुल्की फब्तियां कसने या छेड़छाड़ से लेकर यौन-उत्पीड़न या बलात्कार तक के बर्बर हथियार हैं, जिनकी मार्फत उसे ‘औकात’ में रखा जाता है। और अगर ये नुस्खे किन्हीं हालात में बेअसर रहे और किसी लड़की ने सपने देखने की हिम्मत कर ही ली तो कभी खुद बाप या फिर कभी जाति या समाज अपनी पंचायत बिठा कर उसे सैंकड़ों-हजारों की भीड़ के सामने सूली पर लटका देगा, ताकि बाकी बची हुई लड़कियां इससे सबक ले सकें।

और अब तो विज्ञान ने इससे भी आसान और कारगर औजार समाज के हाथों में दे दिया है। मामूली-सी रकम खर्च करो, गर्भ में भ्रूण के लिंग की जांच कराओ और बेटी हो तो मार डालो...। न रहेगा बांस, न बसेगी बांसुरी...।    

साथियो, यह वही दौर है, जब दुनिया के किसी भी कोने में बैठ कर किसी छोटी-सी मशीन के जरिए दूसरे कोने की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सकती है। इसे हम मानव समाज के लगातार विकास का नतीजा भी कहते हैं। लेकिन वे कौन-सी वजहें हैं कि हमारे समाज के एक बड़े हिस्से ने विकास के अति आधुनिक संसाधनों को तो अपनी जिंदगी का एक आम हिस्सा बना लिया है, लेकिन सामाजिक बर्ताव के पैमाने पर वह उन्हीं सड़ांधों को जीना चाहता है, जिसे हजारों साल पहले एक बेहद सोची-समझी साजिश के तहत व्यवस्था में घोल दिया गया?

वह सरकारी स्कूलों के लिए पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धतियों का इस्तेमाल कर तैयार किए गए पाठ्यक्रम हों या बहुत पैसे खर्च कर किसी बहुत अच्छे प्राइवेट   स्कूल की पढ़ाई, हमारे बच्चों के दिमाग से एक छोटी-सी चीज जाति को नहीं निकाल पाती, एक स्त्री को भी व्यक्ति समझने की मानसिकता पैदा नहीं कर पाती। क्या यह केवल पढ़ाई-लिखाई की विफलता है?

चांद को छूने के लिए बेताब हमारे देश की धरती की सड़कें बहुत चिकनी होती जा रही हैं। बहुत ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें दिखाई देने लगी हैं। हमारे घर सभी आधुनिक साजो-सामान से सजने लगे हैं। हमारे घर के दरवाजे पर सबसे महंगी कार खड़ी दिख सकती है। क्लबों या पबों की देर रात की पार्टिंयों में नशे में झूमने को हमने मॉडर्न होना मान लिया है। लेकिन प्रेम करने के बदले किसी लड़की की हत्या कर दी जाती है तो हम समाज को बचाने का झंडा थाम कर लहराने लगते हैं।

देश पर राज करने वालों को सिर्फ इस बात से मतलब है कि समाज का मौजूदा जड़ ढांचा बना रहेगा, तभी तक उनका राज कायम रहेगा। इसलिए अगर उनका बस चले तो शायद वे प्रेम करने के खिलाफ कानून बना दें, लेकिन झूठी इज्जत बचाने के पाखंड में किसी प्रेम करने वाले लड़की-लड़के की हत्या के खिलाफ कोई सख्त कानून बनाना उसे जरूरी नहीं लग रहा। वे कौन-सी वजहें हैं कि आठ या दस फीसदी विकास दर का हवाला देकर हमारी सरकार हमें दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत होने का सपना दिखा रही है, लेकिन सामाजिक विकास या बदलाव के लिए कोई भी नीति उसे जरूरी नहीं लग रही? देखिए, कि हमारे इस महान लोकतंत्र में कोई हत्यारा समाज राज करने वालों को कैसे ब्लैकमेल करता है। क्या सरकारों से यह कहा जा रहा है कि तुम हमें इज्जत बचाने के नाम पर हत्याएं करने की छूट दो, हम तुम्हें वोट देंगे...। और क्या सरकारें वोट लेने के लिए सचमुच इस जंगली और कबीलाई परंपरा को निबाहने की छूट देती रहेगी?

