tag:blogger.com,1999:blog-58277349900569690812024-03-05T15:56:47.082-08:00वल्लरीअपनी ज़मीन से... अपने आसमान की ओर...वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-55949621186801069932013-04-04T00:10:00.001-07:002013-04-04T00:10:30.686-07:00कॉरपोरेट का होमसाइंस<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsl16b1-wf0xQJL0Aq_dcMZJJ_ZQmw1um01ua_AsKuouI2Fpk8guAdz9EOO6F6PQZosj3-FEKVUNRxPmYwEENt8fk1CrJmqtlnwwRh_TQnGYtGjWwhEvxrc9SEDhRQerOhCZDDb6l11fM/s1600/women.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsl16b1-wf0xQJL0Aq_dcMZJJ_ZQmw1um01ua_AsKuouI2Fpk8guAdz9EOO6F6PQZosj3-FEKVUNRxPmYwEENt8fk1CrJmqtlnwwRh_TQnGYtGjWwhEvxrc9SEDhRQerOhCZDDb6l11fM/s1600/women.jpeg" /></a></div>
<br />
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<br />
"लड़कियों के पास लुभाने को कुछ होता भी है,
मगर नौकरी न पाने वाले सामान्य युवक के पास कुछ भी नहीं होता." -ये "उच्च"
विचार वरिष्ठ साहित्यकार और प्रगतिशील माने जाने वाले एक लेखक विश्वनाथ
त्रिपाठी के हैं, जो उन्होंने "शुक्रवार" पत्रिका के साहित्य वार्षिकांक
में प्रकट किए हैं।<br />
<br />
सवाल उठता है कि देश-दुनिया के साहित्य और समाज का विश्लेषण करने के
बावजूद एक महान कहा जाने वाला व्यक्ति अगर अपने बुजुर्गावस्था में भी इतने
कुत्सित विचार के साथ महान बना रह सकता है तो हम खालिस सामंती और मर्दवादी
समाज के मनोविज्ञान में तैयार हुए एक साधारण पुरुष से क्या उम्मीद करेंगे।
त्रिपाठी जी को नौकरी मांगने के लिए लड़कियों के पास लुभाने का एक हथियार
दिखाई देता है। दरअसल, स्त्री की क्षमताओं को खारिज़ किए बिना पितृसत्ता का
जिंदा रहना संभव नहीं होगा। इसलिए सबसे पहली चोट उनकी क्षमताओं पर ही किया
जाता है। इसके लिए सबसे आसान यही है कि उनके अस्तित्व को उनके शरीर में
समेट दिया जाए।<br />
<br />
अगर कोई स्त्री किसी दफ्तरी कामकाज को करने में सक्षम है, तो असली खतरा
जितना उससे है, उससे ज्यादा एक समांतर सत्ता के खड़ा हो जाने से है। इसलिए
पितृसत्तात्मक कुंठाओं का उदाहरण विश्वनाथ त्रिपाठी के विचार के अलावा भी
कई रास्ते अपनाए जाते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी चूंकि साहित्य और विचार के एक
सत्ता केंद्र माने जाते हैं, इसलिए उनके खयालों की कसौटी पर रखना जरूरी
है। लेकिन इस समाज में जितने भी सत्ता केंद्र हैं, वे मूलतः पितृसत्तात्मक
व्यवस्था से ही संचालित होते हैं। आखिरी मकसद इसी व्यवस्था की जड़ों को
खाद-पानी पिलाना होता है। सबसे ताकतवर सत्ता-केंद्र के रूप में आज टीवी के
जरिए जनमानस की चेतना में जिस बारीक तरीके से मर्द कुंठाओं को और मजबूत
किया जा रहा है और नई चुनौतियों से पार पाने का रास्ता बताया जा रहा है, वह
हैरान करता है। इसलिए भी कि आधुनिकता का ढोल पीटते हुए हम तमाम लोगों को
यह प्रगति का रास्ता लगता है, जो अपने मूल चरित्र में स्त्री को, और इस तरह
समूचे समाज को उल्टे अंधेरे में डुबो देने की कोशिश में लगा है।<br />
<br />
जीटीवी पर दिखाए जा रहे सीरियल "हाउस वाइफ है, सब जानती है" की नायिका
सोना कामकाजी महिला नहीं होना चाहती है। उसका पति, उसकी सास और पूरा परिवार
उसे कामकाजी महिला यानी वर्किंग वूमेन बनाने के लिए "साजिशें" रचता है।
लेकिन वह अपने "धर्मयुद्ध" में अडिग है। इस नायिका के बहाने बताया जा रहा
है कि वे पत्नियां लालची और स्वार्थी होती हैं जो ऑफिस जाना चाहती हैं।
आजादी की मांग दरअसल वे महिलाएं करती हैं, जिन्हें अपने परिवार की फिक्र
नहीं है। इस सीरियल में हाउसवाइफ का जिस तरह से महिमामंडन किया जा रहा है,
वह चौंकाता है और कुछ सोचने पर मजबूर करता है। हमेशा सोलह श्रृंगार से लैस
किचेन में जाने वाली सोना को देख और हाउसवाइफ के पक्ष में उसके क्रांतिकारी
डायलॉग सुन कर कॅरियर बनाने के लिए जद्दोजहद कर रही कोई भी लड़की अफसोस से
भर जाएगी। स्टार प्लस के धारावाहिक "ये रिश्ता क्या कहलाता है" की अक्षरा
का भी यही हाल है। जब उसका पति बीमार होकर चार साल बिस्तर पर पड़ा रहा तो
उसने पति के ऑफिस में जाकर सब कुछ संभाल लिया। वह एक कामयाब बिजनेस वूमेन
के रूप में जानी जाने लगी। लेकिन जब उसका पति ठीक हो गया तो वह ऑफिस नहीं
जाना चाहती है। लेकिन पति और सास के "इमोशनल" अत्याचार के बाद वह अपने पति
के साथ दफतर जाने को तैयार हो जाती है।<br />
<br />
<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXTmu0UVxD_oE1tze5IOsknQD2liRZkPoh_wqgohXKfmuvMcWkVWTvNq2FLPzftbrH_ZotVQaxDLiT-U1hB3a4hLMSP18IhRBXk1uFj51GrPTmIUYcYoBArzZkqEo_eiyxf7fDIQp8NTo/s1600/home.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiXTmu0UVxD_oE1tze5IOsknQD2liRZkPoh_wqgohXKfmuvMcWkVWTvNq2FLPzftbrH_ZotVQaxDLiT-U1hB3a4hLMSP18IhRBXk1uFj51GrPTmIUYcYoBArzZkqEo_eiyxf7fDIQp8NTo/s1600/home.jpeg" /></a></div>
<br />
यह टीवी पर चल रही "हाउसवाइफ क्रांति" है। अब दूरदर्शन पर "उड़ान" का वह
दौर खत्म हो गया जो युवा होती लड़कियों को कोई शख्सियत बनने की प्रेरणा दे
रहा था। अब महिलाओं को मुंह पर मेकअप पोत-थोप कर किचेन में जाने को ही
आदर्श स्थिति बताया जा रहा है।<br />
<br />
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री आजम खान स्कूली लड़कियों को
नसीहत देते दिखे कि वे खूब पढ़ें-लिखें, लेकिन किसी भी हाल में मायावती न
बनें। शायद आजम खान यह कहना चाहते हैं कि लड़कियों को सिर्फ डिंपल यादव बनना
चाहिए! डिंपल यादव बनना, मतलब कॅरियर के नाम पर ऐसा पति खोजना जो आपको सब
कुछ बना-बनाया दे। राजनीति में कदम रखना चाहें तो पति अपनी सीट छोड़ दे तो
आप सांसद बन जाएं। फिर जब पति के संरक्षण में और उसी के भरोसे "कॅरियर"
बनाएं तो फेसबुक पर होने वाली "रायशुमारी" में निश्चित रूप से आप पति से
जीत जाएंगी। चूंकि आपने मुख्यमंत्री पति की आदर्श पत्नी की भूमिका निभाई
है, इसलिए फेसबुक का समाज आप पर फिदा है!!! फेसबुक का समाज मायावती या कोई
इस तरह की महिला को नहीं पसंद करेगा, जिसने पति की छाया, यानी
"मेहरबानियों" के बिना अपना मुकाम बनाया है।<br />
<br />
यानी समाज की तरह घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों को हाउसवाइफ की पटरी
पर फिर से वापस लाना टीवी और समाज, सबकी नई मुहिम है। मीडिया में इन दिनों
ऐसे सर्वेक्षणों और खबरों की बहुतायत हो गई है जिसमें बताया जाता है कि
गृहिणी होना अच्छी बात है। गृहिणी शब्द शायद थोड़ा "ओल्ड फैशन" जैसा हो गया
है। इसलिए अब इसे "होममेकर" कहा जा सकता है। सुनने में आधुनिक और
कान-दिमाग को सुहाने वाला लगता है। गुलाम बनाने के लिए जोर-जबर्दस्ती के
मुकाबले गुलामी का ग्लैमराइजेशन, यानी महिमामंडन ज्यादा अच्छा और
दीर्घकालिक असर वाला फार्मूला साबित होता है।<br />
<br />
तकरीबन साल पहले का लाइफस्टाइल से जुड़ी हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका
"ब्रंच" के आवरण कथा का विषय यही था। बं्रच का यह संस्करण साल भर से ज्यादा
पुराना है लेकिन अपने कंटेंट के कारण सहेज कर रखने लायक है। ब्रंच की आवरण
कथा का नाम था कमला गो होम्स। कमला का संबोधन गृहणियों के लिए है। स्टोरी
के मुताबिक वो फेमिनिस्ट मूवमेंट पुराना हो गया है जिसमें औरतों की मुक्ति
बनाम आर्थिक स्वतंत्रता बताया गया था। दरअसल इस आर्थिक स्वतंत्रता के फलसफे
के कारण औरतें घर की चारदीवारी से बाहर नौकरी करने के लिए निकल गईं।
कार्यक्षेत्र में उन्हें कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा। घटिया बॉस
और सहयोगियों की साजिशों से घबराकर कई कमलाओं ने नौकरी से बेहतर घर में
बैठकर पति का इंतजार करना और बच्चा पालना बेहतर समझा। अब कारपोरेट मैग्जीन
सलाह देती है कि महिलाओं के लिए घर के अंदर ही मनोरंजन का बहुत सा सामान
है। अब वो जमाना गया जब महिलाएं मनारंजन के लिए सिर्फ टेलीविजन पर निर्भर
रहती थीं। अब तो डीवीडी, म्यूजिक प्लेयर, जिम ऐसे बहुत से सामान हैं जिसमें
पति के आने के पहले तक खुद को मशरूफ रखा जा सकता है। और हां महिलाओं को
सार्वजनिक जीवन का मजा लेना है तो वे चैरिटी के किसी काम में भागीदार हो
सकती हैं।<br />
<br />
आज का कॉरपोरेट आधुनिक गृहणियों की एक नई छवि बना रहा है, वह भी उनके
मुक्ति गान के साथ। हिंदी समाज के पुनर्जागरण काल में कुछ युगद्रष्टाओं ने
महिलाओं के उत्थान की बात की थी। वे शायद आधुनिक भारत की जरूरतें समझ रहे
थे। इसलिए उन कुछ मनीषियों ने "होम साइंस" जैसे विषय की परिकल्पना की थी।
तब तक भारतीय पुरुष अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिक नौकरी के संपर्क में आ गए
थे। नए नौकरीपेशा लोगों को दस से पांच के दफ्तर में जाना होता था। इसके लिए
उन्हें समय पर खाना चाहिए था। पुरुष दफ्तर में और महिलाएं घर में अकेली
होती थीं। अब महिलाओं को इतना पढ़ा-लिखा तो होना ही चाहिए था कि अगर घर में
कोई बच्चा और बुजुर्ग बीमार पड़ जाए तो अंग्रेजी दवा का नाम पढ़ कर उसे दवा
दे दे, क्योंकि तब तक अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति भी अपना बाजार बना चुकी!
इसके अलावा, अगर दफ्तर के साहब घर पर आ गए तो पत्नी जी कायदे के साथ
प्रभावित करने वाले अंदाज में उन्हें नमस्ते कहे। तो एक ऐसा विषय तैयार
करना था जो आधुनिक पुरुषों की जरूरत पूरी कर सके। उसी को ध्यान में रख कर
महिलाओं के लिए "होम साइंस" जैसा विषय बनाया गया जिसे आधुनिक समाज ने
हाथों-हाथ लिया।<br />
<br />
जो हो, "होम साइंस" की दीवारों के भीतर से चुपके से सीढ़ियां चढ़ कर
महिलाओं ने दूसरे विषयों की तरफ भी रुख कर लिया और दफ्तरों तक जा पहुंचीं
और वहां अपनी एक मुकम्मल जगह बनाई। लेकिन चूंकि परिवार बचाना महिलाओं की ही
जिम्मेदारी है और पुरुष इस जिम्मेदारी से मुक्त हैं इसलिए महिलाओं के बढ़ते
वर्चस्व से समाज की व्यवस्था को खतरा महसूस हो रहा है! कितने बारीक तरीके
से व्यवस्था बुनी और बचाई जाती है। आज की आधुनिक कही जाने वाली स्त्री को
भी यह समझने में मुश्किल आ रही है कि जो व्यवस्था उसके महिमामंडन में लगा
हुआ है, क्या वह उसमें स्त्री की अस्मिता के लिए भी कोई जगह है। या फिर यह
समाज बचाने का शिगूफा स्त्री के अस्तित्व को दफन करने की कीमत पर हो रहा
है?<br />
<br />
आज का समय कॉरपोरेट का है और वह महिलाओं के लिए नया और आकर्षक "होम
साइंस" बना रहा है, ताकि महिलाएं घर की चहारदिवारी में वापस लौट आएं।
कॉरपोरेट का यह होमसाइंस उच्च मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए है। अब कोई जरूरत
नहीं कि आप किचन में खटती रहें। खाना बनाने के लिए कुक, सफाई वाली सबका
सहयोग लें। कामों को आसान करने के लिए आधुनिक मशीनों का सहारा लें। उसके
बाद बचे बेशुमार समय का सही इस्तेमाल करें... डीवीडी पर फिल्म देखें, शरीर
को फिट रखने के लिए जिम जाएं, डार्क सर्कल, झुर्रियों-झाइयों की चिंता से
उबरने के लिए वोदका और व्हिस्की पिएं। और हां कभी टेस्ट बदलने के लिए
सार्वजनिक जीवन में जाने की इच्छा हुई तो चैरिटी के किसी कार्यक्रम में
जाइए। यानी एक ऐसी महिला की जरूरत है जो सिर पर पल्लू डाल कर आरती भी गा
सके, लग्जरी गाड़ी चला कर बच्चों को स्कूल छोड़ने जा सके, जिम में व्यायाम कर
शरीर पर चर्बी नहीं जमने दे, शाम में पति के साथ पार्टी में जाकर साल्सा
जैसे आधुनिक डांस भी कर सके और घर वापस लौट कर पति के लिए फुलके भी बना
सके।<br />
<br />
जब आधुनिक उच्च मध्यमवर्गीय महिलाओं के पास पूरे करने के लिए इतने
शानदार काम हों तो फिर वह कॅरियर का चकल्लस क्यों पाले। कॅरियर में तो
घटिया बॉस और साजिश करनेवाले सहयोगी ही मिलते हैं। यानी यह नया कारपोरेट
मीडिया समझा रहा है कि पितृसत्ता तो घर के बाहर दफ्तरों में है। घर में जो
है वह गुलामी नहीं, संस्कृति है। संघर्ष से बचने का इससे आसान नुस्खा और
क्या हो सकता है? किसी भी व्यवस्था में सत्ता पर कब्जा किए बैठे लोग नहीं
बताएंगे कि वंचित वर्गों को उनका हक बिना संघर्ष के नहीं मिल सकता। वे यह
सबसे आसान रास्ता बताएंगे कि दुनिया के संघर्ष से बचने के लिए घर में कैद
रहना बेहद आसान और बेहतर है। वे यह भी नहीं बताएंगे कि घर की कैद ही स्त्री
की सबसे बड़ी दुश्मन रही है और जब तक इस दुश्मन से लड़ा नहीं जाएगा, बाहर
के दुश्मनों से निपटना संभव नहीं है।<br />
<br />
इसके अलावा, क्या महिलाओं को इस पर कुछ नहीं सोचना चाहिए कि उसका जो
कॉरपोरेट पति अपने ऑफिस की महिलाओं के साथ सामंतों-सा और खालिस मर्द
कुंठाओं से बजबजाता हुआ व्यवहार करता है, वह घर में आते ही एक आदर्शवादी
पुरुष कैसे और क्यों बन जाता है। वैसे समाज में जहां महिलाएं दफ्तर में
अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद से गुजरती हैं, घर में अपनी अस्मिता की
बात भी कैसे कर पाएंगी। नौकरी पर गई गीतिका शर्मा के नियोक्ता के नाते उसका
सभी तरह से शोषण करने वाला गोपाल कांडा चाहता है कि उसकी दो बेटियों की
जल्द से जल्द शादी हो जाए। कांडा अपनी मां के सामने एकपत्नीव्रता रहना
चाहता है। तो क्या, जिम, एंटी एजिंग क्रीम और किटी पार्टियों में व्यस्त
बीवियों को अपने इन वहशी पतियों के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए। वे
होममेकर बनी रहीं और उनका पति कॅरियर के नाम पर लड़कियों को खुदकुशी की राह
पर धकेलता रहे। जो आदमी दफ्तर में एक महिला का सिर्फ इसलिए मनमाना शोषण
करता है कि उसने उसे नौकरी दी है, या वह उसकी मातहत है या उसके आसपास बैठती
है, वही घर में आकर बड़े आराम से एक आदर्श पति बन जाता है।<br />
<br />
जिस तरह से घर की सेहत सुधारने के लिए महिलाओं का हाउसवाइफ होना जरूरी
बताया जा रहा है, उससे ज्यादा जरूरी यह है कि समाज की सेहत सुधारने के लिए
महिलाओं का कामकाजी होना सिखाया जाए। जब तक दफ्तर से लेकर सड़क पर महिलाएं
अल्पसंख्यक बनी रहेंगी, तब तक घर के अंदर भी उनकी हालत नहीं सुधरने वाली
है। हाउसवाइफ बनाने की यह मुहिम कहीं बड़ी होती लड़कियों के सपनों की दिशा न
बदल दे। लेकिन दीर्घकालिक तौर पर इससे समाज की सेहत जो बिगड़ेगी उससे पार
पाना संभव नहीं होगा। स्त्रियों ने बड़े संघर्षों से घर की कैद से आजादी
हासिल की है। अब उन्हें फिर से उनकी दुनिया को समेटने या सिमटी हुई नई
दुनिया पर गर्व करने के लिए दीवारों और जंजीरों का महिमागान का संजाल परोसा
जा रहा है। इस सायास या अनायास, लेकिन बारीक चाल को आज की स्त्री को समझना
होगा। वरना अपनी अतीत की नियति का शिकार बनने की जिम्मेदार वह भी होगी। </div>
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वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-22453766662206349002013-04-03T23:59:00.003-07:002013-04-03T23:59:31.577-07:00पुरुष वर्चस्व के नए औजार और बेईमान सरोकार...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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पिछले साल दिल्ली में सामूहिक बलात्कार कांड के बाद हर तरफ महिलाओं की
सुरक्षा की बात हो रही थी। लैंगिक संवेदनशीलता की मुहिम चल रही थी। इसी दौर
में सिनेमा के पर्दे ने भी एक ‘इनकार’ के जरिए एक स्त्री के यौन-उत्पीड़न
की परिस्थितियों की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की। फिल्म के
प्रमोशन-प्रचार के दौरान बताया गया कि ‘इनकार’ कॉरपोरेट दफ्तरों में
यौन-उत्पीड़न जैसे विषय पर आधारित है और इसके निर्देशक हैं सुधीर मिश्रा।
जेंडर सेंसिटाइजेशन के नारों के बीच ‘इनकार’ से कुछ आशा बंधी। लगा कि कुछ
ऐसी बात होगी जिससे बहस की गुंजाइश बनेगी, क्योंकि दिल्ली में हुई घटना के
बाद मां-बेटी-बहन की सुरक्षा की बातों के बीच जो संबंध सबसे उपेक्षित रहा,
वह दफ्तरों में काम करने वाली महिलाएं और उनके सहकर्मी थे। यानी महिला
सहकर्मियों के प्रति पुरुषों के भी जेंडर सेंंसिटाइजेशन की बात कोई नहीं
करना चाहता था। घर के अंदर और सड़क की बात तो चली, लेकिन दफ्तर के भीतर के
माहौल तक नहीं पहुंच सकी।</div>
<br />
सुधीर मिश्रा के कॉरपोरेट दफ्तर ने जिस खौफनाक दृश्य से रूबरू कराया,
वह आज के दौर में बड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कॉरपोरेट दफ्तरों,
व्यावसायिक संस्थानों से लेकर मीडिया हाउसों तक की हकीकत है। लेकिन उस
हकीकत में सुधीर मिश्रा जैसी रूमानियत नहीं है। सुधीर मिश्रा ने यौन
उत्पीड़न के मामले को दिखाने के लिए जो प्लॉट चुना, उसमें पीड़ित और
उत्पीड़क-शोषक के बीच पहले प्रेम संबंध रहा। इतने गंभीर मुद्दे पर फिल्मकार