जो लोग गोत्र के भीतर शादी करने के एवज बेटियों या उनके प्रेमियों की हत्या कर देते हैं, वही लोग जाति को लेकर इतने जड़ और तालिबानी चेहरे साथ इतने कट्टर हैं कि जाति से बाहर, खास तौर पर किसी निचली कही जाने वाली जाति के लड़के से प्रेम करने पर भी बेटी-बहन या उसके प्रेमी को मार डालने से नहीं हिचकते।

यानी गोत्र के बाहर शादी करना बाध्यकारी नियम है, लेकिन जाति से बाहर जाने की छूट नहीं। गोत्र के भीतर शादी करने से पवित्रता भंग होती है और जाति के भीतर करने से बची रहती है। वे कहते हैं कि गोत्र के बाहर शादी करने से आगे की पीढ़ी का नस्ल अच्छा होता है- हर लिहाज से...। यही तर्क वे जाति या धर्म से बाहर शादी करने के मामले में क्यों नहीं मानते। अगर गोत्र के भीतर शादी करने से वंश खराब होता है तो जाति या धर्म के भीतर करने से वह कैसे अच्छा होता है? अगर वे विज्ञान का तर्क लाते हैं, तब तो वह गोत्र के साथ-साथ जाति और धर्म- सभी पर लागू होगा न...!

इस सामाजिक साजिश को समझिए दोस्तो... इसकी परतें उघाड़ना और समाज को इंसानी चेहरा देना हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए...।

यह उनके तर्क का ही विस्तार है कि जाति, गोत्र या धर्म के दायरे दरअसल एक सामाजिक फ्रॉड हैं और कुछ खास वर्गों ने इसे अपनी सामाजिक सत्ता को बरकरार रखने का हथियार बनाया हुआ है। स्त्री और समाज के वंचित वर्गों की सामाजिक हैसियत शासित और शोषित की बनी रहे, इसी से पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था बनी रहेगी। इसलिए वे समाज से लेकर राजनीतिक सत्ताओं और शासन के हर पहलू को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।

लेकिन हवा किसके रोके रुकी है? दरवाजे और खिड़कियां बंद कर अगर कुछ लोग यह सोच रहे हैं कि वे हवा का रास्ता रोक देंगे, तो इस पर सिर्फ तरस खाया जा सकता है। किसी एक मनोज और बबली को मार कर अगर वे सोचते हैं कि वे बाकी को इस रास्ते सबक दे रहे हैं तो उन कुंए के मेंढ़कों को यह नहीं पता कि रोज न जाने कितने मनोज और बबली उनको मुंह चिढ़ाते हुए अपनी राह बढ़े चले जा रहे हैं। इज्जत बचाने के नाम पर की जाने वाली हत्याओं जैसे जंगली और कबीलाई परंपरा निबाहने वालों के बरक्स एक नई फौज तैयार हो रही है, चुपचाप एक समाज बन रहा है। उस नई दुनिया में जोखिम है, संघर्ष है, लेकिन उम्मीद की सुबह भी वहीं है।

स्वार्थी सरकारों और सामंती सामाजिक सत्ताधीशों की तमाम तलवारबाजियों के बावजूद बांसुरी का वह सुर न कभी थमा है, न थमेगा। सोचने की जरूरत सबसे ज्यादा हम स्त्रियों को है। या तो हम इस समाज की खोखली इज्जत के लिए खुद को कुर्बान करती रहें, या फिर अपनी अस्मिता के लिए उन रास्तों की ओर रुख करें जहां सचमुच हमारी गरिमा और आजादी हमारा इंतजार कर रही है...।

Friday, 15 April 2011

ये हक को रहम में बदलने वाले एनजीओ...


अपना अपना समाज




कुछ समय पहले टीवी पर साक्षात्कार के दौरान हरियाणा के मुख्यमंत्री को यह कहते सुना कि खाप पंचायतें कुछ भी गलत नहीं कर रही हैं और वे दरअसल किसी एनजीओ या गैरसरकारी संगठन की तरह काम करती हैं। जब उनसे इन पंचायतों के कानून हाथ में लेने की घटनाओं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मीडिया बिना जाने-समझे खाप और गांवों की पंचायतों को गलत तरीके से पेश करता है। मैं किसी राज्य के मुख्यमंत्री के मुंह से खाप पंचायतों की ऐसी वकालत से हैरान थी। इंतजार किया कि खुद को प्रगतिशील घोषित करने वाले गैरसरकारी संगठन अपनी तुलना खाप पंचायतों से किए जाने पर कोई प्रतिक्रिया देंगे। लेकिन किसी भी एनजीओ को इसमें आपत्तिजनक शायद कुछ नहीं दिखा।

इस साक्षात्कार के दो-तीन दिन बाद जब एक एनजीओ की ओर से स्त्री अधिकारों पर आयोजित विचार-गोष्ठी में थी तो बात जरा खुल कर सामने आई। उसमें झारखंड से आई और उसी एनजीओ से जुड़ी एक कार्यकर्ता ने माइक हाथ में लेकर कहा कि मुझे विश्वास है कि मैं सबसे अच्छा बोलूंगी। मुझे उसका यह भरोसा बड़ा अच्छा लगा। उसने बताया कि कुछ समय पहले हमारे एनजीओ ने बलात्कार पीड़ित एक लड़की की बहुत मदद की और लंबी लड़ाई लड़ कर उसकी शादी उसी पुरुष से कराई जिसने उसके साथ बलात्कार किया था। वह कार्यकर्ता गर्व से बता रही थी कि किस तरह उसने पीड़ित लड़की को नया जीवन दिया। मैं उसकी बातें सुन कर स्तब्ध थी। उस सेमिनार में ज्यादातर वक्ताओं ने कहा कि गृहणियां परिवार की रीढ़ हैं और परिवार बचाने के लिए गृहणियों के काम को महत्त्व देना जरूरी है। घरेलू महिलाओं के अधिकारों का मैं सम्मान करती हूं और उनके काम का महत्त्व मुझे समझ में आता है। लेकिन मैंने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसके बावजूद क्या हमें इस परंपरागत मानसिकता या ‘कंडीशनिंग’ से उपजी जड़ता को तोड़ने की जरूरत नहीं है जिसके तहत एक लड़की ही गृहिणी बनने का विकल्प चुनती है? क्या हमारे समाज को इस बात का डर सताता है कि घर के दायरे से जब ये महिलाएं निकलती हैं तो पंचायत से लेकर संसद तक में हिस्सेदारी मांगने लगती हैं और देनी पड़ती है?



बहरहाल, यह देखा जा सकता है कि आज भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में गैरसरकारी संगठन किस तरह एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो चुके हैं। लोककल्याण के जो दायित्व हमारी सरकारों के थे, अमूमन उन सबको अब ऐसे संगठनों के हाथों में सौंपा जा रहा है। ये एनजीओ ‘नए भारत’ का निर्माण कर रहे हैं। एक ओर हरियाणा के मुख्यमंत्री कहते हैं कि खाप पंचायतें एनजीओ की तरह काम कर रही हैं, दूसरी ओर एनजीओ कार्यकर्ता बलात्कार की शिकार एक लड़की की शादी उसी के बलात्कारी से करवाती है। इसे कैसे देखा जाए? क्या हम खापों के कार्यकलाप या नागरिकों के अधिकारों को एनजीओ की मार्फत रहम के रूप में बदलते जाने से अनजान हैं? क्या यह अलग-अलग मोर्चे पर ‘दीवारों’ को मजबूत करने की साजिश है, ताकि व्यवस्था अपने मूल रूप में बनी रहे?

मैं देश में गैरसरकारी संगठनों की भूमिका से इनकार नहीं करती। इनके बीच के कुछ लोगों की लड़ाई की बदौलत ही हमें सूचना का अधिकार कानून जैसा हथियार मिला है। लेकिन इससे उपजी व्यापक उम्मीदों का जमीन पर उतरना अभी बाकी है। फिलहाल इसके फायदे समाज के पढ़े-लिखे, जागरूक और सभ्य माने जाने वाले मध्य या उच्च मध्यवर्ग के बीच ही सिमटे हैं। अस्पताल से भगाए जाने के बाद किसी गरीब महिला को मजबूरन सड़क पर बच्चे को जन्म देना पड़ता है; किसी दलित लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है या उसके हाथ-पांव काट दिए जाते हैं या कहीं जिंदा जला दिया जाता है; कहीं एक विधायक के शोषण से मुक्ति पाने के लिए एक औरत को उसकी हत्या करनी पड़ती है या फिर अपनी मर्जी से अपना साथी चुनने वाली निरूपमा पाठक जिंदा रहने का हक खो बैठती है...! क्या इन हकीकतों को जानने के लिए किसी आरटीआई की जरूरत है? अगर क्रिकेट का विश्वकप जीतना पूरे देश की जीत है तो हरियाणा के मिर्चपुर में वाल्मीकि परिवार की किसी सुमन को जिंदा जला दिया जाना देश के लिए शर्म क्यों नहीं है?

ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब कुछ वामपंथी दलों की भ्रष्टाचार के खिलाफ साझा रैली में ढाई-तीन लाख लोग दिल्ली पहुंचे थे। रामलीला मैदान से लेकर आईटीओ और जंतर-मंतर तक का नजारा सबके लिए आम था। लेकिन आईटीओ के पास एक टीवी का रिपोर्टर कैमरे पर चिल्ला-चिल्ला कर बता रहा था कि इस रैली की वजह से हुए जाम के चलते आम लोग बेहद परेशान हैं। रैली में शामिल एक महिला ने तड़प कर उस पत्रकार से कहा कि क्या हम लोग तुम्हें आम नहीं दिखते! मैं अपने बच्चों के लिए दूध और दाल नहीं खरीद सकती। वह पत्रकार बड़ी विनम्रता से ‘सॉरी’ कह कर आगे बढ़ गया, लेकिन उसकी बात सुनना उसे जरूरी नहीं लगा। उस रैली में किसी एनजीओ की भूमिका नहीं थी, लेकिन वे तमाम लोग भी भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ विरोध जताने आए थे।

कुछ लोगों के ऐसे खयाल अच्छे लगते हैं कि ‘फेसबुक’ जैसी साइटें क्रांति की  वाहक बनेंगी। इनकी भूमिका से इनकार नहीं। लेकिन सच यही है कि देश का खाता-पीता मध्य और उच्च वर्ग संचार की आधुनिक तकनीकों के जरिए अपने हितों के लिए संगठित हो रहा है। उसका असर भी   साफ दिख रहा है। लेकिन इसमें समाज के वंचित तबकों के सवाल दबते या पीछे छूटते जा रहे हैं।

(15 अप्रैल को जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तंभ में प्रकाशित)

Saturday, 26 March 2011

नुमाइंदगी का झुनझुना और व्यवस्था की साजिशें...





जिसे मुख्यधारा की पत्रकारिता कहा जाता है, वह आज पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो चुका है और खुले रूप में बाजार-व्यवस्था का पोषण करता है। वह इस पर बारीक निगाह रखता है कि समाज में जो चल रहा है, उसे कैसे उत्पाद के रूप में पेश किया जाए। वह हर चीज को बेचना जानता है। भावनाओं या संवेदनाओं को भी...। आग्रहों-पूर्वाग्रहों या दुराग्रहों को भी...। वह अगर किसी खास चीज को ज्यादा बेच सकता है तो उसे निशाने पर रखने के बावजूद अपने बीच जगह देता है। और जिसे वह अपने लिए घाटे का सौदा मानता है, उसे चुपचाप हाशिए पर फेंक देने में वह जरा भी हिचक नहीं दिखाता। मुनाफे और घाटे की इसी बेहतरीन सौदेबाजी की वजह से ही सही, पत्रकारिता में महिलाओं को जगह मिली। लेकिन जिस मौके को महिलाओं को अपनी वर्गीय अस्मिता को एक पहचान देने का जरिया बनाना था, वे वहां पहुंचने के बावजूद खुद व्यवस्था को बनाए रखने का जरिया बनी हुई हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनका इस्तेमाल व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हो रहा है। प्रिंट मीडिया में आज भी महिलाओं की गिनती इतनी नहीं है कि कम से कम के पैमाने पर भी संतोष किया जा सके। जहां वे हैं, उन्हें काम के तौर पर अमूमन वैसी जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं कि वे समाज में पारंपरिक या रिवायती स्त्री की आकांक्षाओं को तुष्ट करें। यह बेवजह नहीं है कि जितनी भी पत्र-पत्रिकाओं में 'पति को कैसे रिझाएं' 'सास को कैसे मनाएं' या 'रसोई की रानी कैसे बनें' या सजने-संवरने के तमाम बताने से संबंधित तमाम सामग्रियां जुटाने और परोसने की जिम्मेदारियां आम तौर महिला पत्रकारों के जिम्मे सौंपी जाती हैं।

हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के फीचर पन्ने तो आज भी स्त्री सुबोधिनी के युग से आगे नहीं पहुंच पाए हैं। कई बार लगता है कि इस तरह की जिम्मेदारियों को संभालने वाली महिलाओं को पत्रकार भी कैसे कहा जाए। लेकिन संस्थान की कथित जरूरतें पूरी करती हुई इन महिलाओं से उनके हिस्से आई बहुत छोटी कामयाबी को भी यों ही कैसे खारिज कर दिया जाए। असल मुश्किल तो यह है कि ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय नीतियों के बारे में फैसले लेने वाले पदों पर महिलाओं की पहुंच नहीं के बराबर है। हिंदी के साथ अंग्रेजी अखबारों-पत्रिकाओं को मिला दें तो भी संपादक के पद पर किसी महिला का नाम मुश्किल से मिलेगा। अखबारों-पत्रिकाओं में आमतौर पर मान लिया गया है कि रिपोर्टिंग का काम महिलाएं नहीं कर सकतीं। रिपोर्टिंग करती हुई इक्का-दुक्का महिलाओं का नाम सामने आता है।

यह हालत खासतौर पर हिंदी और प्रिंट मीडिया में है। लेकिन अंग्रेजी को जो लोग प्रगतिशील भाषा मानते हैं, वे दरअसल प्रगति के पैमाने को अपनी नजर और सुविधा के अनुकूल पाकर ही उसकी वकालत करते हैं। वरना वहां भी आधुनिकता के पर्दे में लिपटा परंपरावाद अपने प्रच्छन्न रूप में काम करता रहता है। अंग्रेजी अखबारों में दिल्ली टाइम्स या एचटी सिटी में पार्टी मेकअप और घर को सजाने के तरीके बताने के काम में महिलाओं को माहिर मान कर उन्हें ही इस 'प्रो-वीमेन' पन्नों को संभालने के लिए लगा दिया जाता है। फीचर पन्नों पर या टीवी कार्यक्रमों में ज्यादतर महिलाएं होने के बावजूद अगर ये पन्ने लैंगिक और जातीय स्तर पर सामाजिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने में ही मददगार साबित हो रही हैं तो इसके कारण ढूढ़ने की जरूरत है। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज पर नियंत्रण बनाए रखने वाली ताकतें अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए बेहद लचीला रुख अख्तियार करते हुए तो दिखती हैं, लेकिन नतीजे के तौर पर फिर-फिर वही आता है कि उनके उस तथाकथित लचीलेपन की वजह से आखिरकार उनकी ही सत्ता बची रहती है। स्त्रियां और समाज की निचली जातियों के प्रति उनका यह लचीलापन तभी दिखता है जब व्यवस्था पर अलग-अलग कोणों से सवाल उठाए जाने लगते हैं।

दूसरी ओर टीवी मीडिया में बाजार ने अपनी जरूरतों के हिसाब से महिलाओं को जगह दी है। हालांकि फैसले लेने के मामले में उनके दखल के हालात वहां भी बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन वहां की मुश्किल अलग है। कई बार कहा जाता है कि किसी क्षेत्र में महिलाओं की नुमाइंदगी बढ़ेगी तो कामकाज के तौर-तरीके भी खुद-ब-खुद बदल जाएंगे। मगर टीवी चैनलों में तो अच्छी तादाद में महिलाओं की पहुंच हुई है। वहां स्त्री अस्मिता के सवालों को लेकर कोई जद्दोजहद क्यों नहीं दिखाई देती? असली मामला चेतना का है, जागरूकता का है। बहुत आधुनिक दिखाई देना और आधुनिक होना- दोनों दो बातें हैं। अगर किसी स्त्री की कंडीशनिंग उसी तरह हुई है जिससे व्यवस्था के बने रहने में मदद मिलती है तो उसके काम से स्त्रियों का कुछ भला होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

अपनी अस्मिता के प्रति सचेत कोई भी व्यक्ति अपनी वर्गीय अस्मिता की लड़ाई की धार को और तीखा करेगा। मगर हम पहले से समाज के तौर पर इतना ज्यादा खंडित जीवन जी रहे होते हैं कि वर्गीय लड़ाई की यह व्यापक अवधारणा बहुत छोटे-छोटे छुद्र स्वार्थों के बोझ तले दब कर दम तोड़ देती है। हमारे ज्यादातर काम पर हमारे सामाजिक या यों कहें कि जातीय या आर्थिक वर्ग हावी रहते हैं। ऐसे पूर्वाग्रहों के रहते स्त्री अस्मिता के जरूरी सवालों पर बात करने की गुंजाइश कहां रह जाती है? जाहिर है, यह उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का न सिर्फ निर्वाह है, बल्कि एक तरह से उसका पोषण भी है जिसमें एक बड़े सामाजिक वर्ग के साथ-साथ स्त्रियों को भी वंचित और परनिर्भर के रूप में ही 'अच्छा' होने का तमगा मिलता है।     