की बेईमानी यहीं से शुरू होती है।<br />
<br />
आमतौर पर हमारे समाज में अगर किसी स्त्री-पुरुष के बीच कभी आपसी
रजामंदी से शारीरिक संबंध बने हों तो उसके बाद कभी भी हुए यौन उत्पीड़न के
आरोपों को बेमानी समझा जाता है। यानी यह मान कर चला जाता है कि एक बार
स्त्री ने किसी पुरुष के साथ संबंध बनाए हैं तो उसके बाद पुरुष को उसके साथ
हमेशा कुछ भी करने का हक मिल जाना चाहिए! यानी उसके बाद उत्पीड़न की शिकायत
के लिए कोई जगह नहीं है। ‘इनकार’ की नायिका के साथ ऐसा ही होता है। उसके
ऑफिस के दो लोगों को छोड़ कर बाकी सभी को लगता है कि उसके साथ कोई उत्पीड़न
हो नहीं सकता, क्योंकि जिस पर वह आरोप लगा रही है, वह उसके साथ सो चुकी है।
लेकिन चालाकी से इस खास तरह के समीकरण को चुनने वाले और यथार्थवादी सिनेमा
बनाने का दावा करने वाले सुधीर मिश्रा को शायद दफ्तरों में होनेवाले यौन
उत्पीड़न का यथार्थ अभी ठीक से मालूम नहीं है।<br />
<br />
मान लिया जाए कि ‘इनकार’ का हीरो और हीरोइन दोनों शादीशुदा होते या एक दूसरे के साथ उनका प्रेम संबंध नहीं होता। फिर
इनके बीच बने संबंधों को कैसे दिखाया जाता? तब अगर हीरोइन यौन उत्पीड़न के
खिलाफ आवाज उठाती तो क्या होता? मेरा खयाल है कि अभी हमारे जेहन से गीतिका
शर्मा की खुदकुशी का मामला अभी उतना धुंधला नहीं हुआ होगा। गीतिका, गोपाल
कांडा से छुटकारा पाना चाहती थी। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई। यहां तक कि
कांडा की सहयोगी तक गीतिका को कांडा के लिए ‘उपलब्ध’ होने के लिए मजबूर कर
रही थी। गीतिका ने शायद अपनी मर्जी से संबंध बनाए थे, इसलिए यौन-उत्पीड़न का
उसका आरोप सही नहीं माना जाएगा। और इसके बाद उसका आत्महत्या करना इस समूचे
मामले का एक लाजिमी अंजाम था। क्योंकि ‘इनकार’ के दफ्तर में गीतिका जैसी
लड़की पीड़ित नहीं, बल्कि ‘अवसरवादी’ है जो ‘प्रमोशन के लिए’ अपने बॉस के साथ
सो गई थी। अगर गीतिका भी माया की तरह यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती तो कांडा
किसी समिति के सामने कहता कि उसके ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ को यौन उत्पीड़न का नाम
दिया जा रहा है। तो सुधीर मिश्रा को आज के दफ्तरों के ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’
का यथार्थ भी समझ लेना चाहिए।<br />
<br />
उदाहरण के तौर पर आप एक अखबार का दफ्तर ले लीजिए जहां हर दीवार पर
चौबीसों घंटे टीवी चलते रहते हैं। दस पुरुष कर्मचारियों के बीच एक महिला
कर्मचारी बैठी काम कर रही है और कोई पुरुष सबके ‘मनोरंजन’ के लिए ‘कॉमेडी
सर्कस’ या ‘बिग बॉस’ सरीखे कार्यक्रम चला देता है और टीवी की आवाज ऊंची कर
देता है। ‘कॉमेडी सर्कस’ के चुटकुले और ‘बिग बॉस’ के संवाद क्या किसी महिला
के लिए उन पुरुषों के बीच में झेलना आसान होगा, जिनके साथ उसका सिर्फ
दफ्तरी कामकाज का रिश्ता है? लेकिन इन संवादों के जरिए किसी महिला को इंगित
कर पुरुष अपनी कुंठाओं को कितनी आसानी से शांत कर लेते हैं, इस हिंसा का
सच जानने के लिए सुधीर मिश्रा को कुछ देर के लिए इस तरह के दफ्तरों में समय
बिताना चाहिए।<br />
<br />
‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ यानी अपना मन हल्का करने के लिए द्विअर्थी
टिप्पणियां या फिर चुटकुले। इसके अलावा, टीवी विज्ञापन, ‘कॉमेडी सर्कस’,
‘बिग बॉस’ आदि के संवाद वगैरह कथित ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ के वे हथियार हैं
जिससे किसी महिला की अस्मिता को आसानी से तार-तार किया जा सकता है। ये अनपढ़
और गंवार कहे जाने वाले लोग कर सकते हैं और पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी कहे
जाने वाले कई लोग भी संवेदनशीलता की चादर के पीछे खड़े होकर भी वही करते
हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि इससे उनके पास बैठी स्त्री पर कैसा असर
पड़ रहा होगा या फिर यह ठीक-ठीक समझ कर कि उनके ऐसे ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ से
उनकी कुंठाओं का शमन होता है। हालांकि संभव है कि ऐसे कई लोगों की पत्नी,
बेटी या बहन नौकरी कर रही होंगी या पढ़ रही होंगी कि आगे वे भी अपने भरोसे
और सम्मान के साथ जी सकें।<br />
<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiggICBcvgbKCUbsr4P4kXxNBSRuW31oHWo953Xr-y4LmUHqazj9GAWGL8MU5dAHr66gXy0DWnMJUOhgVmcG2aZoKggNTWXS0lss7Clu0rUSbfcJRT4blkBse12kf5awzRYKoSWvUbJ0DY/s1600/harrassment.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="248" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiggICBcvgbKCUbsr4P4kXxNBSRuW31oHWo953Xr-y4LmUHqazj9GAWGL8MU5dAHr66gXy0DWnMJUOhgVmcG2aZoKggNTWXS0lss7Clu0rUSbfcJRT4blkBse12kf5awzRYKoSWvUbJ0DY/s320/harrassment.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
<br />
बहरहाल, कॉरपोरेट दफ्तरों में सिर्फ खूबसूरत महिलाओं को लुभाने की ही
बात होती है। कॉरपोरेट सिनेमा का उत्पीड़न खूबसूरती से शुरू होता है और
समर्पण पर खत्म हो जाता है। लेकिन दफ्तरों के यथार्थ में उन महिलाओं के साथ
भी यौन उत्पीड़न होता है जो खूबसूरत नहीं मानी जाती हैं। इसके बरक्स एक
सवाल है कि क्या किसी ने किसी कॉरपोरेट दफ्तर में ऊंचे पद पर किसी दलित या
कमजोर सामाजिक पृष्ठभूमि की कम चमक-दमक वाली महिला को देखा है? यानी वैसी
महिलाओं को ऊपर तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है। तर्क क्या हो सकते हैं,
यह हम सब खूब समझते हैं। लेकिन अगर कसी कम ‘खूबसूरत’ महिला ने यौन उत्पीड़न
की शिकायत की तो शायद सेक्शुअल हारासमेंट कंप्लेन कमिटी में कामदार जैसी
विशेषज्ञ महिलाओं के सामने सब यही कहेंगे- ‘अरे मैडम... उसकी शक्ल देखी है!
उसके साथ कौन छेड़खानी करेगा। हां, पुरुषों पर कार्रवाई के मसले में यथार्थ
में वैसा ही होता है जैसा सुधीर मिश्रा ने ‘इनकार’ में दिखाया है। यानी
पूरा दफ्तर उस महिला के खिलाफ एक साथ खड़ा हो उठता है, जिसने ऐसी शिकायत
करने की हिमाकत की है। ऑफिस में सब उसके साथ अछूत जैसा व्यवहार करने लगते
हैं। स्मोकिंग जोन हो या कैंटीन, हर जगह वह महिला एक घृणित चुटकुला बन कर
रह जाती है।<br />
<br />
ज्यादातार यौन उत्पीड़न की शिकायतों का अंत पुरुष के साथ सहानुभूति शुरू
होने के साथ हो जाता है। यानी एक नारी की अस्मिता पर पुरुष की नौकरी भारी
पड़ती है। शिकायत समिति में बैठे जिम्मेदार लोगों को एक पुरुष की तुलना में
औरत की गरिमा कुछ भी नहीं लगती है। सुधीर ने ‘इनकार’ का जो अंत चुना है, वह
इस पूरे विषय को घोर निराशा की तरफ ले जाता है। अपने सीईओ के साथ सोने से
इनकार करने वाली माया को अपना केस जीतने के लिए फिल्म का निर्देशक उसे
कंपनी के मालिक की बिस्तर की तरफ धकेल देता है, लेकिन एक रहस्य के साथ।
इसके बाद यह पता लगने के बाद कि उसके खिलाफ शिकायत करने वाली महिला उन सबके
मालिक के पास गई थी, आरोपी के मन में अचानक आई लव यू जाग उठता है। उसकी
सफाई होती है कि प्यार करने का ‘उसका अपना तरीका’ था। शायद इसी ‘तरीके’ की
वजह से वह अपनी ‘प्रेमिका’ के उस विज्ञापन एजेंसी में क्रियेटिव हेड बनने
के बाद कभी बिना संदर्भ के ‘कंडोम पैक करने’ की बात कहता है, कभी किसी
मीटिंग में लोगों को ‘शैंपू लगाने वाली’ की याद दिलाता है, कभी बिना वजह के
‘सेक्सी-सेक्सी’ बकने लगता है, कभी दफ्तरी काम के लिए रात में घर बुलाता
है और प्रकारांतर से ‘सोने के लिए’ कहता है। एक दृश्य में वह अपनी
‘प्रेमिका’ को झापड़ लगाने की कल्पना करता है और यह बात वह शिकायत समिति को
बताता भी है। यह सब होते हुए भी वह ‘अपने तरीके’ से उसे प्रेम करता है। एक
कॉरपोरेट आॅफिस में ऊंचे पद पहुंची हुई महिला से प्रेम करने का यह ‘उसका
तरीका’ है। शिकायत करने वाली महिला खुद से कुछ नहीं कर सकती, केवल खुद को
नायक के लिए ‘उपलब्ध’ करके ‘आगे बढ़ सकती है।’ सुधीर मिश्रा के नायक के
हिसाब से वह ‘उसकी दया से...’ इतने ऊंचे पद पर पहुंची है और इस पूरी फिल्म
में यही साबित किया गया है कि चूंकि वह नायक की ‘मदद’ से यहां तक पहुंची
है, इसलिए उसे शिकायत करने का हक नहीं है। <br />
<br />
बहरहाल, अपने लिए जीता हुआ पूरा मामला जब हीरो को अपने खिलाफ उलटता हुआ
लगता है तो अचानक उसका ‘हृदय परिवर्तन’ हो जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि
यही इस फिल्म की असली साजिश है जो इसके पुरुष-तंत्र की ग्रंथि को खोलता
है। सुधीर मिश्रा ने भली प्रकार से यह दिखाया है कि शिकायतकर्ता महिला के
खिलाफ समूचे दफ्तर की पुरुष-ग्रंथि एक हो जाती है और उससे छुटकारा पाने के
लिए ‘किक बैक’ तक का फैसला कर लेती है। इससे पहले यौन-उत्पीड़न समिति में
भी दो सदस्यों के उसके पक्ष में फैसला देने के बावजूद ‘विशेषज्ञ’ कामदार के
‘कन्फ्यूज’ हो जाने के बाद आखिरकार वह मामला हार ही जाती है और अदालत जाने
की सोचती है। लेकिन एक महिला वकील ने जो कहा, वह भी इस फिल्म का एक बेहद
महत्त्वपूर्ण संवाद है जो फिल्मकार की मंशा को खोलता है। उसने सलाह दी कि
‘रेप को साबित करना आसान होता है, सेक्शुअल हारासमेंट को नहीं; वे तुम्हें
कुछ कंपेसेशन देंगे, नहीं तो तुम्हें निकाल बाहर करेंगे; तुम्हारे पास कोई
और तरीका है तो आजमाओ...!’ यह कोई और तरीका क्या होगा? पीड़ित आंखों से आंसू
बहाते हुए कंपनी के हेड बॉस जॉन के पास जाती है और वहां प्रथम दृष्टया और
फिर वहां से निकल कर आरोपी से बात करते हुए दर्शकों को यही समझाया जाता है
कि वह जॉन के साथ ‘वही’ कर के आई है। इसके बाद पितृसत्ता के मानसिक ढांचे
में मरता-जीता आम दर्शक क्या राय बनाएगा? यानी अपने यौन-उत्पीड़न की लड़ाई
जीतने के लिए उसे उसी उत्पीड़न का शिकार उसी शरीर सहारा लेना पड़ेगा, फर्क यह
होगा कि वह किसी उच्च पद की ओर ‘अग्रसर’ हो!<br />
<br />
यह एक बन चुकी रिवायत की तरह होगी, लेकिन क्या सुधीर मिश्रा इस फिल्म
में महज यथार्थ दिखाना भर है? निश्चित रूप से नहीं। क्योंकि फिल्म के आखिर
में नायिका के कंपनी के ‘मालिक’ के पास जाकर लौटने के बाद अपने खिलाफ
यौन-उत्पीड़न का जीता हुआ मामला उलटता देख या इस आशंका में आरोपी यानी हीरो
कंपनी से इस्तीफा दे देता है। त्याग-पत्र में वह बेहद भावुक करने वाली
बातें कहता है और दर्शकों की सारी यह सहानुभूति बटोरकर सहारनपुर की ओर चल
देता है कि एक औरत की ‘झूठी’ और ‘बनावटी’ शिकायत के कारण उसे नौकरी छोड़नी
पड़ी।<br />
<br />
इसके बाद फिल्मकार एक बार फिर अपनी ‘क्रांतिकारी’ मंशा को साफ करता है।
आरोपी हीरो के त्याग-पत्र को पढ़ कर पीड़ित हीरोइन भी नौकरी छोड़ कर ऑफिस
छोड़ कर निकल जाती है। फिर सहारनपुर की दूरी दर्शाने वाला एक मील का पत्थर
दिखाई पड़ता है। इस बीच एक दृश्य परदे पर आता है जिसमें पीड़ित हीरोइन को
कंपनी के मालिक जॉन से ‘पाक-साफ’ बच कर निकलते वापस निकलते हुए दिखाया जाता
है। यानी एक ‘पाक-साफ’ नायिका अब अपने ‘मासूम और निर्दोष प्रेमी’ के पास
जा रही है, यानी कि उसकी शिकायत अब खत्म हो चुकी है।<br />
<br />
इसमें कोई शक नहीं कि मध्यांतर के बाद यह फिल्म यौन-उत्पीड़न के मामले
को एक समय बड़े सशक्त तरीके से उठाती हुई लगती है। लेकिन इस समग्र रूप से इस
फिल्म और इसके अंत के बाद भी अगर कोई इस भ्रम में है कि इसमें सेक्शुअल
हारासमेंट जैसे गंभीर मुद्दे को बड़े संवेदनशील तरीके से उठाया गया है तो इस
पर एक बार फिर विचार करने की जरूरत है।<br />
<br />
दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के मामले पर उभरे जनाक्रोश के बाद लगा था
कि माहौल कुछ बदलेगा। शायद यह दुनिया औरतों के लिए कुछ इंसाफपसंद होगी।
लेकिन हुआ उलटा। नेता से लेकर धर्मगुरु तक औरतों को घर के अंदर बैठने की
नसीहत देने लगे। ऐसे लगा कि बस इसी मौके का इंतजार था। महिलाओं के लिए
नसीहतों की सुनामी आ गई। सुधीर मिश्रा की ‘इनकार’ को देखने के बाद कुछ वैसा
ही उलटा असर पड़ेगा। इस फिल्म को देखने के बाद यौन उत्पीड़न की शिकायतों को
बुरी नजर से देखने और महिलाओं को ही चालाक समझने वालों की तादाद बढ़ेगी। यह
धारणा मजबूत होगी कि यौन उत्पीड़न की शिकायत करने का मतलब खूबसूरत लड़कियों
का अपने आगे बढ़ने के लिए किसी मर्द को फंसाना भर होता है। और यह भी कि अगर
कोई महिला यौन उत्पीड़न की शिकायत करती है तो उसे अपना सब कुछ खोने के लिए
तैयार रहना होगा- अपनी नौकरी, अपना सम्मान और परिवार से लेकर अस्मिता तक।
पता नहीं सुधीर ने इस संवेदनशील मुद्दे के साथ ऐसी बेईमानी क्यों की!<br />
<br />
दरअसल, पिछले कुछ समय एक परिपाटी जैसी शुरू हो गई है कि सरोकार के नाम
पर ऐसी फिल्में परोसी जा रही हैं, जो अपने मूल मकसद में आखिरकार
पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था का ही हित साधती है। इससे हुआ यही है कि
इक्कीसवीं सदी के इन ‘बुद्धिजीवी’ निर्देशकों का माइंडसेट सामने आया है कि
स्त्री को देखने का इनका नजरिया भी प्रकारांतर से पितृसत्तात्मक और शुद्ध
पुरुषवादी ही है। आखिर फतवों और खापों की फरमानों को आज की स्त्रियां सुनने
को तैयार नहीं हो रही थीं, तो क्या किया जाए! आखिर स्त्रियों पर नकेल कसने
की जरूरत तो है ही! इसलिए आज इक्कीसवीं सदी में बराबरी के संघर्ष में
एक-एक कदम कर आगे बढ़ती स्त्री को रोकने के लिए दूसरे मोर्चे से गोटियां
बिछाई जा रही हैं, नए हथियार गढ़े जा रहे हैं।</div>
</div>
वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-43024334887713717772013-01-07T07:30:00.001-08:002013-01-07T07:30:43.767-08:00तो मिशेल ओबामा इसलिए महान हैं...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-1xtQe80abxTBVytBYEU2P5dfEbTrZWor9BPFwF-yAiSsBsKN_qs8tpP9CbUMi212RjF-NqjBTFQ8eIGAjUrLvgYA6ml8lPgZj8izp0_9W01LvyIhO8A8OiB2ZLSvyXOJoRNcbGSv_oE/s1600/mishel.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-1xtQe80abxTBVytBYEU2P5dfEbTrZWor9BPFwF-yAiSsBsKN_qs8tpP9CbUMi212RjF-NqjBTFQ8eIGAjUrLvgYA6ml8lPgZj8izp0_9W01LvyIhO8A8OiB2ZLSvyXOJoRNcbGSv_oE/s320/mishel.jpg" width="244" /></a></div>
<br /><br /><span style="color: red;"><b>हाल </b></span>में बराक ओबामा के लगातार दूसरी बार अमरीका के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद पश्चिमी मीडिया के साथ भारतीय मीडिया भी झूम रहा था. लेकिन अमरीकी मीडिया ने और उसके बाद वहां से प्रेरित और अनुवादित होकर भारतीय मीडिया ने भी एक खास चीज उछाली. वह थी एक समर्पित पत्नी के रूप में मिशेल ओबामा का महिमामंडन. यों तो यह जुमला काफी घिसा-पिटा हो चुका है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक औरत का हाथ होता है, लेकिन पश्चिम का मीडिया जब इस बात को गरिमामय तरीके से उछाल रहा है तो जरा सिक्के के दूसरे पहलू की तरफ भी बात कर लेनी चाहिए.<br /><br /><span style="color: red;"><b>तो </b></span>सबसे पहला सवाल मेरी ओर से यही है कि विश्व को एकध्रुवीय बनाने वाले सुपर पावर अमरीका को पहली महिला राष्ट्रपति कब मिलेगी? दो-ढाई सदी की आजादी के बाद रंगभेद की जंग को जीत कर एक "अश्वेत" ने चार साल पहले ही दुनिया को अपनी ताकत का अहसास करा दिया था. लेकिन एक महान बदलाव के बाद के ताकतवर माहौल में भी महिला की मौजूदगी एक गरिमामयी पत्नी के ही रूप में ही क्यों उभारा जा रहा है? वहां राष्ट्रपति पद की तो बात छोड़ दें, अमरीकी कांग्रेस में भी महिलाओं की संख्या अब तक संतोषजनक भी नहीं है.<br /><br /><span style="color: red;"><b>इस </b></span>संदर्भ में समाचार एजेंसी ‘भाषा’ की खबर पर गौर करना चाहिए-अमरीका की प्रथम महिला से जब कोई सवाल करता है कि ‘क्या है मिशेल ओबामा’ तो उनका एक ही जवाब होता है कि वे सबसे पहले मालिया और साशा की मां हैं. लेकिन एक मां, समर्पित पत्नी, वकील और लोक सेवक से पहले की उनकी जिंदगी के बारे में पूछा जाए तो वे खुद को सिर्फ ‘फ्रेजर और मारियान रोबिंसन की बेटी’ बताती हैं. मिशेल ने वाइट हाउस के झरोखे से अमरीका की प्रथम महिला की जो छवि पेश की है, वह एक दबंग और महत्त्वाकांक्षी महिला की नहीं, बल्कि एक प्यारी-सी मां और एक पूर्ण समर्पित पत्नी की है. और उनकी इस छवि ने भी बराक ओबामा के व्यक्तित्व को नया आयाम देने में सकारात्मक भूमिका अदा की है.<br /><br /><span style="color: red;"><b>यहां</b></span> मैं उस प्रवृत्ति के मुखर होने की बात कर रही हूं, जो महिलाओं को मिली थोड़ी-बहुत उपलब्धियों को छीन कर उन्हें घर की चारदिवारी में कैद देखना चाहती है. खबरों में अमरीका की प्रथम महिला की समर्पित पत्नी की भूमिका के बारे में कहा गया कि "मिशेल की इसी छवि को अमरीकी पसंद करते हैं और यही कारण है कि अमरीकी ओबामा से कहीं अधिक मिशेल के मुरीद हैं. शुरुआत में मिशेल को घमंडी और गुस्सैल महिला के तौर पर देखा गया. लेकिन 2008 में डेनवर में हुए डेमोक्रेटिक पार्टी के सम्मेलन में जब मिशेल ने कहा कि वे यहां एक पत्नी, एक बेटी और एक मां के तौर पर खड़ी हैं तो यहीं से उनकी छवि बदलनी शुरू हो गई.<br /><br /><b><span style="color: red;">बीबीसी</span></b> ने पिछले दिनों चुनाव प्रचार के दौरान ओहायो यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर कैथरीन जैलीसन के हवाले से लिखा था कि जिस दिन पहली बार ओबामा ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी, तभी से मिशेल ऐसी प्रथम महिला के रूप में उभरीं जो अमरीका देखना चाहता था- एक समर्पित पत्नी और एक प्यारी मां. देश की अर्थव्यवस्था की खराब हालत के मद्देनजर जब गैलअप के सर्वेक्षण में ओबामा की रेटिंग गिरने लगी तब भी मिशेल की रेटिंग लगातार बढ़ रही थी. मई 2012 के सर्वेक्षण में ओबामा की रेटिंग बावन फीसद थी तो मिशेल की साठ फीसद. विश्लेषकों का कहना है कि लोगों में मिशेल का आकर्षण बरकरार है और हाल के चुनावी नतीजे साफ दर्शाते हैं कि प्रचार अभियान में मिशेल की "मेहनत" और "गरिमामयी" व्यक्तित्व से ओबामा की चुनावी जंग की राह आसान होती गई.<br /><br /><b><span style="color: red;">जीत</span></b> के बाद ओबामा के सार्वजनिक तौर पर अपनी पत्नी मिशेल को इज्जत देने से मीडिया मोहित है. यह मीडिया उस वक्त हिलेरी क्लिंटन पर भी मोहित हुआ था, जब उन्होंने खुद को एक अच्छी पत्नी साबित करते हुए सेक्स स्कैंडल में लिप्त होने के बावजूद अपने पति बिल क्लिंटन को माफ कर दिया था. जबकि बिल क्लिंटन बाकायदा जांच के बाद दोषी पाए गए थे और उन्होंने माफी भी मांगी थी.<br /><br /><span style="color: red;"><b>हमारे</b></span> भारत में भी इससे कुछ अलग नहीं होता है. चाहे वह रविकांत शर्मा की पत्नी मधु शर्मा हो या भंवरी देवी की जिंदगी बर्बाद करने वाले मदेरणा की पत्नी. इसके अलावा, अलग-अलग मौकों पर हम अनेक वैसी "महान" पत्नियों को सुर्खियां बनते देखते रहे हैं जो अपने पति के अपराधों में लिप्त होने के बावजूद उनके बचाव का एक ताकतवर ढाल बनी रहीं. हां, कभी-कभी किसी झुग्गी बस्ती से कोई खबर जरूर आ जाती है कि किसी महिला ने अपने पति के खिलाफ थाने में रपट लिखवाई, क्योंकि वह किसी अपराध में लिप्त था. <br /><br /><span style="color: red;"><b>भारत</b></span> में ऐसे आरोप लगने के बाद आमतौर पर सबसे पहले पत्नियां ही पति के बचाव में आगे आती हैं. गोपाल कांडा की पत्नी कहती है कि उसका पति तो गीतिका को बेटी की तरह मानता था. बलात्कार के आरोपी उत्तर प्रदेश के एक विधायक की पत्नी ने तो आरोप लगने के तुरंत बाद मीडिया के सामने यहां तक कह डाला कि उसका पति तो नपुंसक है, वह किसी का बलात्कार कैसे कर सकता है. यानी वह भारत हो या अमरीका दोनों जगह पत्नी अगर पति को "महान" बनने में मदद करती है तभी वह महान है, वरना घमंडी और रास्ते से भटकी हुई. विवाहित महिला का पहला फर्ज पति का तन-मन-धन से साथ देना होता है. पति की उन्नति में ही उसकी उन्नति है.<br /><br /><span style="color: red;"><b>अमरीका</b></span> में एक ओर जहां घरेलू पत्नी की शान में कसीदे पढ़े जा रहे हैं, वहीं चुनावों के दौरान आए कुछेक बयानों से वहां की सामाजिक धारणाओं का पता भी चलता है. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रोम्नी के एक साथी ने तो यहां तक कह डाला कि बलात्कार के बाद ईश्वर की मर्जी से ही गर्भ ठहरता है. यानी किसी औरत का किसी की पत्नी बनना या उसके साथ बलात्कार होना आधुनिक अमरीका में ईश्वर की मर्जी है.<br /><br /><b><span style="color: red;">विकास</span></b> के तमाम औजारों से लैस अमरीका की महिलाएं घर की दहलीज के पार बहुत पहले से वहां के सार्वजनिक जीवन में एक समांतर शक्ति के रूप में अपनी क्षमताएं साबित कर चुकी थीं. लेकिन आधुनिकता का सफर तय करते हुए अमरीका में अब उसे फिर घर की शोभा बनाने के लिए अच्छी पत्नी और अच्छी मां के तमगों से महिमामंडित किया जा रहा है. यानी विकास की राह में दो कदम साथ-साथ चलने के बाद अब अमरीका की स्त्री अपने व्यक्ति बनने की प्रक्रिया में एक पायदान वापस नीचे उतर कर फिर दोयम के दरजे की ओर अग्रसर है. टूटते परिवार, समलैंगिक रिश्तों की बाढ़ के कारण अमरीकी समाज फिर उसी सामाजिक अवस्था की वकालत करता नजर आ रहा है, जिसमें औरतें घर की चहारदिवारी के भीतर बच्चे पालें और पुरुष बाहर की दुनिया का अधिकारी बने.<br /><br /><span style="color: red;"><b>मिशेल</b></span> के पत्नी-रूप का महिमामंडन उसी आग्रह का नतीजा और तकाजा है कि "श्रीमती जी, मेरी बच्चों की प्यारी मां, दरअसल, आप घर-परिवार संभालते हुए ईश्वर की मर्जी निभा रही हैं. हम राष्ट्रपति बने हैं तो आपकी खातिर. हम दुनिया को संचालित करने वाले हथियार और कारोबार संभालेंगे और आप बच्चों को देखिए, फैशन के नए मानक या आइकॉन बनिए. आप ऐसे कपड़े पहनिए की दुनिया आपकी सादगी पर मर मिटे या फिर आपको महज एक गोश्त समझे. आप पहनने-ओढ़ने, पति-बच्चे संभालने में व्यस्त रहिए." यही भगवान की मर्जी है और आधुनिक अमरीका की भी.<br /><br /><span style="color: red;"><b>सवाल</b></span> है कि एक "घर" बनने के लिए जिन तत्त्वों की जरूरत होती है, उनमें कौन-सा ऐसा है जो केवल स्त्री के ही जिम्मे होना चाहिए या फिर उसे केवल स्त्री ही निबाह सकती है? एक नवजात बच्चे को दूध पिलाने के अलावा दुनिया का कौन-सा ऐसा काम है जो "घर" बनाने-बचाने के लिए एक पुरुष नहीं कर सकता? चौखटे के बाहर का कौन-सा ऐसा काम है जिसे समान सक्षमता के साथ पूरा कर सकने में स्त्री असमर्थ है? यह बचकानी और पुरानी बातें हैं. लेकिन आगे की ओर दौड़ते समाज को वापसी की पटरी पर दौड़ाने के खिलाफ आईना हैं. "घर" अगर परिवार-समाज, देश-दुनिया की बुनियाद है तो उसे अपने और मजबूत होने के लिए केवल स्त्री की ही बलि क्यों चाहिए?<br /><br /><span style="color: red;"><b>मेरा</b></span> खयाल है कि कोई भी व्यवस्था बन चुकी सत्ता अपनी मूल ताकत को बचाए रखने के लिए "लचीलेपन" की सभी हदों को पार सकती है. इसमें तात्कालिक तौर पर अपने प्रतिद्वंद्वी की अधीनता तक स्वीकार कर लेना दरअसल एक औजार है. सामने वाले की हीन या दोयम हैसियत का महिमामंडन उसके भीतर की बगावत को कुंद करने के ही प्राथमिक शिगूफे हैं. यह "व्यक्तिकरण" की अधकचरी प्रक्रियाओं का ही नतीजा है कि समाज में वंचना के शिकार वर्ग सामाजिक-राजनीतिक सत्ताओं के इस झांसे में आ जाते हैं और "भावनात्मक ब्लैकमेलिंग" के बदले खुशी-खुशी अपने अधिकार छोड़ने को तैयार हो जाते हैं.<br /><br /><span style="color: red;"><b>दुनिया</b></span> के स्तर पर पितृसत्ता और भारतीय संदर्भों में पितृसत्ता सहित सामाजिक सत्ताओं ने इस "भावनात्मक ब्लैकमेलिंग" के हथियार का बखूबी इस्तेमाल किया है. बाल-बच्चों और पति के सुख से हरा-भरा "घर" दुनिया की बुनियाद है; "घर" बनाने-बचाने का मतलब दुनिया को स्वर्ग बनाना है और यह काम केवल स्त्री ही कर सकती है! क्या दुनिया के पुरुष घर को बनाने-बचाने के मोर्चे पर खुद को नाकाबिल मानते हैं? या फिर वे जनतंत्र के पर्याय हो गए हैं?<br /><br /><span style="color: red;"><b>ऐसा</b></span> कुछ भी नहीं हुआ है. सत्ताधारी व्यवस्थाएं भली प्रकार जानती हैं कि चारदिवारी के भीतर केवल कैदी रहते हैं. इसलिए कैद का महिमामंडन ही कैदी को अपनी गुलाम अवस्था में भी गर्वबोध कराएगा. "परिवक्व" सत्ताएं जानती हैं कि शासन करने के लिए अपने सामने खड़ी होने वाली समस्याओं को एक साथ कई बिंदुओं पर साधना होता है. एक खास तरह के मनोविज्ञान की रचना अपने-आप सत्ताओं की मंशा के हिसाब से संचालित होती रहती हैं. इसके अलावा, स्त्री की परंपरागत छवि का महिमांडन "उदारता" की वह राजनीति है जिसका मकसद स्त्री के विरुद्ध वंचना की व्यवस्था को कायम रखना है.<br /><br /><span style="color: red;"><b>तो</b></span> क्या मिशेल ओबामा अपने पति की तारीफ के तंतुओं के असली स्रोत को देख पा रही हैं? वहां तक निगाह जाना बहुत मुश्किल तो नहीं है!<br /><br /></div>
वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-77973171540907994442012-11-11T23:48:00.001-08:002012-11-11T23:48:44.045-08:00देह से दबा स्त्री का "व्यक्ति"<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6bmqrNCA15eFdpyA1EJNBZ7hhj31thszXmOiqcnR4fqztMjRa136zk4kFiCpGvBFveyoFTxCUfvIkb1JDPdGRTdyawMprYambcV6YFnD6UPW2iqkG_T2K91D9u6E54BkkMEc2CLhjkW0/s1600/women.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6bmqrNCA15eFdpyA1EJNBZ7hhj31thszXmOiqcnR4fqztMjRa136zk4kFiCpGvBFveyoFTxCUfvIkb1JDPdGRTdyawMprYambcV6YFnD6UPW2iqkG_T2K91D9u6E54BkkMEc2CLhjkW0/s320/women.jpg" width="320" /></a></div>
<br /><br /><b><span style="color: red;">अभी</span></b> तक हमारे
जेहन में पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की उस भारत यात्रा की
यादें ताजा हैं, जब भारतीय मीडिया ने उन्हें खूबसूरती, तन पर पहने कपड़ों,
गहनों और उनके पर्स तक ही समेट दिया था। इसके पहले किसी विदेशी महिला नेता
के कपड़ों पर मीडिया ने ऐसी हाय-तौबा नहीं मचाई थी। लेकिन हिना एक औरत हैं
और वह भी सामाजिक सौंदर्यबोध के हिसाब से बेहद खूबसूरत। तो मर्दों के
वर्चस्व वाले भारत-पाकिस्तान की राजनीति में किन्हीं खास समीकरणों से आई
महिला के साथ मीडिया का ऐसा सुलूक करना तो स्वाभाविक था। खैर, हिना के बाद
अपने परिधान के कारण एक और महिला नेता भारतीय मीडिया की सुर्खियों में
आईं और वे हैं आस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड।<br />
<br /><span style="color: red;"><b>जूलिया</b></span> गिलार्ड राजघाट पर गांधी समाधि से लौटते वक्त ऊंची एड़ी वाले
जूतों के कारण फिसल कर गिर गर्इं। लेकिन उसके तत्काल बाद जूलिया ने जो बात
कही, वह हमें सोचने पर मजबूर करता है। अखबार ‘हेराल्ड सन’ ने जूलिया के
हवाले से लिखा- ‘मेरी चप्पल की ‘हील’ घास में उलझ गई थी।’ उन्होंने यह भी
कहा कि पुरुष जहां सपाट तल्ले वाले जूते पहनते हैं, वहीं महिलाओं के लिए
संकोच में हील पहनना पेशेवर दुविधा होती है। अगर आप ऊंची एड़ी वाले जूते
पहनें तो नरम घास में ये चिपक सकते हैं और जब आप अपना पैर ऊपर उठाते हैं तो
जूता नहीं उठता। और फिर ऐसा ही होता है जैसा आपने देखा।’ गिलार्ड ने बूट
पहनने के सुझावों को दरकिनार करते हुए कहा कि स्कर्ट के साथ बूट पहनने से
आस्ट्रेलिया में फैशन संबंधी आलोचनाएं होने लगेंगी। इससे पहले जनवरी में
भी कैनबरा में आस्ट्रेलिया दिवस पर हुए दंगे से दूर ले जाए जाते वक्त
गिलार्ड का एक जूता खो गया था। पिछले चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने
अपना जूता खो दिया था। एक विकसित और आधुनिक देश की प्रधानमंत्री जूलिया
गिलार्ड को इससे पहले भी अपने शारीरिक गठन को लेकर असहज कर देने वाली
टिप्पणियों का सामना करना पड़ा है। एक समारोह में एक वरिष्ठ नेता ने
सार्वजनिक रूप से उन्हें कहा- ‘माफ कीजिएगा आपका पिछवाड़ा काफी बड़ा है।’<br />
<br /><span style="color: red;"><b>आखिर</b></span> एक सशक्त महिला नेता के लिए किसी पुरुष को सार्वजनिक तौर पर ऐसी
कुंठा जाहिर करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह वही मानसिकता नहीं है जो
किसी भी महिला को उसके शरीर में समेटने और सीमित रखने को मजबूर करती है? और
वे कौन-सी वजहें हैं जिसके कारण एक देश की सशक्त प्रधानमंत्री ‘‘फैशन
पुलिस’’ से डर रही है। जिस नेता के इशारे पर उसकादेश और वहां का सैन्य बल
चलता है, वह समाज के ठेकेदार ‘फैशन पुलिस’ के सामने इस कदर लाचार क्यों है?<br />
<br /><span style="color: red;"><b>पश्चिमी</b></span> देशों में ‘फैशन पुलिस’ का यह खौफ विकासशील देशों में ज्यादा
मुखर दिखता है। ग्यारह महीने पहले मां बनी ऐश्वर्य राय के पीछे ‘फैशन
पुलिस’ का नया-नया जन्मा तबका पीछे पड़ गया था। नई मां को अपने और अपने शिशु
के स्वास्थ्य का कितना खयाल रखना होता है, यह सभी को मालूम है। लेकिन
भारतीय मीडिया एक जच्चा को सिर्फ एक फैशनपरस्त देह मानता है और उस देह पर
चर्बी आ जाने के लिए उसकी अशालीन आलोचना करने में लग गया था। हाल ही में
शिल्पा शेट्टी से जब एक पत्रकार ने मां बनने के बाद उनके बढ़ते वजन पर ही
लगातार सवाल किए तो उन्होंने झल्ला कर कहा कि अब वे कभी भी पहले जैसा शरीर
हासिल नहीं कर पाएंगी।<br />
<br /><span style="color: red;"><b>ऐश्वर्य</b></span> और शिल्पा ने ‘फैशन पुलिस’ के इस रवैए को लेकर दुख भी जताया।
लेकिन सच यह है कि ऐश्वर्य और शिल्पा सरीखी कलाकारों ने अपने कॅरियर का
आधार ही देह बनाया। खुद को ‘फैशन आइकॉन’ कह कर अपनी कीमत बढ़ाई। इसलिए इनके
कॅरियर का आधार, यानी शरीर का ढांचा ‘बिगड़ते’ ही इन्हें इनके बाजार से बाहर
करने की तैयारी शुरू गई। यों भी, इस बुनियाद पर टिका आधार इसी तरह दरकता
है। इस पेज थ्री की बेरहमी की शिकार कभी पेज थ्री की अगुआ रहीं शोभा डे भी
हो चुकी हैं। शोभा डे ने फिल्म ‘आई हेट लव स्टोरी’ में अभिनेत्री सोनम कपूर
के अभिनय की आलोचना की। फिल्म के निर्देशक और सोनम के दोस्त पुनीत
मल्होत्रा को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने ट्विटर पर शोभा डे को
‘मेनोपॉज’ से गुजर रही सूखी पत्ती कहा। शोभा डे के लिए अपने दोस्त की
अपमानजनक टिप्पणी की हौसलाअफजाई करते हुए सोनम ने उसे रीट्वीट किया। क्या
सोनम को इस बात का अहसास नहीं था कि कुछ सालों बाद वे भी इस दौर से
गुजरेंगी? लेकिन इस ‘फैशन पुलिस’ ने देह की सुविधा के साथ भावनाओं को
कुचलना भी तो सिखाया है!<br />
<br /><span style="color: red;"><b>ग्लैमर</b></span> की दुनिया से बाहर की बात करें तो चाहे यूरोप हो या एशिया, हर
संस्कृति में परंपरागत से लेकर अति आधुनिक होने तक महिलाओं के लिए ऐसे
वस्त्र क्यों तैयार किए जाते हैं जो महिलाओं को महज ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के
रूप में परोसते हैं, वह भारत की साड़ी हो या पश्चिम की स्कर्ट। आखिर ऐसा
क्यों है कि पुरुषों के कपड़े ऐसे बनाए गए हैं जिसमें सामान्य तौर पर उनके
चेहरे और हाथ के अलावा कुछ नहीं दिखता और महिलाओं के कपड़े ऐसे क्यों बनाए
जाते हैं जो सीधे उनकी शारीरिक, और खासतौर पर कमर और सीने की बनावट पर ही
ध्यान खींचे। आम तौर पर एक्जक्यूटिव क्लास की नौकरियों में भी पुरुष की
वर्दी
तो सूट-बूट-टाई की होती है, लेकिन महिलाओं को "ड्रेस कोड" के नाम पर स्कर्ट
और ऊंची एड़ी जूते
आदि के असुविधाजनक, लेकिन "फैशनेबल" पोशाकों से लैस होना पड़ता है। कुदरती
तौर पर दो बराबर के व्यक्ति में इस तरह के वस्त्र-विभाजन के पीछे
कौन-सी वजह होगी, जिसमें एक का "व्यक्ति" महत्त्वपूर्ण है और दूसरे का
शरीर? इसी तरह महंगे आधुनिक
स्कूलों में लड़कियों की घुटनों से ऊपर तक चढ़े स्कर्ट जैसी वर्दी तैयार की
जाती है जिससे वे स्कूल के मैदान में सामान्य उछल-कूद भी नहीं मचा सकें। और
वे ऐसा करने की कोशिश करें, तो वह दूसरों को ‘तुष्ट’ करने का जरिया बने।
हालांकि अब महानगरों के बहुत से स्कूल अपनी वर्दी को जेंडर न्यूट्रल बनाने
की कोशिश में हैं, मगर ऐसे स्कूल बहुत कम हैं। देह आधारित सामाजिक दृष्टि
की दुनिया में दुकान चलाने के लिए ‘आकर्षण के टोटकों’ का शोषण तो लाजिमी
बनता है! <br /><br /><b><span style="color: red;">आधुनिक</span></b> समाज में फैशन शो और पेज थ्री पार्टी की धूम मची रहती है।
इन्हीं के साथ फैशन की दुनिया से एक जुमला उछल कर आया है ‘मालफंक्शन’ का।
यानी मॉडल, हीरोईन या सोशलाइट के कपड़ों का ऐसे कट-फट जाना या गिर जाना,
जिसके कारण उनके वे अंग कैमरे में कैद हो जाएं जिन्हें ढकने के लिए आम
महिलाएं कपड़े पहनती हैं। लेकिन मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि ‘मालफंक्शन’ के
इस आधुनिक चलन की एक खासियत यह क्यों है कि यह सिर्फ महिलाओं के शरीर के
साथ ही होता है? यानी महिलाओं के ही कपड़े इतने ‘नाजुक’ और असुविधाजनक बनाए
जाते हैं कि अगर शरीर स्वभावगत सुविधा की मुद्रा में आना चाहता है तो ये
कपड़े धोखा दे देते हैं और उस महिला को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। यह
‘मालफंक्शन’ पुरुषों के साथ होता है या नहीं, यह पता नहीं, क्योंकि हम इस
तरह मीडिया में उन्हें शर्मिंदा होते हुए शायद ही देखते हैं। हों भी क्यों?