एक समाचार एजेंसी एपी से जारी एक खबर के मुताबिक इंग्लैंड में हुए एक सर्वे में पाया गया कि आधुनिक महिलाएं चाहती हैं कि पति परिवार चलाने के लिए कमाए। खबर कहता है कि ब्रिटेन की ज्यादातर आधुनिक महिलाएं पारंपरिक मूल्यों की ओर लौटना चाहती हैं, जिसके तहत पुरुष परिवार के भरण-पोषण के लिए कमाता था और महिलाएं 'घर और परिवार' की देखभाल करती थीं। इसी तरह चार साल से कम उम्र के बच्चों वाली महिलाओं के वार्षिक ब्रिटिश सोशल एटीट्यूड सर्वे के अनुसार सत्रह फीसदी माताएं चाहती हैं कि पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग भूमिका होनी चाहिए। वर्ष 2002 में किए गए पिछले सर्वेक्षण की तुलना में यह दो फीसदी अधिक है। सर्वेक्षण में पूछे गए सवालों के जवाबों का विश्लेषण करने वाले समाज विज्ञानी ज्योफ डेंच ने कहा- 'बच्चों वाली महिलाएं पारंपरिक श्रम विभाजन की ओर लौट रही हैं, जिसमें वे चाहती हैं कि पति परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करे।' सर्वेक्षण के मुताबिक अगर महिलाएं पूरे समय काम करती रहीं तो पारिवारिक जीवन प्रभावित होगा- ऐसा सोचने वाली माताओं की संख्या बढ़ कर सैंतीस फीसदी हो गई। 'डेली मेल' में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक घर और बच्चे की चाहत रखने वाली महिलाओं की संख्या 2002 की तुलना में दोगुनी से अधिक बढ़ कर बत्तीस फीसदी हो गई है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि सर्वाधिक खुशहाल होने की बात करने वाली वे महिलाएं थीं, जो ऐसी घरेलू महिला की भूमिका में थीं और जो थोड़ा-बहुत पैसा भी कमा लेती हैं।

सवाल है कि ऐसे सर्वेक्षण और उसका प्रकाशन क्या साबित करते हैं। क्या इससे यह नहीं साफ होता है कि व्यवस्था खुद को बनाए रखने के लिए एक साथ कई स्तरों पर काम करती है। कितनी सदियों की जद्दोजहद के बाद महिलाएं अपनी ताकत से जगह हासिल कर रही हैं। ऐसे सर्वेक्षणों के जरिए क्या यह साबित करने की कोशिश नहीं की जा रही है कि स्त्रियां खुद ही मर्दों को मुख्य भूमिका में रखना चाहती हैं और अपनी जिम्मेदारी का दायरा घर की चारदीवारियों को मानती है? हालांकि इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि महिलाओं के बढ़ते दखल से व्यवस्था डरी हुई है और ऐसे सर्वेक्षणों के शिगूफे छोड़ कर स्त्री समाज के मनोबल को गिराने की कोशिश कर रही है। ऐसे सर्वेक्षणों और उनके नतीजों को आज की महिलाओं को सचेत तौर पर खारिज करना होगा, क्योंकि ये दरअसल उसी पितृसत्ता की साजिशों का नतीजा हैं जिसकी शिकार वे आज तक रही हैं।