शर्म आखिर स्त्रियों का ‘गहना’ है, इसलिए शर्मिंदा होने की ठेकेदारी
स्त्रियों को उठानी होगी!<br />
<br /><b><span style="color: red;">अगर</span></b> किसी दफ्तर में कोई पुरुष हाफ पैंट, बरमूडा या कैपरी पहन कर आ जाए
तो यह अनुशासन के खिलाफ होता है। सब उसे ऐसी नजरों से घूरते हैं, जैसे उसने
कोई अपराध कर दिया हो। उसका यह तर्क बिल्कुल नहीं सुना जाएगा कि उसे बहुत
गर्मी लग रही थी या शरीर की किसी परेशानी से आराम पाने के लिए उसने ऐसा
किया या फिर यह चलन में है। वहीं अगर कोई महिला छोटे स्कर्ट पहन कर आधी
टांगों का प्रदर्शन करते हुए आॅफिस पहुंचती है तो उसे आधुनिक और वेल
ड्रेस्ड समझा जाता है। अपने घर में बीवी या बेटी को सात परदे में रखने वाले
सहकर्मी उस महिला की तारीफ करते नहीं थकते। पुरुष का टांगें दिखाना अभद्र
और बुरा है और किसी महिला का टांगें दिखाना या शरीर प्रदर्शन में अपना
‘व्यक्तित्व’ देखना आधुनिकता का प्रतीक! अजीब विकृत मानसिकता है। इस
दोहरेपन की साजिश को समझना क्या इतना मुश्किल है?<br />
<br /><span style="color: red;"><b>स्त्री </b></span>और पुरुष अगर बराबर है तो उनके लिए तैयार परिधानों में शारीरिक
संरचना को ढकने-दिखाने के पैमाने कहां से आए? ‘अपनी पसंद’ के कपड़े पहनने की
आजादी का सिरा किस गुलामी से जुड़ता है, क्या हमारा ध्यान इस पर कभी जा
पाता है? वस्त्रों के बंटवारे के इस ढांचे के आधार में ही गड़बड़ी है। एक तरफ
परदे में ढक-तोप कर तो दूसरी ओर आधुनिकता के नाम पर निर्वस्त्र कर,
व्यवस्था ने स्त्री को सिर्फ देह ही बनाया है। इस मामले में पहल तो महिलाओं
को ही करनी पड़ेगी। ‘फैशन पुलिस’ के आतंक के खिलाफ महिलाओं को ही आवाज
उठानी होगी। क्या हम यह अंदाजा लगा सकने में सक्षम नहीं है कि हमारी अपनी
बड़ी होती बेटियां महज एक फैशन के पैमानों में फिट होने वाली देह बन कर न रह जाएं?
अकेले देह पर आधारित व्यक्तित्व देह आधारित मानसिकता भी तैयार करेगा। और
इसका शिकार आखिर स्त्री को ही होना है। इसलिए स्त्री का देह उतना
महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनका ‘व्यक्ति’ होना जरूरी है।</div>
वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-27765611639881065172012-10-22T00:18:00.001-07:002012-10-22T00:18:39.330-07:00भारतीय राजनीति के बरक्स इंदिरा-तत्त्व<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiujfyOL8eJXSvLRVJNMvatgdbeACbimleAOr4sqYPqHTmK3FJt19EDmxhT5WC-vnGextdrDJylD5M5SJUC5Fk9p8ZamdTNcaClyvd-Eo5m0-By3oGJJ54kXslB01uqeqssU4ZzC-U-LDw/s1600/indira.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiujfyOL8eJXSvLRVJNMvatgdbeACbimleAOr4sqYPqHTmK3FJt19EDmxhT5WC-vnGextdrDJylD5M5SJUC5Fk9p8ZamdTNcaClyvd-Eo5m0-By3oGJJ54kXslB01uqeqssU4ZzC-U-LDw/s1600/indira.jpg" /></a></div>
<br />
<span style="color: red;"><b>अगले </b></span>लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। साथ ही शुरू हो चुका है, ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ मार्का सर्वेक्षणनुमा खेल। इन सर्वेक्षणों में मीडिया का वह पुराना राग भी शामिल हो गया है कि क्या लोग प्रियंका गांधी में इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं! कांग्रेस की नैया संभालने में राहुल गांधी के लगभग फेल होने के बाद अब नजरें प्रियंका पर हैं। प्रियंका गांधी की वैधता के लिए इंदिरा गांधी से तुलना।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>इंदिरा</b></span> गांधी, भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं, जिन्हें आप खूब पसंद कर सकते हैं, उनकी जम कर आलोचना कर सकते हैं, आपातकाल थोपने के लिए उन्हें तानाशाह कहने में भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी भी तरह से उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। आखिर एक महिला अब तक के भारत की सबसे ताकतवर नेता के दर्जे पर कैसे टिकी रह सकी? इंदिरा को अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की विरासत मिली।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">यहां</span></b> मैं बेहिचक कहूंगी कि शायद अगर नेहरू को एक बेटा होता तो हिंदुस्तान को शायद अब तक उसकी पहली महिला प्रधानमंत्री नहीं मिली होती। एक परंपरागत इंसान की तरह ही नेहरू ने अपनी विरासत अपनी खून को ही सौंपे जाने की जमीन तैयार की। इसके बावजूद नेहरू उस समय के आधुनिक सोच के लोगों में से एक थे। उन्होंने अपनी इकलौती बेटी का लालन-पालन आम लड़कियों की तरह नहीं किया। वे अपनी बच्ची की शिक्षा-दीक्षा को लेकर काफी सजग थे।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>जेल</b></span> में बैठे हिंदुस्तान के इस सबसे कद्दावर नेता को अपनी बड़ी होती बेटी की फिक्र थी और उसने बेटी को छुई-मुई बनाने या महज एक सहयोगी तत्त्व के रूप में विकसित करने के बजाय उसके भीतर शुद्ध राजनीतिक चेतना भरी और व्यावहारिक-वैज्ञानिक सोच का विकास किया। बेटी को दुनिया और विज्ञान के लिए समझाने के लिए चिट्टी लिखी।<br />
<br />
<span style="background-color: red;"><b><span><span style="background-color: white;"></span></span><span><span style="background-color: white;"></span></span><span><span style="background-color: white;"></span></span>एक </b></span>प्रगतिशील पिता के अपनी बेटी के नाम वे गंभीर खत यह जताने के लिए काफी हैं कि नेहरू ने इंदिरा गांधी की ‘कंडीशनिंग’ कैसे की। वह शख्स जो ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिख रहा है, अपनी बेटी से भी वैसी ही उम्मीद लिए संवाद कर रहा है, ताकि उसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर एक वैज्ञानिक सोच पैदा हो, वह इसे किसी ईश्वर की बनाई संरचना न समझ बैठे। उन खतों की अहमियत इतनी है कि बाद में वे किताब के रूप में संकलित होकर भारतीय बच्चों के बीच पहुंची, स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">इंदिरा</span></b> को लोगों से मिलने-जुलने और इस देश के मिजाज से लेकर राजनीति तक को समझने का खूब मौका मिला। इसी कंडीशनिंग ने इंदिरा को फौलादी इरादों वाली महिला बनाया। इंदिरा ने राजनीति को उसी तरह से लिया जिस तरह से कोई पुरुष नेता लेता। राजनीति तो विरासत में मिली, लेकिन उसके शीर्ष पर बैठना ही इंदिरा ने अपना लक्ष्य रखा। फिरोज गांधी से इंदिरा की शादी भी शायद एक समझौता थी। शायद यही वजह है कि इंदिरा ने शादी या पति को कभी अपनी अस्मिता के आड़े नहीं आने दिया, बस अपने लक्ष्य पर नजर टिकाए रखा। इंदिरा के ऊपर कभी भी पत्नी या मां की छवि हावी नहीं हो पाई। वह शुरू से अंत तक एक राजनेता ही रहीं।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>इंदिरा</b></span> का अपने राजनीतिक कॅरियर को लेकर हमेशा एक पुरुषवादी व्यवहार रहा और शायद यही वजह है कि कोई उन्हें डिगा नहीं सका। यहां तक कि आपातकाल जैसा तानाशाही फैसला थोपने और उसकी वजह से बुरी तरह हारने के महज तीन-चार सालों के बाद वे फिर से वहीं खड़ी दिखीं तो इसलिए कि उन्होंने अपने ऊपर भारतीय परंपरावाद के गैरजरूरी आख्यान हावी नहीं होने दिए या अपने सामने की ‘चुनौतियों’ से उसी तरह निपटा, जैसे भारतीय राजनीति के पुरुष नेतृत्व निपटते रहे हैं।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>यहां </b></span>एक सवाल उन्होंने यह भी छोड़ा कि क्या मौजूदा पुरुषवादी राजनीति के बरक्स कोई मानवीय विकल्प नहीं खड़ा किया जा सकता है? लेकिन इंदिरा गांधी अगर उस रास्ते की तलाश करतीं या उस पर चलने की हिम्मत करतीं तो उनके उस रूप में टिके रह सकना किस हद तक संभव होता! पितृसत्तात्मक व्यवस्था की असली राजनीति रही है, जिसमें सत्ता को हमेशा इसका खयाल रखना पड़ता है और शासितों को उभरने से रोकने की हर कोशिश की जाती है, ताकि स्त्री या वंचित वर्गों की कोई समांतर सत्ता खड़ी ही न हो सके।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>खैर</b></span>, इंदिरा से प्रियंका की तुलना के मौके निकाले जा रहे हैं तो यह कांग्रेस के लिए शायद जरूरत है। लेकिन सच यही है कि इंदिरा गांधी से मिलती-जुलती शक्ल वाली प्रियंका गांधी में इंदिरा वाले कोई तेवर नहीं दिखते। प्रियंका की मां सोनिया को अपने पति के मरने के बाद विरासत में कांग्रेस की बागडोर मिली। उसके पहले तक सोनिया ने एक ‘हाउस वाइफ’ ही बनना पसंद किया था। इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते कि वे सार्वजनिक राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होना चाहती थीं। इसके पीछे उनकी छवि को एक ‘विदेशी’ के रूप में प्रचारित और स्थापित कर देना हो सकता है। लेकिन आखिर आज वे एक सबसे ताकतवर महिला के रूप में देश की राजनीति की दशा-दिशा तय कर ही रही हैं।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>जो</b></span> हो, मजबूरी में राजनीति में आई सोनिया को राहुल और प्रियंका गांधी में से किसी एक को राजीव गांधी की विरासत सौंपनी थी। लेकिन सोनिया की यह ‘ताकत’ इस रूप में सामने आई कि उन्होंने परंपरागत भारतीय मां की तरह ज्यादा काबिल दिख रही बेटी की जगह अपने बेटे को विरासत सौंपी। राहुल गांधी को विरासत सौंपना पारिवारिक मामला दिख रहा था। लेकिन क्या भारतीय जनमानस की पुत्र-अनुकूल भावनाओं का ‘खयाल’ रखना भी था?<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>लेकिन</b></span> दूसरी ओर इंदिरा की छवि के रूप में देखी जाने वाली प्रियंका ने भी परंपरागत भारतीय स्त्रियों की तरह शादी और बच्चों को ही प्राथमिकता दी। प्रियंका गांधी ने कई बार सार्वजनिक तौर पर कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता पति और बच्चे हैं; और कि वे अपनी घर की दुनिया में खुश हैं। यहां अचरज इस बात पर है कि जिस महिला को प्रधानमंत्री जैसा पद या भारतीय राजनीति के शीर्ष पर बैठने के अवसर मिल सकते हैं, वह ‘हाउस वाइफ’ बनने को ही क्यों तरजीह देती रही है। ज्यादा से ज्यादा अच्छी बहन की तरह राहुल गांधी की मदद करने के लिए प्रियंका कभी-कभी बरसाती मेंढ़क की तरह बाहर निकलती हैं और जरूरत खत्म होते ही अपने ‘घर की दुनिया’ में खुश होने लौट जाती हैं।<br />
<br />
एक तरफ इंदिरा थीं, जिन्होंने गुलाम भारत में पढ़ाई-लिखाई की, लेकिन उन्होंने अपने स्व को ज्यादा अहमियत दी। दूसरी तरफ प्रियंका हैं, जो आजाद भारत के सबसे ताकतवर परिवार में पैदा हुईं, पली-बढ़ीं, जिन्हें राजनीति में शीर्ष हैसियत थाली में परोस कर मिल रहा है, वह हाउस वाइफ रहना पसंद कर रही है।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>हालांकि</b></span> उनकी समझ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बीबीसी हिंदी रेडियो सेवा में बात करते हुए एक बार उन्होंने श्रीलंका युद्ध के संदर्भ में यह टिप्पणी की थी कि ‘तुम्हारे आतंकवादी बनने में केवल तुम जिम्मेदार नहीं हो, बल्कि तुम्हारी पद्धति जिम्मेदार है जो तुम्हें आतंकवादी बनाती है।’ इससे पता चलता है कि मुद्दों की वे कितनी गंभीर समझ रखती हैं। लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर वे कितनी लापरवाह हैं कि यह भी कह बैठती हैं कि ‘मैं यह हजारों बार दोहरा चुकी हूं कि मैं राजनीति में जाने को इच्छुक नहीं हूं।’ जाहिर है,अपनी अस्मिता को लेकर इतनी गैर-सजग प्रियंका कभी भी इंदिरा गांधी नहीं बन सकतीं।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>भारतीय</b></span> राजनीति के मर्दवादी माहौल में किसी महिला का शीर्ष पर पहुंचना आसान नहीं है। अगर महिलाएं कहीं शीर्ष हैसियत में पहुंच भी जाती हैं तो वहां अपनी लैंगिक विशेषता के साथ खुद को संतुलित बनाए रखने की राह बेहद मुश्किल है। ऊपर तक आते-आते महिलाओं की अस्मिता को इतनी बुरी तरह झकझोर दिया जाता है कि कभी-कभी तो उनमें व्यवहारगत समस्याएं भी दिखने लगती हैं जो उनके पतन का कारण भी बन जाती हैं।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>ममता</b></span> बनर्जी हो या जयललिता, इन्होंने सत्ता के शीर्ष पर जाने के क्रम में कितना दमखम लगाया, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अब राजनीति और प्रशासनिक ढर्रे से लेकर इनके व्यवहार तक में कैसी दिक्कतें आ चुकी हैं, इसे देख कर व्यवस्थावादी ताकतें खुश होती हैं। उनकी कार्यशैली और उनका बर्ताव उनके कट्टर अनुयायियों के अलावा आम जनमानस में भी खिसियाहट पैदा करता है। कई अवसरों पर ममता बनर्जी जहां एक घरेलू झगड़ालू महिला की तरह व्यवहार करने लगती हैं और हर समय एक असुरक्षाबोध से घिरी हास्यास्पद बयान देती रहती हैं तो जयललिता एक रहस्यमयी ‘अम्मा’ बन जाती हैं और अपने एक खास दायरे से बाहर निकलने की कोशिश भी नहीं करतीं। सुषमा स्वराज जिस खेमे की राजनीति करती हैं, उसमें अगर किन्हीं हालात में उन्हें शीर्ष पर जाने भी दिया गया यो भी वे हमेशा एक मोहरा रहेंगी और सामाजिक सत्तावाद उनका मूल एजेंडा रहेगा।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEho04bhkuj_7DVi8GrGO9K1TJfP7lirWGO3KZ0OkQs8mT2y88ZqI6hzm3LfJ2nQJSD89Vgths_G2pln9ZHsH5dkQ3W283HYV44Ohbk6CR9G0Oa1jFboZa13T-tMlInAJhU5vuEVEga-iXY/s1600/mayawati.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEho04bhkuj_7DVi8GrGO9K1TJfP7lirWGO3KZ0OkQs8mT2y88ZqI6hzm3LfJ2nQJSD89Vgths_G2pln9ZHsH5dkQ3W283HYV44Ohbk6CR9G0Oa1jFboZa13T-tMlInAJhU5vuEVEga-iXY/s1600/mayawati.jpg" /></a></div>
<br />
<span style="color: red;"><b>इंदिरा</b></span> गांधी के बाद सिर्फ मायावती में वह ताकत दिखाई देती है जो सत्ता के शीर्ष पर जाकर अपनी ताकत और उसी रूप में गरिमा बनाए रखती हैं। तमाम आलोचनाओं, पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों की तीखी अभिव्यक्तियों के बावजूद मायावती बाधाओं के सामने हबड़-तबड़ नहीं मचातीं, पूरी परिपक्वता से अपना धीरज बनाए रखती हैं और अपने विरोधियों का सामना करती हैं। मीडिया से लेकर अपने विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने में मायावती सक्षम हैं। आप सवाल उठा सकते हैं, लेकिन वे भारतीय राजनीति के चरित्र को समझ कर उसके हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाती हैं। उन्होंने राज-व्यवस्था का कोई नया विकल्प नहीं खड़ा किया है, लेकिन अपनी क्षमता साबित की है।<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>इसमें</b></span> कोई शक नहीं कि दलित सशक्तीकरण और सामाजिक न्याय की राजनीति के अध्याय में फिलहाल एक प्रतीक से आगे व्यवहार के स्तर पर कुछ ठोस कर पाना उनके लिए अभी बाकी है। लेकिन इतना तय है कि भारतीय राजनीति के मर्दवादी चाल-चेहरे और चरित्र में अगर कोई दूसरी इंदिरा गांधी या उससे आगे होगी तो वह मायावती ही होंगी। लेकिन देश के शीर्ष पद के लिए मायावती के नाम पर भारत की सत्तावादी आबो-हवा में दोहरी ‘पीड़ा’ घुल जाती है तो इसकी वजहें भी समझी जा सकती हैं!</div>
वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-24219830020953753322012-08-28T07:23:00.003-07:002012-08-28T07:51:00.202-07:00स्त्री अस्मिता के खिलाफ बाजार की बर्बर "फेयर एंड लवली" हिंसा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: yellow; color: black;">
<br /></div>
<div style="background-color: yellow; color: black;">
<span style="font-size: large;"><b>18 अगेन की यह हिंसा </b></span></div>
<br />
<b> </b>
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmwmXppBVj4s36xNNMfX7fNMQh5u2ne13GPIG9W4Uwx5U6nlHY65OQouvgAa1-wKiwvT30pcjPPL8f5784MXfEc92ez79U3SmjT9dWOaoAqdqQVJTRVBhQzWLRKPifiIiK1lWYuVEx6Rk/s1600/18.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="224" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmwmXppBVj4s36xNNMfX7fNMQh5u2ne13GPIG9W4Uwx5U6nlHY65OQouvgAa1-wKiwvT30pcjPPL8f5784MXfEc92ez79U3SmjT9dWOaoAqdqQVJTRVBhQzWLRKPifiIiK1lWYuVEx6Rk/s320/18.jpg" width="320" /></a></div>
<br />
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"एटीन अगेन...!" बाजार में पेश यह नया उत्पाद है उन महिलाओं के लिए जो पच्चीस-तीस-पैंतीस या शायद उसके ज्यादा उम्र की हो चुकी हैं। इस उत्पाद के प्रचार के लिए दो रूपकों का इस्तेमाल हो रहा है। पूरे पन्ने के अखबारी विज्ञापन में एक पूरा खिला गुलाब और (इसके इस्तेमाल के बाद) नीचे गुलाब की "सख्त" कली। यह क्रीम "पूरे खिले गुलाब" को "कली" बनाती है। सीधे और साफ शब्दों में कहें तो यह क्रीम आई है महिलाओं के जननांग के ढीलेपन को खत्म करने के लिए। टीवी पर इसके विज्ञापन में एक महिला गाना गाती है- "आई एम एटीन अगेन, फीलिंग वर्जिन अगेन।"<br />
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यानी अपनी "वर्जिनिटी गंवा चुकी" महिलाओं के लिए "वर्जिनिटी" की वापसी का इंतजाम। महिलाओं की अस्मिता के खिलाफ बाजार का यह नया और बेहद बर्बर मजाक है। अव्वल तो किसी भी समाज में "वर्जिनिटी" की अवधारणा ही स्त्री-विरोधी है। अरब से लेकर यूरोप तक इसी "कौमार्य" को बचाए रखने के लिए सदियों से महिलाओं को सींखचों में कसा गया है, उन्हें सिर्फ एक देह बनने के लिए मजबूर किया गया है। यह सामंती कुंठा आज के कथित आधुनिक युग में इस तरह सामने आई है जो सारे नारी आंदोलनों, स्त्री को देह नहीं मानने वाले संवेदनशील और चेतन समुदाय को मुंह चिढ़ा रही है।<br />
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अभी महिलाओं के जननांगों को गोरा बनाने वाली क्रीम ने बाजार में पांव रखे ही थे कि अब उसके "ढीलेपन" को खत्म करने का भी डंका बज गया। टीवी पर मॉडल गाने गा रही हैं, अखबारों में पूरे पेज का विज्ञापन है जो खिले गुलाब को कली बनाने की वकालत करता और "भरोसा" दिलाता है। इसका मूल स्वर यह है कि "चलो...! अपने पार्टनर के साथ अच्छा-खासा वक्त गुजार चुकी महिलाओं, अब तुम हीन भावना से ग्रस्त हो जाओ, क्योंकि "वर्जिन" होना सिर्फ महिलाओं की जिम्मेदारी है, एक पैंतालीस साल का पुरुष अपनी पत्नी से मांग कर सकता है कि वह फिर से कली बन जाए। उम्र का जो असर उस पर आया है, अब वह स्वीकार्य नहीं है।<br />
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"अब" इसलिए कि जब "कली" का विकल्प उपलब्ध होने के सपने दिखाए जा रहे हैं तो "गुलाब" सरीखी महिलाएं क्यों स्वीकार की जाएं! "गुलाब" से "कली" की ओर वापसी नहीं करने वाली महिलाओं को यह विज्ञापन, उसके उत्पादक यह संदेश (धमकी) देते हैं कि अब अगर "कली" नहीं बनीं तो अपने पार्टनर से खारिज होने को तैयार रहो। जो क्रीम "फूल" से "कली" बनाने के फर्जी दावे करे, कुदरत का उलटा चक्र चलाए, वह महिला के शरीर के साथ-साथ उसके समूचे मानसिक ढांचे पर कितना खतरनाक असर डालेगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन मर्दों की कुंठा के आगे महिलाओं की अस्मिता की क्या, उनकी सेहत तक की परवाह न अब तक की गई है और न की जाएगी। व्यवस्था हमेशा सत्ताधारी वर्गों की, सत्ताधारी वर्गों द्वारा और सत्ताधारी वर्गों के लिए होती है। शासित उसके लिए महज उपभोग की वस्तु हैं।<br />
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जननांगों को गोरा बनाने की क्रीम के खिलाफ कुछ महिला संगठनों ने विरोध भी जताया था। कई अखबारों और वेबसाइटों पर छपे लेखों में गुस्सा भी जाहिर किया गया। लेकिन अब तो लगता है कि इस तरह के उत्पादों की कंपनियां चाहती ही यही हैं कि उनके उत्पादों पर हो-हल्ला हो, खबरिया चैनलों पर बहस हो, ताकि औपचारिक विज्ञापनों के इतर भी उत्पाद का प्रचार हो। इधर देखा गया है कि ऐसे उत्पादों की उत्पादक कंपनियों से जुड़ी विज्ञापन एजेसियां पत्रकारों को प्रेरित करती हैं, उन्हें इसके लिए अच्छा-खासा लाभ मुहैया कराती हैं कि अच्छी या बुरी, इसकी खबर बनाओ और इस पर चर्चा चलाओ। पक्ष या विपक्ष, किसी भी तरह इसे चर्चा के केंद्र में लाओ। पत्रकार खुद महिला संगठनों को फोन करते हैं और कहते हैं कि इस तरह का उत्पाद बाजार में आया है, इस पर आपका क्या कहना है। महिला संगठनों की प्रतिक्रिया होती है कि "जी... ये तो महिला विरोधी है", और यह खबर छपती है। लेकिन अब सिर्फ महिला विरोधी कह कर भर्त्सना करने और विरोध-प्रदर्शन करने का भी वक्त खत्म हो गया। अब इन पर खूब "चर्चा" होती है, इसके नकारात्मक पहलुओं की बात की जाती है, लेकिन ऐसे उत्पादों और उनके विज्ञापनों के खिलाफ कोई कानून नहीं बनता है। इसे उपभोक्ताओं की इच्छा पर छोड़ दिया जाता है कि वे अपनाएं या खारिज करें।<br />
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बाजार के खिलाड़ी भारतीय समाज में पसरी कुंठाओं को बेचना बखूबी जानते हैं। इसमें सरकार भी अपना "अमूल्य" सहयोग देने में कोई कमी नहीं करती और मान कर चल रही है कि उसके नागरिक पूरी तरह परिपक्व और चेतना से लैस हो गए हैं जो ठगने और भ्रमजाल में फंसाने की कोशिश करने वालों को करारा जवाब देंगे। दरअसल, यह सरकारी चाल समाज की उस व्यवस्था को बनाए रखने की साजिश है, जिसमें उलझ कर कोई व्यक्ति या स्त्री अपने दिमाग को बाजार के हवाले कर दे और उस व्यवस्था में अपने शोषण-दमन और व्यक्तित्व के हनन को अपनी नियति मान कर मरती-जीती रहे।<br />
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स्वीकार्य होने के लिए न केवल महिलाओं का रंग गोरा होना चाहिए, बल्कि उसके निजी अंगों के रंग भी गोरे और अब उससे भी आगे "वर्जिन" होने चाहिए। विज्ञापनों में अब तक महिलाओं के लिए जो सबसे ज्यादा ग्लैमरस कॅरियर के विकल्प दिखाए गए हैं, वह है एयर होस्टेस का। गोरा बनाने की एक क्रीम तो लड़कियों को सिर्फ एयर होस्टेस बनाने के सपने दिखाती है। एक विज्ञापन में लड़की कहती है कि उसका सपना है आसमान में उड़ने का, इसलिए वह एयर होस्टेस बनना चाहती है। वह क्रीम लगाती है और एयर होस्टेस बन जाती है। वह कहती है कि एयर होस्टेस बनने के बाद अब पूरा शहर उसे जानता है।<br />
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मुझे नहीं लगता कि हममें से कोई अपने शहर की किसी लड़की को महज इसलिए जानता है कि वह एयर होस्टेस है। फिर विज्ञापनों में एयर होस्टेस के कॅरियर का इतना महिमामंडन क्यों? काम तो किसी भी जेंडर के लिए कोई भी बुरा नहीं, लेकिन क्या यह एक ऐसा कॅरियर है जिसके लिए लड़कियां सपने देखें और उसे बचपन से इसके लिए तैयार किया जाए? ऐसा कोई विज्ञापन नहीं देखा है जिसमें कोई लड़का केबिन क्रू का सदस्य बनने के लिए बचपन से सपने देख रहा है। फिर यह विमान यात्रियों की सेवा का सपना "खूबसूरत" लड़कियों की आंखों में ही क्यों तैरता है? वैसे भी एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस जैसी सरकारी विमानन कंपनियों के इतर ज्यादातर निजी विमानन कंपनियों में एयर होस्टेस की नौकरियां सुरक्षित नहीं होने के साथ जोखिम भरी भी हो चुकी हैं। जोखिम हवाई जहाजों में ड्यूटी की नहीं, आसपास मौजूद पुरुष कुंठाओं से। निजी विमानन कंपनियों में विमान परिचारिकाओं के शोषण की भी खबरें लगातार आती रही हैं।<br />
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हाल ही में गीतिका शर्मा की खुदकुशी की परतें खुल कर आ रही हैं। गीतिका भी महज अठारह साल की उम्र में विमान परिचारिका बनी थी और मुझे लगता है कि उसके शहर के साथ पूरे देश ने उसे तब जाना, जब वह अपने उस कंपनी के मालिक के शोषण से तंग आकर खुदकुशी कर चुकी थी। पूर्व एयर होस्टेस गीतिका की खुदकुशी की खबर के साथ मेरे दिमाग में फेयर एंड लवली का विज्ञापन गूंज रहा था- "मेरा पूरा शहर मुझे जानता है...।"<br />
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गोरी, छरहरी के बाद महिलाओं के लिए अब बाजार की नई चुनौती है "वर्जिन" जैसा अहसास। लेकिन "वर्जिन" होने के इसी सुख के लिए कोई कांडा जैसा शख्स अपनी पत्नी से ऊब कर किसी गीतिका को अपने जाल में इसलिए फंसाता है कि वह आकर्षक और "अठारह" की है। "फेयर एंड लवली" जैसे उत्पाद ने हमें गीतिका शर्मा का त्रासद अंत दिया है, "एटीन अगेन" जैसे उत्पाद का असर देखना अभी बाकी है।<br />
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गोरा बनाने की क्रीम से लेकर "वर्जिन" यानी "अक्षत यौवना" बनाने की इस क्रीम तक के जरिए बाजार ने महिलाओं को एक देह के रूप में ही स्थापित करने की कोशिश की है, जो पहले ही धर्म की मारी केवल देह के रूप में देखी जाती रही है।</div>
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वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-69658641583346703972012-04-19T04:37:00.002-07:002012-04-19T07:04:40.788-07:00चौतरफा चक्रव्यूह की चुनौतियों के बीच...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b style="background-color: red; color: black;">कांस्टीट्यूशन क्लब में 13 अप्रैल, 2012 को "मीडिया में लैंगिक भेदभावः मिथक या हकीकत" विषय पर आयोजित सेमिनार में पढ़ा गया पर्चा</b></span></div><br />
<b>एक</b> सभ्य और विकासमान समाज अपने आगे बढ़ने के रास्ते खुद तैयार करता है, उसकी बाधाओं से निपटता है और एक तरह से किसी जड़ और सत्तावादी व्यवस्था का जनतांत्रिक विकल्प भी तैयार करता है। आज की इस बहस को मैं इसी की एक कड़ी मानती हूं। विषय का चुनाव शायद बहुत सोच-समझ कर किया गया-- "मीडिया में लैंगिक भेदभाव- मिथक या हकीकत।" मेरे मन में यह सवाल है कि किसके लिए मिथक और किसके लिए हकीकत। अगर कोई सत्ता उत्पीड़क है और अपने उत्पीड़क-चरित्र पर उंगली उठाने वालों की आवाज दबा नहीं पाती तो वह आरोपों को "मिथक" साबित करने में लग जाती है। लेकिन जो उत्पीड़न का शिकार तबका है, वह उत्पीड़न के हालात और उसकी वजहों को एक हकीकत के रूप में देखने का आग्रह करेगा। इस लिहाज से देखें तो आज की बहस के विषय का अपना महत्त्व है।<br />
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सवाल है कि वे कौन-सी स्थितियां या वजहें हैं, जिनके चलते इस विषय पर बात करने की जरूरत महसूस हुई। जाहिर है, हालात आदर्श तो नहीं ही हैं, बल्कि शायद अब घड़ा भरने लगा है और लाजिमी तौर पर सवाल उठने लगे हैं।<br />
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यों तो समूची व्यवस्था ही खुद को बनाए रखने के लिए अलग-अलग रूप में एक ही फार्मूले पर काम करती है, लेकिन समाज के अगुआ माने जाने वाले बौद्धिक तबकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह कम से कम अपने ढांचे के भीतर प्रगतिशील, मानवीय और बराबरी पर आधारित मूल्यों को बढ़ावा देगा। मीडिया की ओर इसीलिए उम्मीद भरी निगाहों से देखा जाता है। मगर हम देख सकते हैं कि हमारे देश का मीडिया इस कसौटी पर कहां खड़ा है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचार, विचार से लेकर फीचर, लेख या धारावाहिकों तक में कल्पनाशक्ति, विषय-वस्तु या प्रस्तुति तक के स्तर पर सामाजिक यथास्थिति में तोड़फोड़ मचाने वाली कवायदें शायद ही कहीं दिखती हैं। यानी ये इतने कम पैमाने पर हैं कि इसका असर लगभग नहीं के बराबर है। इस बात की पड़ताल किए जाने की जरूरत है कि आधुनिक और सभ्य होने के तमाम दावों के बीच यह स्थिति क्यों बनी हुई है?<br />
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माना जाता है कि भागीदारी से बड़े बदलाव संभव है। यह सही भी है। लेकिन मेरा मानना है कि हमारी व्यवस्था के हर खांचे में सबसे ऊपर बैठे लोगों का अब तक का जो इतिहास रहा है, उसमें जब तक फैसला लेने के अधिकारों का समान बंटवारा नहीं होता है, भागीदारी कोई बहुत बेहतर नतीजे नहीं दे सकती। कम से कम मीडिया में महिलाओं की स्थिति ने इसे साबित किया है। पिछले डेढ़-दो दशकों में प्रिंट और इससे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अच्छी-खासी तादाद में महिलाओं को जगह मिली है, लेकिन ज्यादातर अखबारों की खबरों या फीचर या टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में स्त्री की जो छवि परोसी जाती है, उससे अपने नए रूप में सामाजिक यथास्थिति बहाल रहने की ही जमीन बनती है।<br />
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कोई भी संवेदनशील व्यक्ति यह समझता है कि पितृसत्तात्मक ढांचा और उसी बुनियाद पर पलता पुरुष मनोविज्ञान स्त्री की सभी मुश्किलों की जड़ है। भूमंडलीकरण का एक नतीजा इन जड़ों के खिलाफ हमला या इनसे मुक्ति हो सकता था। लेकिन पितृसत्ता की जड़ों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसने उस भूमंडलीकरण और बाजार को भी अपना हथियार बना लिया और स्त्री को ज्यादा निर्मम तरीके से बाजार में खड़ा कर दिया है। और हमारे भारतीय मीडिया ने चूंकि कमोबेश यह मान लिया है कि वह भी महज बाजार है, तो जाहिर है वह भी एक व्यवस्था के तौर पर काम करेगा, जिसमें स्त्रियां सिर्फ मोहरा होंगी। बाजार के कई दूसरे क्षेत्रों की तरह मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने महिलाओं को भागीदारी तो दी, लेकिन वह क्या और कैसे काम करेगी, यह तय करने का अधिकार आमतौर पर उसके हाथ में आज भी नहीं है। यह बेवजह नहीं है कि महिलाओं से संबंधित किसी सकारात्मक खबर से लेकर उत्पीड़न या अत्याचर तक की खबरों या विश्लेषण में पुरुष कुंठा या दया-भाव दिखता है। मकसद सिर्फ यह होता है कि स्त्री की अस्मिता को उसकी देह या एक वस्तु के रूप में समेट दिया जाए। यह तब और ज्यादा त्रासद हो जाता है जब ऐसा करने वाले को खुद ही पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है। तमाम सवालों और महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद इस प्रवृत्ति पर कोई खास असर नहीं पड़ा है।<br />
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मेरे खयाल से लगभग सभी मीडिया संस्थानों में काम की जो स्थितियां या माहौल है, उसमें इससे अलग किसी तस्वीर की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। अगर किसी महिला पत्रकार से बेहतर काम कराने के बजाय संस्थान के पुरुष सहकर्मियों या अधिकारियों की नजर सिर्फ इस बात पर रहती है कि कैसे उन पर दबाव डाल कर या प्रलोभन देकर मजबूर किया जाए, तो ऐसी स्थिति में महिला के सामने क्या विकल्प बचता है। या तो वह चुपचाप हालात से समझौता कर ले, नौकरी छोड़ दे या फिर आवाज उठाए। लेकिन विरोध करने या आवाज उठाने वाली महिलाओं को जिन मुश्किलों या त्रासदियों का सामना करना पड़ता है, "वाह-वाह मीडिया" के शोर में उसकी खबर तक कहीं नहीं आ पाती।<br />
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कुछ साल पहले नोएडा में प्रिया नाम की एक लड़की ने जिस तरह खुदकुशी की थी, वह तमाम टीवी चैनलों और अखबारों के लिए एक बहुत "बिकने" लायक मानी जाती, अगर वह खुद मीडिया में काम नहीं कर रही होती। वे कौन-सी वजहें रही होंगी कि खुदकुशी के पहले उसे चिट्ठी लिख कर अपनी बहन तक को बताना पड़ता है कि मीडिया में काम हरगिज न करना? सायमा सहर की शिकायत थी कि एक ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति अपने पद और हैसियत का धौंस दिखा कर उसे साथ शराब पीने के लिए दबाव डालता है और इस शिकायत का नतीजा यह होता है कि उल्टे सायमा को ही नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं दफन हो जाती होंगी, जिसमें कोई महिला पत्रकार अपने किसी वरिष्ठ या सहकर्मी की खिलाफ यौन-उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करती भी है तो इसका खमियाजा उसे ही भुगतना पड़ता है। पुरुष को बख्श दिए जाने का तर्क हमेशा एक ही होता है कि उसकी नौकरी को कैसे मुश्किल में डाला जाए। यानी कि सिर्फ नौकरी बची रहे, इसलिए ऐसे पुरुषों को स्त्री की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने की छूट मिल जाती है। शायद ही ऐसे मामले सामने आते हैं कि देश-दुनिया में यौन-उत्पीड़न के खिलाफ चीखने वाले मीडिया अपने संस्थान अपने भीतर किसी आरोपी के खिलाफ सख्त कदम उठाए।<br />
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मुझे तो लगता है कि कई बार जानबूझ कर महिला पत्रकारों के सामने ऐसी स्थितियां पैदा की जाती है, ताकि उसके सामने समझौता करने के सिवा कोई चारा ही न बचे। फरीदाबाद में रहने वाली रचना को दस-ग्यारह बजे रात तक काम करने को कहा जाता है, लेकिन उसे उतनी रात को अपने घर जाने के लिए ड्रॉपिंग या किसी तरह की सुविधा देने से इनकार कर दिया जाता है। यह तब होता है जब ओखला रेलवे स्टेशन पर वहशियों के हमले से वह किसी तरह खुद को बचा लेने के बाद अपने दफ्तर में अपना दुखड़ा रोती है। उसकी तकलीफ समझने के बजाय उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। इसके अलावा, बाहरी जोखिम की बात करें तो कोलकाता की शोमादास को, जिसके बारे में पुण्य प्रसून जी भी लिख चुके हैं, अपने विपक्षी खेमे की पत्रकार मान कर तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी का एक खास आदमी बलात्कार करा देने की धमकी दे देता है।<br />
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यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। अखबार या चैनल की ओर से सौंपे गए असाइनमेंट को फील्ड में पूरा करना एक पुरुष के लिए आसान और सहज हो सकता है, लेकिन एक महिला उसी असाइनमेंट को पूरा करने निकलती है तो उसके सामने कई तरह की चुनौतियां एक साथ खड़ी हो जाती है, सिर्फ इसलिए कि वह महिला है। किसी का इंटरव्यू करना हो, कोई खबर निकालना हो, या किसी रैली, बंद, आंदोलन या भीड़ की रिपोर्टिंग करनी हो, एक महिला पत्रकार उसे पूरा करने तक लगातार एक जोखिम से गुजरती है। यह स्थिति किसकी बनाई हुई है और इससे निपटने के क्या उपाय हो सकते हैं? पता नहीं कितनी महिला पत्रकार इस तरह के खतरों के बाच मरते-जीते काम कर रही होती हैं। मगर न केवल बाहर, बल्कि भीतर का तंत्र भी उसे महज शिकार की तरह ही देखता है।<br />