कुछ समय पहले एक अखबार में एक खबर छपी थी जिसके मुताबिक डॉक्टर महिलाओं को स्वस्थ रहने के लिए दिन के हिसाब से व्रत-उपवास रखने की सलाह देते हैं। क्या खबर देने वाले पत्रकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह इस मामले पर आलोचनात्मक तरीके से काम करता कि स्वस्थ रहने के लिए भूखे रहना कितना फायदेमंद या नुकसानदेह है, फिर एक डॉक्टर द्वारा भूखे रहने के लिए व्रत-उपवास का सहारा लेने की सलाह देना कितना सही है? व्रत-उपवास रखने के 'वैज्ञानिक' कारण और उसके फायदे बताने वाले आम लोग भले इन 'तर्कों' की 'वैज्ञानिकता' से प्रभावित होते हैं, लेकिन एक पत्रकार भी अगर उसी माइंडसेट से इसे खबर के रूप में परोसता है, तो असल में वह उन्हीं लोगों की ताकत बनता है या उसमें शामिल होता है, व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नित नई-नई साजिशें रचते रहते हैं। इसके पीछे केवल आर्थिक मुनाफा नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक कारण छिपे हैं कि आज करवा चौथ जैसे शुद्ध जड़वादी त्योहार टीवी या प्रिंट मीडिया के लिए एक प्रिय 'मौका' हो गए हैं।

आज कल कथित शोधों के हवाले से बड़े पैमाने पर ऐसी खबरें परोसी जा रही हैं जिनमें बताया जाता है कि गोत्र से बाहर शादी करने से उन्नत नस्ल की संतान प्राप्त होती है। लेकिन ऐसे शोध खोजने से भी नहीं मिलते जिसमें यह कहा गया हो कि जाति, मजहब या दूसरे नस्ल के व्यक्ति से शादी करने से भी जो संतान प्राप्त होगी वह मौजूदा नस्ल से ज्यादा उन्नत होगी। दहेज हत्या और दूसरे तमाम घरेलू हिंसा कानूनों के खिलाफ छपी सामग्रियों पर एक शोध-पत्र तैयार हो सकता है। ऐसी खबरें कहां से और किन मानसिकता से तैयार हो रही हैं? जाहिर है, व्यवस्था खुद को कायम रखने के लिए इस तरह की खबरें प्रायोजित करतीहै और मीडिया में बैठे उनके नुमाइंदे उनके लिए हथियार के तौर पर काम करते हैं।

लेकिन कई बार लगता है कि ऐसा सब कुछ साजिशन भी किया जाता है। किसी स्त्री के साथ बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग करते समय बिना किसी हिचक के 'इज्जत लूट लेने' या 'दुष्कर्म करने' जैसे शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता है। अगर किसी स्त्री को बच्चा नहीं हुआ तो उसे 'बांझ' कहते हुए किसी की जुबान नहीं लड़खड़ाती। सवाल है कि क्या यह सिर्फ शब्दों का लापरवाह इस्तेमाल भर है? मेरे खयाल से एक पत्रकार का कोई काम समाज को किसी न किसी रूप में शिक्षित करता है। लेकिन हो यह रहा है कि एक तरफ वह स्त्री के खिलाफ किए गए सबसे वीभत्स अपराध के लिए 'दुष्कर्म' जैसे शब्द का साजिशन इस्तेमाल करता है और बलात्कार शब्द के दंश को हल्का करता है तो दूसरी ओर वह इसी अपराध के लिए व्यवस्था का प्रिय रहा जुमला 'इज्जत लूट लिया' जैसे शब्दों से अपनी खबर सजाता है। यानी दोनों स्तरों पर भुक्तभोगी स्त्री ही आखिरकार निशाने पर है।

हाल ही में दिल्ली मेट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए अलग एक डिब्बा आरक्षित होने पर अखबारों और टीवी में हैरतअंगेज रिपोर्टिंग दिखाई पड़ी। कई रिपोर्टरों ने इसे बाकायदा पुरुषों पर अत्याचार के रूप में पेश किया और इस सुविधा को महिलाओं के समानता का अधिकार मांगने के खिलाफ बताया। दो ही बातें हैं। या तो ऐसी रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार, वे पुरुष हों या महिला, पूरी तरह पुरुष कुंठा और दुराग्रहों से भरे हुए हैं या फिर उनका दिमागी विकास अभी बाकी है। वे निश्चित तौर पर किसी मसले को उसके असली और व्यापक संदर्भों के साथ देखने के मामले में अक्षम हैं। हैरानी होती है कि लगभग सभी जगहों पर असुरक्षित स्त्री के लिए अलग डिब्बा आरक्षित करने को उनके समानता के अधिकारों की मांग के खिलाफ बताने वाले लोग कैसे खुद को एक पत्रकार कहते हैं। खुद को बाकियों से श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में पेश करने वाला कोई भी व्यक्ति अगर किसी मसले का ईमानदारी से विश्लेषण नहीं कर सकता तो उसकी क्षमता पर सवाल उठाया जाना चाहिए।