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कोई कह सकता है कि महिला पत्रकारों के उत्पीड़न और जोखिम के हालात आम नहीं हैं। लेकिन ये बातें सिर्फ वहीं तक नहीं है कि मीडिया हाउसों की भीतर की शिकायतें बड़ी मुश्किल से फूट पाती हैं, और मामला यहां "पकड़ा गया सो चोर है" के फार्मूले के हिसाब से "सब कुछ सुहाना" में दबा रह जाता है। अगर वेब मीडिया नहीं होता, तो जो इक्के-दुक्के मामले सामने आ पाए, शायद वे भी नहीं आ पाते। सवाल है कि अगर मामले इक्के-दुक्के भी हैं तो वह चिंता का मसला क्यों नहीं होना चाहिए। दूसरे, क्या सचमुच ऐसे कुछ मामलों के आधार पर कोई नतीजा निकालना ठीक नहीं है? यह सवाल कोई इसलिए भी उठा सकता है, क्योंकि अभी तक मीडिया में महिलाओं के कामकाज की स्थितियों को लेकर कोई ठोस अध्ययन सामने नहीं आया है। लेकिन अच्छी बात है कि एक शोध-छात्रा सुनीता मिनी ने दिल्ली सहित समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में "इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में महिला पत्रकारों की स्थिति" पर केंद्रित एक व्यापक सर्वेक्षण किया है। इस अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं, वे मीडिया में महिलाओं के साथ भेदभाव को महज एक मिथ या आरोप मानने वालों को आईना दिखाते हैं।<br />
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अव्वल तो अभिव्यक्ति की आजादी का झंडा उठाने वाले मीडिया संस्थानों के भीतर अपनी तकलीफ का बयान करना भी कितना मुश्किल और घातक है, यह शायद किसी से छिपा नहीं है। इसके बावजूद अगर लगभग तिरेपन प्रतिशत महिलाएं साफ तौर पर यह कहती हैं कि सहकर्मियों या उच्चाधिकारियों का उनके साथ बदतमीजी से पेश आना, उन पर फब्तियां कसना और अश्लील मजाक करना या उन्हें मानसिक रूप से परेशान करना आम है, तो यह इस बात का सबूत है कि हमारे आसपास बैठा पुरुष दरअसल मानसिक रूप से पिछड़ा और असभ्य है। अगर करीब सैंतीस प्रतिशत महिला पत्रकार कहती हैं कि शोषण की शिकार महिला पत्रकारों की शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं होती या नौकरी खोने के डर से ज्यादातर महिलाएं खुल कर विरोध भी नहीं कर पातीं; पैंसठ फीसद को शिकायत है कि मेहनत और योग्यता के बावजूद महिला पत्रकारों को तनख्वाह पुरुषों के मुकाबले कम दी जाती है: तकरीबन तिहत्तर प्रतिशत मानती हैं कि बारह-चौदह घंटे काम करने के अलावा श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन होता है; लगभग आधी महिला पत्रकारों को लगता है कि अगर कोई महिला खूबसूरत नहीं है तो उसे बहुत संघर्ष करना पड़ता है या उनके प्रोमोशन को शक की निगाह से देखा जाता है और तीन-चौथाई से ज्यादा मानती हैं कि महिला पत्रकारों को चुनौतीपूर्ण और महत्त्वपूर्ण जिम्मेवारियां नहीं दी जातीं तो इसका मतलब है कि हमारा मीडिया भी सोच और व्यवहार के पैमाने पर एक पिछड़े हुए सामंती समाज के ढांचे से अब तक अपना कोई अलग चेहरा नहीं गढ़ सका है।<br />
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सुनीता का बहुत शुक्रिया कि उन्होंने काफी मेहनत से ये तथ्य निकाले हैं। इस मसले पर शायद और काम करने की जरूरत है।<br />
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इसी अध्ययन में इस कड़वी हकीकत की एक बार फिर पुष्टि हुई है कि समूचे समाज का प्रतिनिधित्व करने के दावे के बीच पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग की महिलाओं का चेहरा मीडिया में कहां है। समूचे मीडिया में इन वर्गों की महिलाओं की नगण्य मौजूदगी क्या कुछ तल्ख सवाल नहीं खड़े करती है? क्या इन सवालों से सिर्फ यह कह कर बचा जा सकता है कि इन वर्गों से महिलाएं आती ही नहीं हैं और सवाल योग्यता का भी है?<br />
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मेरा मानना है कि "मेरिटवाद" का पाखंड अब खुल चुका है और रही बात इन वर्गों की महिलाओं के खुद आगे नहीं आने की, तो समाज में किसी भी अगुआ कहे जाने वाले तबके को यह बहाना बनाने का हक नहीं है।<br />
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सवाल है कि दूसरे तमाम क्षेत्रों की तरह हमारा मीडिया भी आधुनिकता के लबादे के भीतर उसी सामंती मन-मिजाज से महिलाओं को देखता और बरतता है, तो उसके आउटपुट में, सामने आने वाले काम में महिलाओं को क्या और कैसी जगह मिलेगी? महिलाओं की "सकारात्मक" तस्वीरों के नाम पर हमारे मीडिया के पास अगर कुछ है तो सोनिया गांधी, ऐश्वर्या राय या इंदिरा नूई जैसी कुछ "पावर वुमेन", जिसके जरिए कुछ अमूर्त सपने परोस कर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ ली जाती है। दूसरी ओर, महिलाओं के खिलाफ सबसे त्रासद अपराधों के ब्योरे में भी व्यवस्था को बदलने के बजाय व्यवस्था को मजबूत करने और उसे सींचने वाले शब्द ही चुने जाते हैं। वे कौन-सी वजहें हैं कि एक तरफ सरकारी पैमाने पर अंग्रेजी में "रेप" शब्द को "सेक्शुअल असॉल्ट" में बदल कर उसे और गंभीर अपराध बनाने और उसका दायरा बढ़ाने की कवायद चल रही है, तो हिंदी में बलात्कार जैसे अपराध के लिए "दुष्कर्म" और यहां तक कि "ज्यादती" जैसे शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। जेब काटना भी दुष्कर्म होता है और किसी से मीठे मजाक करने को भी ज्यादती कहते हैं। तो क्या हमारे मीडिया के एक हिस्से ने यह मान लिया है कि बलात्कार को जेब काटने या मीठे मजाक करने के बराबर करके देखा जा सकता है? अगर हां, तो इसके पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही है?<br />
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एक तो बड़ी समस्या है कि तमाम आधुनिकता, पढ़ाई-लिखाई और समझदारी के दावे के बावजूद हममें से ज्यादातर को अपनी जड़ परंपराओं से प्यार करना अच्छा लगता है, बिना इस बात का खयाल किए कि कौन-सी परंपरा किस तरह की मानसिकता को बनाए रखने में मदद करती है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उसी "माइंडसेट" को निबाहते हुए महिलाएं भी अपनी ही मुश्किल की वजहों की पहचान नहीं कर पातीं।<br />
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यानी स्त्री एक तरह से चौतरफा चक्रव्यूह में घिरी हुई हैं। पलते-बढ़ते हुए उसे एक व्यक्ति के बजाय स्त्री बनना है; काम करते हुए उसे याद रखना है कि वह स्त्री है; नतीजे देते हुए उसे एक अच्छी स्त्री बन कर दिखाना है और इस तरह उसे महज पितृसत्ता और पुरुष व्यवस्था का एक औजार भर बन कर रह जाना है। उसने ये शर्तें अगर ठीक से निबाह लीं तो फिर सब कुछ सहज रहेगा!<br />
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और जो लोग मीडिया पर थोड़ा करीब से निगाह रखते हैं, वे जानते हैं कि स्त्री को लेकर हमारे मीडिया ने व्यवस्था से अलग अपना कोई अलग चेहरा अब तक पेश नहीं किया है। और इन हालात में महिलाओं या उनकी छवि को लेकर मीडिया का जो रवैया रहा है, उससे अलग हो भी कैसे सकता है?<br />
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यानी महिलाओं की लड़ाई किसी एक मोर्चे पर नहीं है। उसके सामने अगर व्यवस्था की चालबाजियां हैं जो उसे एक "आज्ञाकारी" महिला के रूप में देखना चाहती है तो दूसरी ओर संस्कृति से मिला उसका अपना वह "माइंडसेट" भी है जो स्त्री और पीड़ित बनाए रखता है। सोचना उन महिला पत्रकारों को भी है जो इस चुनौतियो से भरे पेशे को चुनती तो हैं, लेकिन अपने दोयम समझे जाने की वजहों पर गौर नहीं करतीं। और जब तक समाज की तरह मीडिया के ढांचे में भी महिला को एक वस्तु की तरह देखा जाएगा, तक तक मीडिया को समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानना थोड़ा मुश्किल होगा। शायद यह ध्यान रखने की जरूरत है कि आखिर हम सबके घरों में कोई बच्ची होगी, जो पढ़-लिख रही होगी और आगे वह शायद खुली दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए घर से बाहर निकलेगी!</div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-32073833332089188462012-01-20T06:02:00.000-08:002012-01-20T06:02:28.467-08:00सत्ताओं की बिसात पर सरोकार...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="background-color: red; color: black; text-align: center;"><b>जेएनयू में 11 अक्तूबर, 2011 को "सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया" पर आयोजित सेमिनार में विषय प्रवर्तन करते हुए</b></div><br />
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<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoAw0p-KKcOO8mu6WsJHkfPL9Z7gJmPrHyrkTfW_WIPGXHriY8lit40YU1wTZOtwPfPwLrVwMoiayb4U38fiR_FmHrjuqYHTxULMF76ZHdo3BeurzYpdtVOk3kcfniDEmW8dreASE0PAI/s1600/malcom.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="250" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoAw0p-KKcOO8mu6WsJHkfPL9Z7gJmPrHyrkTfW_WIPGXHriY8lit40YU1wTZOtwPfPwLrVwMoiayb4U38fiR_FmHrjuqYHTxULMF76ZHdo3BeurzYpdtVOk3kcfniDEmW8dreASE0PAI/s320/malcom.jpg" width="320" /></a></div><br />
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<div style="color: red;"><b>साथियों,</b></div><br />
‘अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।’<br />
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मॅल्कम ने ये बातें कब और किस संदर्भ में कही थीं, यह तो पता नहीं। लेकिन मौजूदा दौर की पत्रकारिता को जरा-सी ईमानदारी से देखने की कोशिश की जाए तो मॅल्कम की ये चंद लाइनें अपने सबसे तल्ख़ असर के साथ मौजूद दिखती हैं।<br />
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हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि ‘बीता हुआ सब कुछ अच्छा था’, या फिर ‘भविष्य सुनहरा होगा’ जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा में जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।<br />
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यों इन धुंधलकों की सफाई के लिए हम जिन पर भरोसा किए बैठे रहे, दरअसल, उन्होंने ही इसे और ज्यादा गहरा किया। सरोकारों की चादर ओढ़े उन सरमाएदारों की पहचान बहुत मुश्किल काम नहीं है, अगर मॅल्कम की यहां रखी गई बातों को हम यों ही उछाला गया कोई जुमला न समझ लें।<br />
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तो भारत का मीडिया कब अपने सरोकारों को लेकर ईमानदार रहा है, इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? आज बाजार का एक हथियार बन चुके मीडिया से यह उम्मीद तो बेमानी है कि मुनाफे के मकसद को वह कभी थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएगा, लेकिन तब खुद को बाजार का मोहरा या खिलाड़ी मानने के बजाय वह कहीं भी अपने मीडियाई सरोकार का झंडा थामे क्यों दिख जाता है?<br />
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सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?<br />
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वे कौन-सी वजहें हैं कि मीडिया अपने परदों और पन्नों के लिए जिन खबरों का चुनाव करता है, वे इन कसौटियों पर कसी जाती हैं कि इससे आमदनी कितनी हो रही है या फिर वह व्यवस्था को बचाए रखने में कितनी मददगार साबित होती है? दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है?<br />
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क्या मीडिया के पन्ने और परदे केवल आभिजात्य वर्गों और उनके तौर-तरीकों के ब्योरे परोसने के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं? अगर नहीं, तो मीडिया के पन्ने और परदे मानस चक्रवर्ती जैसे सामंतों के लिए कैसे सुलभ हो जाते हैं जो समूची स्त्री जाति और दलितों को अपमानित करने की मंशा से वीभत्सतम भाषा में अपनी सामाजिक कुंठाओं की उल्टी करता है और प्रगतिशील कहे जाने वाले अखबार का संपादक उसका बचाव करता है?<br />
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मीडिया आज इस हैसियत में है कि वह चाहे तो किसी चुनी हुई सरकार को चंद रोज में ‘जंगल राज’ की पहचान दे दे और चाहे तो किसी ‘पाखंड राज’ को ‘सुशासन ऑफ द इयर’ या ‘सुशासन ऑफ द सेंचुरी’ का सर्टिफिकेट जारी कर दे! तो जिस मीडिया का काम नौ सुखी लोगों के बरक्स एक दुखी व्यक्ति की आवाज बनना था, वह नौ दुखी लोगों को दुनिया के बोझ की तरह पेश करके किसे खुश करने की कोशिश में है?<br />
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किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे ‘घाटा सह कर’ नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों के एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?<br />
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लेकिन क्या कारण है कि ज्यादातर अखबारों और चैनलों की तमाम प्रस्तुतियों पर उनके सामाजिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह हावी दिखते रहे हैं? जिन मंचों पर हाशिये के सवालों को लेकर घनघोर बहसें आमंत्रित कर अलग-अलग पैमाने पर बदलाव की जमीन तैयार करनी चाहिए थी, वहां मामूली असहमतियों तक को जगह क्यों नहीं मिल पाती?<br />
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क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिसने बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों या फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का जो विस्फोट हो रहा है, क्या वे तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी का तर्क कायम दिखता है। लेकिन क्या इसकी आड़ में कोई सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?<br />
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बिहार सरकार के दो कर्मचारियों ने किन मजबूरियों के तहत ‘फेसबुक’ के अपने निजी पन्नों पर सरकार की नीतियों के बारे में अपनी अलग राय जाहिर की? आजाद भारत के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हुआ है कि ‘फेसबुक’ पर राय जाहिर करने के एवज बिहार सरकार ने अपने दोनों कर्मचारियों के खिलाफ दमनकारी कदम उठाए। लेकिन अक्सर अभिव्यक्ति की आजादी का राग अलापने वाले तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह मुद्दा क्यों नहीं बना?<br />
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ऐसा कैसे और किन कारणों से हो गया कि हमारे जिस मीडिया को हमेशा ही सत्ता के खिलाफ एक ताकतवर विपक्ष की भूमिका में होना था, वह इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें, तो सत्ता का मुखापेक्षी और ठकुरसुहाती की हैसियत में खड़ा खुश दिखाई देता है?<br />
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मीडिया की दिखने वाली इस दिशाहीनता का दौर क्या सचमुच इतना ही मासूम है? या फिर मुनाफे की मंजिल के बरक्स सामाजिक-राजनीतिक सत्ताओं की कोई बिसात बिछी हुई है, जिसमें सरोकारों को सिर्फ मोहरे के तौर पर इस्तेमाल होना है?<br />
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इन सबके बीच बेहद शांत तरीके से एक खतरनाक प्रतिक्रिया यह सामने आई है कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?<br />
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ये कुछ सवाल हैं जिन पर बात करना शायद इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि अखबार या टीवी कोई ऐसी चीज नहीं है, जिनका मालिकाना हक उन्हें मुद्दों के साथ बेईमानी करने की छूट दे देता है। जेएनयू में किसी मुद्दे पर बातचीत से उम्मीद यही की जाती है कि इससे बहस की एक जमीन तैयार हो...।</div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-8112729932964857962012-01-20T05:47:00.000-08:002012-01-20T05:47:40.926-08:00जन-सरोकारों से बहुत दूर है देश का मीडिया...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="background-color: red;"><b>राज वाल्मीकि</b></div><br />
<div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b>सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया</b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b><br />
</b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b>11 अक्तूबर, 2011</b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b><br />
</b></span></div><div style="text-align: center;"><span style="font-size: large;"><b>स्थान- जेएनयू एसएल कमिटी रूम</b></span></div><br />
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<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh84r3x7ftfdjMhPs7pOz5reu8RgnmP6m4rwhB1UZcf8g_0sB-pzTexIMESPPT-HZd0wYnXkn5k-hZ4rPFcy_2hmcVQE0L3Y-fO7q0PAPJfuzuSga1Kc-VQlMKivQKBF390croFuprsEDk/s1600/JNU-1.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh84r3x7ftfdjMhPs7pOz5reu8RgnmP6m4rwhB1UZcf8g_0sB-pzTexIMESPPT-HZd0wYnXkn5k-hZ4rPFcy_2hmcVQE0L3Y-fO7q0PAPJfuzuSga1Kc-VQlMKivQKBF390croFuprsEDk/s320/JNU-1.JPG" width="320" /></a></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjICcH6wC2jukogjcyCMWiK0B0y7aVCaY4QU93WWiwgzluNs_grdbAKoR2AoP_8kspWTy9p30tjTVtpzd_raBJWHbWBHaHHJXqvNQh8pGnLJUMdxvpEksTO_M_2oG0s5c8K_hNUWX9IAEg/s1600/JNU-2.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> </a></div><br />
दिल्ली मीडिया रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर और दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट की ओर से 11 अक्टूबर 2011 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज के कमिटी रूम में 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' विषय पर सेमिनार का आयोजन हुआ।<br />
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कार्यक्रम की शुरुआत में डीयूजे के महासचिव एसके पांडेय ने संगठन के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों पर लगातार हमारी नजर रहती है और हम चाहते हैं कि मुद्दों पर बहस हो। इस मकसद से हमने समय-समय पर सेमिनारों या बहसों का आयोजन किया है, ताकि एक स्वस्थ और ईमानदार पत्रकारिता की परंपरा कायम की जा सके। 'सरोकारों की सरमाएदारी और मीडिया' पर बातचीत इसी की एक कड़ी है। उम्मीद है कि इससे कुछ ऐसी बातें निकल कर आएंगी जो भविष्य की पत्रकारिता के उपयोगी हो।<br />
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कार्यक्रम के प्रारंभ में मृणाल वल्लरी ने विषय प्रवर्तन के रूप में अपना व्याख्यान दिया। उन्होंने मॅल्कम के एक वक्तव्य का उद्धरण देते हुए कहा कि 'अगर आप सावधान नहीं हैं, तो अखबार आपके भीतर उन लोगों के खिलाफ नफरत भर देंगे जो दमन के शिकार रहे हैं और आप उन लोगों से प्यार करने लगेंगे जो दमन करते रहे हैं।' उन्होंने कहा कि हम एक ऐसे समाज के हिस्से हैं, जो अमूमन अतीतजीवी है और या तो यही सोच कर कुंठित होता है कि "बीता हुआ सब कुछ अच्छा था" या फिर "भविष्य सुनहरा होगा" जैसे शिगूफों से खुद को संतोष देता रहता है। लेकिन अच्छा है कि ज्ञान और दृष्टि पर एकाधिकार की साजिशों की पहचान अब रोज-ब-रोज आसान होती जा रही है और विचारों के लगातार टूटते दायरों ने समाजी आबो-हवा ने जो गर्मी पैदा की है, उससे अतीत के बहुत सारे धुंधलके अब छंटने लगे हैं।<br />
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उन्होंने भारतीय मीडिया के सरोकारों की ईमानदारी के संदर्भ में कहा कि इस पर बात करते समय हमें शायद यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके सरोकार आखिर रहे हैं क्या हैं। मीडिया को संचालित करने की जिम्मेदारी आमतौर पर जिन सामाजिक वर्गों के हाथ में रही है, उसके लिए सरोकारों के मायने क्या रहे हैं? उन्होंने कहा कि सरोकारों की सरमाएदारी के मूल स्रोत क्या कहीं और से भी निकलते हैं? सामाजिक-राजनीतिक या ऐतिहासिक रूप से दबाए गए तमाम पक्षों और हाशिये के जिन सवालों को सतह पर और केंद्र में लाकर केंद्र में रख देना मीडिया के जो मूल सरोकार होने चाहिए थे, वे सब सिरे से गायब क्यों दिखते हैं? मुनाफे की मंजिल के बरक्स ये हकीकतें क्या सिर्फ संयोग हैं, या फिर मीडिया के सरोकार किसी और स्रोत से संचालित होते हैं?<br />
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उन्होंने मीडिया के पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग पर सवाल उठाते हुए कहा कि दो से पांच हजार के किसी मजमे को जन-सैलाब और हक को रहम में तब्दील करते एनजीओ कहे जाने वाले गिरोहों के शक्ति प्रदर्शन को देश की आजादी की दूसरी लड़ाई बताने वालों को दो-तीन या चार लाख लोगों का विरोध जताना केवल सड़क जाम का कारण क्यों लगने लगता है? सुश्री वल्लरी ने एक सार्वजनिक मंच के रूप में मीडिया के मनमाने रवैये पर टिप्पणी की कि किसी टीवी चैनल या अखबार का मालिकाना हक़ किसी खास व्यक्ति के पास हो सकता है। वह इसे घाटा सह कर नहीं चलाने का तर्क दे सकता है। लेकिन इस मासूम तर्क के सहारे अखबार या चैनलों में एक सार्वजनिक मंच होने की हकीकत और उसे निबाहने की जिम्मेदारी के सवालों को क्या दरकिनार किया जा सकता है?<br />
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उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया के रवैए के कारण लोगों को दूसरे विकल्पों की शरण लेने के संदर्भ में कहा कि क्या ये ही वे हालात नहीं हैं, जिस बहुत सारी अभिव्यक्तियों के लिए लोगों को वैकल्पिक माध्यमों का सहारा लेने पर मजबूर किया है? बहुत सारे ब्लॉगरों, निजी वेबसाइटों फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों के पन्नों पर सूचनाओं और बहसों का विस्फोट हो रहा है, क्या ये तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के घोषित सरोकार नहीं है? लेकिन इन सबके बरक्स कई राज्यों में लगभग सरकारी मुखपत्र या वकील की भूमिका निभा रहे मीडिया के सामने सिर्फ मुनाफा कमाने की मजबूरी है? या फिर इसके पीछे एक सामाजिक राजनीति भी अपने खेल-खेलती है?<br />
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उन्होंने एक खतरनाक संकेत की ओर इशारा किया कि जिन-जिन वर्गों को मीडिया ने सचेत तौर पर नजरअंदाज किया या वाजिब जगह नहीं दी, उन्होंने अब अपनी ओर से मीडिया को खारिज करना शुरू कर दिया है। इधर कई बड़े और सफल आयोजनों की न तो किसी अखबार या चैनल में कवरेज करने के लिए आमंत्रण भेजा गया, न प्रेस विज्ञप्ति तक भेजी गई। यह स्थिति किसके लिए डरने की बात है?<br />
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इसके बाद कार्यक्रम के संचालन का जिम्मा संभालने वाले समर ने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर को अपनी बात रखने का आग्रह किया। श्री नैयर ने कहा कि हमारे समय में मालिक हमारे काम में दखलअंदाजी नहीं करते थे। पत्रकारिता पर नियंत्रण के संदर्भ में उन्होने अपनी राय दी कि मुझे पीत-पत्रकारिता या गैरजिम्मेदाराना पत्रकारिता भी मंजूर है, पर पत्रकारिता पर सरकार का नियंत्रण मंजूर नहीं। किसी भी शोषण के खिलाफ लड़ाई मैदान में लड़नी होती है, लेकिन आज समस्या यह है कि कोई लड़ने को तैयार नहीं है। उन्होने कहा कि जिस दिन तुम सच्चाई का खून होते देखो और कुछ न बोलो तो उसी दिन से तुम्हारी मृत्यु होनी शुरू हो गई। उन्होने कहा कि पत्रकारिता एक ताकतवर पेशा है। आज मीडिया को धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, आदर्शवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाना होगा, क्योंकि देश को इनकी जरूरत है।<br />
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जनसत्ता में वरिष्ठ पत्रकार और अपराध-विज्ञान में विशेषज्ञता रखने वाले सुधीर जैन ने पावर प्वाइंट के जरिए अपनी बात रखी। उन्होने पत्रकारिता की जिम्मेदारियों का जिक्र करते हुए कहा कि हमें सरकार के खिलाफ होना क्यों जरूरी है? सरकार हम ही बनाते हैं, लेकिन अगर वह ठीक से काम नहीं करती तो उसे ठीक से काम करने के लिए उस पर दबाव बनाना जरूरी है। सुधीर जी ने कहा कि बहुत से मुद्दे हैं, जो शिद्दत से उठाए जाने चाहिए। लेकिन मीडिया उसे उठाता नहीं। बेरोजगारी, गरीबी, सांप्रदायिकता जैसे अहम मुद्दों को नजरअंदाज करके ध्यान भटकाने वाले मुद्दों की दुकान सजाने का ही नतीजा है कि आज मीडिया की कार्यशैली को लेकर सवाल उठ रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज मीडिया ने लगभग तमाम मुद्दों का व्यवसायीकरण कर दिया है। और यही वजह है कि उसकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह खड़े हो रहे हैं। <br />
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जेएनयू में प्रोफेसर और समाजशास्त्री डॉ विवेक कुमार ने कहा कि आज के ज्यादा मीडिया विश्लेषकों को प्रगतिशीलता के खोल में लिपटे जाति पर आधारित भेदभाव कोई प्रमुख मुद्दा नहीं लगता। इसलिए वे अपने प्रमुख मुद्दों में इसे शामिल नहीं करते। जबकि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस वर्षों में दलितों के खिलाफ तीन लाख सत्तर हजार उत्पीड़न की वारदातें हुई हैं। पर मीडिया के लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। अगर किसी मजबूरी के तहत ब्योरा देना पड़ भी जाए तो वह जातीय उत्पीड़न की बात नहीं करता। उन्होंने कहा कि 1970 के दशक में पूरे भारत में दलितों के आंदोलन चल रहे थे, पर मीडिया ने इन पर कोई ध्यान नहीं दिया। आज चालीस साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी मीडिया दलितों की नकारात्मक छवि दिखाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों पर अत्याचार की घटनाओं को कभी-कभी वह दलितो पर अहसान करने के लहजे में थोड़ी-सी जगह दे देता है, जबकि यह उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी होनी चाहिए ती। असलियत तो यह है कि इस तरह की खबरों में बड़ी चालाकी से दलितों के खिलाफ उत्पीड़न की घटनाएं दबा दी जाती है और उत्पीड़क वर्गों को बचा लिया जाता है। दलित तो विक्टिम या पीड़ित हैं। लेकिन जब दलित आरक्षण या अपने सम्मान की बात करता है तो उसे मीडिया उसे ऐसे दिखाता है जैसे वे सवर्णों के साथ ज्यादती कर रहे हों। जबकि दलित केवल अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों को लेने की मांग करते हैं।<br />
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वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने कुलदीप नैयर के विचारों से असहमत होते हुए कहा कि कुलदीप जी अपने जमाने की पत्रकारिता को ऐसे बता रहे थे जैसे वह पत्रकारिता का स्वर्णयुग था। असल में ऐसा कुछ भी नहीं था। पहले भी चापलूसी और अपने संपादक से लेकर समाज और राजनीति के सत्ताधारी वर्गों को खुश करने वाली पत्रकारिता होती थी, आज भी वही हाल है। उन्होंने कहा कि इस देश का मीडिया शहरी है, एलिट है, हिन्दू समर्थक है, सवर्ण है, कॉरपोरेट है। अन्ना हजारे के अनशन को मीडिया ने ऐसे दिखाया जैसे पूरा देश अन्ना के साथ है। जबकि हकीकत यह है कि अन्ना के आंदोलन में दलितों, पिछड़े तबकों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को को कोई जगह नहीं मिली और न इन वर्गों ने अन्ना का समर्थन किया। जिस तरह अन्ना हजारे के आंदोलन ने दलित-पिछड़ी जातियों के सवालों को साजिशन नजरअंदाज किया, उसे मीडिया ने छिपाने की कोशिश की, लेकिन लोग समझ रहे थे। उन्होंने कहा कि समाज के सत्ताधारी वर्गों के अलावा हमारे देश का मीडिया आमतौर पर बाजार के उतार-चढ़ावों से प्रभावित होता है। शेयर बाजार में अगर किसी क्षेत्र के शेयर भाव गिरने लगते हैं तो वह उसी हिसाब से उससे जुडी खबरों को अपने टीवी चैनल या अखबार में जगह देते हैं। हकीकत यह है कि मीडिया नब्बे प्रतिशत लोगों की बात ही नहीं करता। दलितों के मुद्दों से मीडिया को कोई सरोकार नहीं है। इसका कारण यही है कि टीवी चैनलों के न्यूज रूम में ऊंची कही जाने वाली जातियों का जबर्दस्त वर्चस्व है। आज का मीडिया विज्ञापनदाताओं का है, क्योंकि मीडिया की कमाई विज्ञापनों से होती है। ऐसे मे स्वाभाविक रूप से मीडिया आम आदमी की बात नहीं करता है। उन्होंने कहा कि जिस मीडिया में दलित-पिछड़े तबकों की बराबर की भागीदारी नहीं है, मुझे ऐसे मीडिया में उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjICcH6wC2jukogjcyCMWiK0B0y7aVCaY4QU93WWiwgzluNs_grdbAKoR2AoP_8kspWTy9p30tjTVtpzd_raBJWHbWBHaHHJXqvNQh8pGnLJUMdxvpEksTO_M_2oG0s5c8K_hNUWX9IAEg/s1600/JNU-2.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjICcH6wC2jukogjcyCMWiK0B0y7aVCaY4QU93WWiwgzluNs_grdbAKoR2AoP_8kspWTy9p30tjTVtpzd_raBJWHbWBHaHHJXqvNQh8pGnLJUMdxvpEksTO_M_2oG0s5c8K_hNUWX9IAEg/s320/JNU-2.JPG" width="320" /></a><br />
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वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कहा कि मीडिया को समाज में हो रहे बदलावों को स्वीकार करना चाहिए। लेकिन ऐसा शायद ही हो रहा है। खासतौर पर समाज का सत्ताधारी तबका, जिसका संसाधनों पर नियंत्रण है, वह सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहा है। एक ओर समाज की हकीकत को जानबूझ कर नजरअंदाज करता है तो दूसरी ओर इसी बहाने अपना सामाजिक मकसद पूरा करता है। उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि कई बार अखबार या टीवी चैनल बहुत सोच-समझ कर सेलेक्टिव तरीके से मुद्दों को जनता के सामने रखते हैं। उनका तरीका ऐसा होता है जिसमें पीड़ितों पर दोषारोपण की स्थिति बनती है और उत्पीड़क वर्गों को या तो बख्श दिया जाता है या खबरों की प्रस्तुति का तरीका ऐसा होता है कि इसमें उत्पीड़न करने वालों के प्रति गुस्सा खत्म हो जाता है, बल्कि कई बार उनके बचाव की स्थितियां पैदा कर दी जाती है। उन्होंने एक टीवी चैनल का उदाहरण देते हुए कहा कि नरेंद्र मोदी का इन्टरव्यू लेते हुए एक अतिउत्साही पत्रकार ने कहा कि मैं पूरे देश की जनता की ओर से कहता हूं कि जनता आपको प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। क्या यह जनादेश का मजाक नही है। उन्होंने भारतीय इतिहास के कई उदाहरणों को संदर्भ के रूप में सामने रखते हुए कहा कि मीडिया कैसे अपने सरोकारों के साथ अपनी सुविधा के हिसाब से खेल करता रहा है। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया दरअसल एक उत्पाद भर बन कर गया है, जिसे बेच कर उत्पादक लाभ कमाना चाहता है। आज मीडिया मिशन नहीं, प्रोफेशन हो चुका है। इसमे हानि-लाभ का गणित पूरी योजना के साथ बनाया जाता है। उन्होंने कहा कि मीडिया का चरित्र अगर जातिवादी और समाज की ताकतवर जातियों के पक्ष में है, तो इसके बड़े कारण हैं। दरअसल, किसी भी मीडिया संगठन में काम करने वालों के बीच और खासतौर पर फैसला लेने वाले पदों पर जो लोग रहेंगे, काम पर उसका असर साफ दिखेगा। 2006 में मैंने एक सर्वे किया था। उसमें मीडिया संगठनों में फैसला लेने वाले पदों पर सामाजिक भागीदारी की एक तस्वीर सामने आई थी। यह बेवजह नहीं है कि आज मीडिया को जनसरोकारों से कोई लेना-देना जरूरी नहीं लगता।<br />
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आयोजन के दूसरे चरण में खबरों की खरीद-बिक्री, यानी पेड न्यूज पर आधारित उमेश अग्रवाल की एक चर्चित फिल्म ''ब्रोकरिंग न्यूज'' भी दिखाई गई। इस फिल्म में उमेश अग्रवाल ने मीडिया में खबरें छापने के लिए पर्दे के पीछे चलने वाले खेल और सच को दिखाने की कोशिश की है। कहना चाहिए कि उन्होने परदे के पीछे की घिनौनी सच्चाई को सबके सामने लाकर मीडिया का एक ऐसा आयाम सबके सामने रख दिया है जो उसके चौथा खंभा होने के पाखंड को खोलता है। आम लोग अखबार या टीवी की खबरों पर भरोसा करके अपनी राय बनाते हैं और आज अखबार या टीवी एक ऐसी जगह हो चुकी है, जहां बाकायदा खबरें बेची और खरीदी जाती हैं, जहां पैसा लेकर विज्ञापनों को खबरों के रूप में पेश किया जाता है।<br />
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फिल्म के प्रदर्शन के बाद सेमिनार में भाग लेने वाले वक्ताओं के साथ-साथ कई श्रोताओं ने सवाल-जवाब में हिस्सा लिया। उमेश अग्रवाल ने दिलीप मंडल के एक सवाल के जवाब में बताया कि यह दरअसल पचासी मिनट की बनी थी, लेकिन इसकी अधिकतम निर्धारित अवधि की वजह से इसके संपादित अंश में कई हिस्सों को छोड़ना पड़ा।<br />
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कई मामलों में मीडिया के अराजक व्यवहार के संबंध में दिलीप मंडल ने राय जाहिर की कि मीडिया पर नियंत्रण के लिए कोई पहल तो करनी होगी। उन्होने कहा कि अगर हम मीडिया के उपभोक्ता हैं तो इससे बेहतर गुणवत्ता की मांग जायज है। अंजलि देशपांडे ने इसका विरोध करते हुए कहा कि मीडिया पर नियंत्रण किसी भी स्थिति में ठीक नहीं है। दिलीप मंडल ने भागीदारी का सवाल उठाते हुए कहा कि कॉरपोरेट मीडिया में चूंकि सामाजिक भागीदारी बेहद असंतुलित है, इसलिए इनसे ज्यादा किसी सरकारी व्यवस्था पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि चाहे किन्हीं कारणों से, वहां भागीदारी के सवाल से जूझने और उसे सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है। <br />
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कार्यक्रम के आखिर में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए रजनीश ने कहा कि आज की बातचीत ने साबित किया है कि जेएनयू बहस और विमर्श के जरिए नए रास्ते खोलने के अपनी ताकत के साथ खड़ा है। समाज के वंचित वर्गों को अब तक मीडिया या संचार के दूसरे माध्यमों ने जिस तरह हाशिये के बाहर रखा था, उम्मीद है कि इस स्थिति पर अब बातचीत और बहस का सिरा बहुत आगे तक जाएगा और इससे कोई हल खोजने में मदद मिलेगी।</div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-16896846105512944872011-05-11T07:42:00.000-07:002011-05-11T07:42:52.508-07:00अकेलेपन का अंधेरा...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLUOhlOJuOCxsdUYLUqV07ZS33chjgXddg6dqhsfajJzYGqkZhgNMa1koJoDgmVQbXykA_KimpI1JCMzWvPlkVt1wFrGQzMxthxpj_xObJej6YPgN7dvzEAWbfHCc4cSPCEwD2ONOSdRo/s1600/killing-loneliness-skulls-image.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLUOhlOJuOCxsdUYLUqV07ZS33chjgXddg6dqhsfajJzYGqkZhgNMa1koJoDgmVQbXykA_KimpI1JCMzWvPlkVt1wFrGQzMxthxpj_xObJej6YPgN7dvzEAWbfHCc4cSPCEwD2ONOSdRo/s1600/killing-loneliness-skulls-image.jpg" /></a></div><br />
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<b style="background-color: red;">आर्थिक</b> दृष्टि से वैश्विक भूगोल पर अपनी पहचान बना चुके नोएडा में दो बहनों की दिल दहला देने वाली कहानी ने हमारे समाज को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना महानगरीय जीवन की एक ऐसी तस्वीर खींच रही है जो हमसे रुकने को और थोड़ा ठहर कर सोचने को कह रही है कि उपभोक्तावाद और महानगरीय जीवन में रचे-बसे हम कहां पहुंच गए हैं कि खुद में गुम हो जाना ही एक रास्ता पा रहे हैं। महानगरों में बैठे हम लोग, जिनकी जड़ें किसी छोटे शहरों, गांवों या कस्बों में है, जानते हैं कि वहां निजी और सार्वजनिक का अंतर बहुत हद तक मिट गया-सा होता है। पड़ोसी के घर में क्या सब्जी बनी, यह जाने बिना पेट में दर्द होने लगता था! ऐसी जगहों पर परिवार के अंदर के संकट से उबरने का दृश्य बनता था और हालात अपने आप पैदा हो जाते थे। अगर किराए के कमरे में रह रहा कोई व्यक्ति सुबह देर तक सोता रहा तो मकान-मालिक या पड़ोस का कोई किराएदार दरवाजा खटखटाकर जरूर पूछ लेता कि बाबू, तबियत तो ठीक है न! रात भर प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी में पढ़ाई कर भोर में सोए किसी युवक को जरूर खीझ होती होगी कि सो मैं रहा हूं, तो इन महाशय को क्यों परेशानी हो रही है!<br />
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लेकिन बड़े होते शहरों ने परिवार के साथ-साथ समाज को भी बहुत छोटा और व्यक्ति को कहीं न कहीं अकेला कर दिया है। इसका नतीजा चुपचाप पसरा। अब तक लोगों के अकेलेपन से अवासदग्रस्त होने की सूचना आती थी। लगता था कि परिवार छोटा हो रहा है और एकाकीपन लोगों को खा रहा है। हालत यह है कि बड़े अपार्टमेंटों और सोसायटियों में रहने वाले लोग यह नहीं जानते कि उनके बगल के फ्लैट में कौन रह रहा है। हां, नंबर से वे भले अपनी पूरी सोसायटी या अपार्टमेंट के बारे में बता दें। लेकिन नोएडा की घटना तो इन सबसे कहीं आगे छलांग कर हमें बता रही है कि मामला अब केवल वहीं कहीं नहीं ठहरा है। महानगरों के बाशिंदे अब तक सिर्फ अपने मुहल्ले से कटे थे। लेकिन इन बहनों ने जो नई तस्वीर दिखाई है वह यही बताता है कि पढ़ा-लिखा और आधुनिक माना जाने वाला इंसान किस तरह केवल अपने परिवार से नहीं, अपने आप तक से कट रहा है।<br />
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यह डरने की बात है कि खाते-पीते लोगों को उनका अकेलापन कहां ले के जा रहा है। अकेलेपन के अपने बनाए दायरे ने परिवार के अंदर भी एक दीवार खड़ी कर दी है। इस तरह का एकाकीपन सभी सुविधाओं से संपन्न रिहाइशी इलाकों के बाशिंदों में ज्यादा दिख रहा है। इन बहनों में अकेलेपन का भाव किसी अपने के अभाव में आया था। यह भाव उस अभाव से नहीं पैदा हुआ था, जैसा रोटी, कपड़ा और मकान की जंग लड़ते आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में होता है। यहां संपत्ति के लिए होने वाले लड़ाई-झगड़े भी नहीं थे। पैतृक चल-अचल संपत्ति और जमा-पूंजी इन बहनों को मिल ही गई थी। थोड़Þे से बेहतर वित्तीय प्रबंधन से वे एक संपन्न और सुविधाजनक जिंदगी जी सकती थीं। आर्थिक अभाव का भाव या तो इंसान को बहुत दीन बनाता है या व्यवस्था के प्रति विद्रोही। जिनके पास आर्थिक रूप से कुछ खोने के लिए नहीं होता, वे समाज और व्यवस्था को लेकर बागी होते हैं। लेकिन खाते-पीते तबकों में अपनों के साथ की कमी का भाव खुद के प्रति विद्रोह पैदा कर देता है। अपना ही अस्तित्व बेगाना लगने लगता है। सवाल है मन की ग्रंथियों में ये भाव कहां से घुसपैठ कर लेते हैं कि कोई अपने प्रति भी इतना बेहरम हो जाता है?<br />
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दरअसल, महानगरों में बच्चों के पालन-पोषण के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, उनमें हैसियत का तत्त्व सबसे ऊपर होता है। लेकिन उसमें जो आभिजात्य फार्मूले अंगीकार किए जाते हैं, किसी बच्चे के एकांगी और अकेले होने की बुनियाद वहीं पड़ जाती है। आज यह वक्त और समाज की एक बड़ी और अनिवार्य जरूरत मान ली गई है कि एक आदमी एक ही बच्चा रखे। एकल परिवार के दंपत्ति इस बात को लेकर बेपरवाह रहते हैं कि वे अपने छोटे परिवार के दायरे से निकल कर बच्चों को अपना समाज बनाने की सीख दें। काम के बोझ से दबे-कुचले माता-पिता डेढ़ साल के बच्चे को ‘कार्टून नेटवर्क’ की रूपहली दुनिया के बाशिंदे बना देते हैं। बच्चे के पीछे ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़े, इसलिए उसके भीतर कोई सामूहिक आकर्षण पैदा करने के बजाय उसकी ऊर्जा को टीवी सेट में झोंक देते हैं। फिर दो-तीन साल बाद उसके स्कूल के परामर्शदाता से सलाह लेने जाते हैं कि बच्चा तो टीवी सेट के सामने से हटता ही नहीं और पता नहीं कैसी बहकी-बहकी कहानियां गढ़ता है।<br />
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वह ऐसा क्यों नहीं होगा? उसकी दुनिया को समेटते हुए क्या हमें इस बात का भान भी हो पाता है कि हमने उसे इस दुनिया से कैसे काट दिया। होश संभालते ही जिस बच्चे को अपने साथी के रूप में ‘टॉम-जेरी’ और ‘डोरेमॉन’ मिला हो, वह क्यों नहीं आगे जाकर अपने मां-बाप से भी कट जाएगा? स्कूल जाने से पहले मां-बाप छोटे बच्चों को सलाह देते हैं कि अपनी पेंसिल किसी को नहीं देना, अपनी बोतल से किसी को पानी नहीं पीने देना। हम नवउदारवादी मां-बाप बच्चे को पूरे समाज से काटते हुए बड़ा बनाते हैं। उसके पास अपना कहने के लिए सिवा अपने मां-बाप के अलावा और कोई नहीं होता। और जब वही मां-बाप साथ छोड़ देते हैं तो वह अपने को निहायत बेसहारा महसूस करने लगता है। अपने घर की चारदीवारी को ही अपनी जीवन की सीमा का अंत मान लेता है। महानगरों में ऐसे अकेले लोगों की पूरी फौज खड़ी हो रही है जो रहते तो ‘सोसायटी’ में हैं, लेकिन अरस्तू की परिभाषा के मुताबिक ‘सामाजिक प्राणी’ नहीं हैं। यानी मनुष्य होने की पहली शर्त खो बैठे हैं।</div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-67542659120012595852011-04-20T07:02:00.000-07:002011-04-21T08:26:47.645-07:00एक फर्जी इज्जत के नाम पर.....<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
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<div style="text-align: right;"><span style="font-size: large;"><span style="color: red;"><i>एक दूसरे मामले के बहाने ही सही, अच्छा हुआ सुप्रीम कोर्ट ने खापों के कार्यकलाप पर अपनी राय साफ कर दी। दरअसल, हमने देश के स्तर पर तो एक लोकतंत्र को चुन लिया, लेकिन अक्सर इसके भीतर अलग-अलग समाजों के नियम-कायदे के हिसाब से चलना-जीना चाहते हैं। खाप जो भी कहते-करते हैं, उसकी जड़ें जहां से आती हैं, उस पर विचार करना जरूरी न समझ कर कई बार हमारे शासक भी उसे समाज के सेवकों के रूप में पेश करते हैं। लेकिन यहीं वे भूल जाते हैं कि उनका साथ एक जड़-व्यवस्था की जड़े और कितनी मजबूत कर देती हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उनके इस तरह खयालों से देश या समाज की कितनी जगहंसाई होती है या हमारा समाज कहां ठहरा-पिछड़ा रह जाता है, कितना अमानवीय बना रह जाता है।</i></span></span></div><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnlSaeqaFlcTnxaxlwo6r0iEh6MPMXexeqwshMJ1PQOYIF_b07NgWrAUVny9OVODKoTWXY6llqF0NxeNV-MhdjTXnf-4WyFs-ydADb43jQFfQUMj7RQTFK_hWaAakHWKYFtCraQqVI1ho/s1600/cartoon.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="114" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnlSaeqaFlcTnxaxlwo6r0iEh6MPMXexeqwshMJ1PQOYIF_b07NgWrAUVny9OVODKoTWXY6llqF0NxeNV-MhdjTXnf-4WyFs-ydADb43jQFfQUMj7RQTFK_hWaAakHWKYFtCraQqVI1ho/s320/cartoon.jpg" width="320" /></a></div><br />
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<div style="text-align: left;">कुछ ही दिन पहले मैंने बीबीसी की हिंदी वेबसाइट पर एक वीडियो देखा। अफगानिस्तान के किसी गांव से बाहर ऊबड़-खाबड़ जगह पर हजार से ज्यादा लोग जमा थे। वहां खड़े तालिबान के दो नुमाइंदा मौलवी कुछ फरमान जैसा सुना रहे थे। उसके बाद कमर तक खोदे गए एक गड्ढे में बुर्के में ढकी एक स्त्री को दिखाया गया। कुछ ही पल में चारो ओर खड़े लोगों ने गड्ढे में खड़ी युवती पर पत्थर बरसाना शुरू कर दिया। वह चीखती-चिल्लाती बचने की कोशिश करती हुई गड्ढे से बाहर निकलने का जतन कर रही थी कि एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर लगा और वह गड्ढे में गिर गई। लोगों ने पत्थरों की बरसात जारी रखी और गड्ढे में गिरी चीखती-चिल्लाती वह युवती थोड़ी ही देर में खामोश होकर पत्थरों के नीचे दफन हो गई।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">इसके बाद एक युवक लगभग घसीटते हुए बीच में लाया गया, जिसके हाथ पीछे बंधे थे। उसका भी हश्र उसी युवती जैसा ही हुआ और बख्श देने की गुहार लगाते हुए उस युवक को भी उसी तरह पत्थरों से मार-मार कर मार दिया गया।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">इन दोनों का कसूर महज यह था कि उन्होंने एक दूसरे से प्रेम कर लिया था।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">पिछले पांच-छह साल में पत्रकारिता करते हुए काफी उतार-चढ़ाव भरी और कई बार बेहद त्रासद खबरों से वास्ता पड़ा। खासतौर पर सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन करते या रिपोर्टिंग करते हुए उनकी तहों में जाने की कोशिश जरूर की, लेकिन अफगानिस्तान के किसी इलाके की इस घटना के वीडियो ने पहली बार मुझे भीतर तक तोड़ दिया। हालांकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान या अपने ही इस महान देश के भीतर से भी अक्सर आने वाली अमूमन इसी प्रकृति की खबरों से सामना होता रहा था।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">अफगानिस्तान में तालिबान के बर्बर बर्ताव का वीडियो देखते हुए कई साल पहले घर में पड़ी किसी पुरानी पत्रिका में लगभग बीस-बाईस साल पहले छपी एक रिपोर्ट का ध्यान आया। मुझे ठीक से याद तो नहीं है, लेकिन शायद वह हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेहराना नाम का एक गांव था। वहां पंचायत के फैसले के बाद दस हजार लोगों की भीड़ के सामने एक लड़का-लड़की के साथ-साथ लड़के के एक दोस्त को भी सरेआम पेड़ से लटका कर फांसी की सजा दे दी गई। लड़के-लड़की का जुर्म वही था- उन्होंने एक-दूसरे से प्रेम कर लिया था। और लड़के के दोस्त का यह कि उसने उन दोनों की मदद की थी।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">अफगानिस्तान के किसी इलाके की वह घटना हमारे देश के कुछ राजनीतिक वर्गों के लिए शायद इस लिहाज से मुफीद साबित हो सकती है कि इस बहाने वे किसी खास समुदाय की मजहबी रिवायतों पर सवाल उठा सकते हैं। लेकिन बीस-बाईस साल पहले मेहराना की घटना से लेकर आज भी हमारे महान भारत के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर आने वाली ‘ऑनर किलिंग’ की खबरें उन्हें विचलित नहीं करतीं। बल्कि कई बार इसे संस्कृति को बचाने की लड़ाई के रूप</div><div style="text-align: left;">में भी पेश किया जाता है।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">अव्वल तो मैं ‘सम्मान बचाने के लिए मौत’ की एक फर्जी, बेईमान और बर्बर अवधारणा से जन्मे जुमले 'ऑनर किलिंग' का विरोध करती हूं और इसकी जगह पर पर किसी ऐसे शब्द या शब्द समूह का इस्तेमाल शुरू करने की गुजारिश करती हूं जो इस त्रासदी को सही संदर्भों में समझने में मदद करे। तब तक मैं अपनी ओर से इसे ‘झूठी इज्जत के नाम पर हत्या’ और किसी भी रूप में इसका विरोध नहीं करने वालों को हत्यारों का अलंबरदार कहूंगी...।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">प्रेम जैसे सहज, प्राकृतिक और अनिवार्य मानवीय व्यवहारों का गला घोंटने की जिन बर्बरताओं पर किसी व्यक्ति या समाज को शर्म से डूब मरना चाहिए, उसे अंजाम देने के बाद अगर कोई बाप गर्व से यह कहता है कि बेटी की वजह से उसकी इज्जत जा रही थी, इसलिए उसने बेटी को मार डाला और उसे समाज के एक बड़े हिस्से का चुप्पा समर्थन मिलता है तो जरूर हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो दिखने में तो सभ्य इंसानों का लगता है, मगर असल में आज भी उसी कबीलाई दौर में जी रहा है जिसमें सोचने-समझने की क्षमता का विकास नहीं हुआ है।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">सबसे आधुनिक कंप्यूटरों या मोबाइल फोनों पर उंगलियों से खेलने वाले इस समाज के अच्छे ब्रांडेड कपड़े पहनने वाले, टीवी-फ्रिज या सबसे महंगी कारों के बेहतरीन उपभोक्ताओं के लिए शायद यह एक सख्त टिप्पणी है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इक्कीसवीं सदी का आसमानी सफर करते हुए हमारे समाज में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो देश में मौजूदा तथाकथित विकास के चेहरे लगते हैं, लेकिन दिमागी तौर पर हजार साल पिछड़े हैं? सूट-बूट और टाई पहने किसी जेंटलमैन के बारे में अगर यह खबर आती है कि उसने अपनी बेटी या बहन की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसने किसी लड़के को पसंद कर लिया था, तो यह हमें किस सदी की तस्वीर लगती है? </div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZJH1LlqTw4Xe2lsrqIxwdtU_WC4BkpeCJ2kP_Y4_20PZ1Ii9-7355SYe83r73HZe7y91jzfwMpxR1QxOjcjSttu5HQS9wGyjYtfymvNyKXekS43Mq1srHq0kgmDsY7fdpOZySkQWpVjg/s1600/Khap-Screen.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZJH1LlqTw4Xe2lsrqIxwdtU_WC4BkpeCJ2kP_Y4_20PZ1Ii9-7355SYe83r73HZe7y91jzfwMpxR1QxOjcjSttu5HQS9wGyjYtfymvNyKXekS43Mq1srHq0kgmDsY7fdpOZySkQWpVjg/s320/Khap-Screen.jpg" width="277" /></a></div><div style="text-align: left;"><br />
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</div><div style="text-align: left;">अपने घर की किसी लड़की के किसी से प्रेम कर लेने से जिनकी इज्जत लुटने लगती है, दरअसल वे वही लोग हैं जिनकी निगाह में अपने घर की चहारदीवारी के भीतर कैद औरतें तो इज्जत हैं, लेकिन दुनिया की बाकी तमाम औरतें खेलने के लिए महज एक शरीर। यह अलग बात है कि अपने घर की औरतें या बच्चियां जब तक उनकी गुलाम हैं, तभी तक उन्हें इज्जत के रूप में देखा जाएगा। और अगर उसने सिर उठा कर देखने की जुर्रत की, तो बहुत मेहरबानी की जाएगी तो उसे समाज-बाहर कर दिया जाएगा या फिर काट डाला जाएगा।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">हमारे स्कूल की इतिहास की किताबों में कभी पढ़ाया गया था कि विदेशी हमलावरों से लड़ने के लिए जब किसी राजा के सभी सैनिक मोर्चे पर चले जाते थे और जब लड़ाई हार जाने की खबर आती थी तो राजमहल में मोर्चे पर गए सभी सैनिकों और सेनापतियों की पत्नियां एक साथ जौहर का व्रत ले लेती थीं। यानी अग्निकुंड में सामूहिक आत्मदाह...। इसी तरह, सती होने को एक कुप्रथा के रूप में पढ़ाए जाने के बावजूद उसका संदेश यही निकलता था कि सती होने वाली औरते बहुत महान होती थीं, और बाद में उनके नाम का मंदिर बना दिया जाता था। आज भी कई जगहों पर सती मंदिर देखने को मिल जाएंंगे। तब मेरे बच्चा दिमाग में जौहर व्रत लेने वाली या सती हो जाने वाली स्त्रियों को लेकर बड़ी श्रद्धा उमड़ पड़ती थी। लेकिन आज सोचती हूं तो लगता है कि सती प्रथा के पीछे भले संपत्ति हथियाने की मंशा भी रही हो, लेकिन सती और जौहर व्रत के पीछे निश्चित तौर पर दैहिक पवित्रता की ग्रंथि भी स्त्रियों के साथ-साथ समाज के दिमाग पर हावी रही होगा। और इस लिहाज से सती या जौहर व्रत अगर इज्जत बचाने के लिए हत्या नहीं, तो इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या जरूर थी और उसका सिरा भी अलग व्याख्या के साथ तथाकथित आॅनर किलिंग से जुड़ता है। </div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">सवाल है कि ये इज्जत है क्या और इस तथाकथित इज्जत की यह परिभाषा किसने गढ़ी है...? किसने एक औरत को घर या जमीन की तरह एक जायदाद में तब्दील कर दिया और किसने उसकी अस्मिता के सारे सवालों को खारिज करके उसकी इज्जत को उसके देह का दूसरा नाम बना दिया?</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">दरअसल, स्त्री को गुलाम बनाए रख कर ही समाज के सामंती चरित्र को बचाए रखा जा सकता है। इसका विस्तार करें तो स्त्रियों के साथ सामाजिक वर्णक्रम में निचले पायदान पर गिनी जाने वाली जातियों को भी इस चक्र में शामिल किया जा सकता है। यानी स्त्रियों और समाज के अधिकांश हिस्से को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले ब्राह्मणवादी सूत्रों ने ऐसा सामाजिक मनोविज्ञान रच दिया है कि उसमें गुलामी और त्रासदी झेलते हुए शोषित और पीड़ित वर्गों को पता भी नहीं चल पाता कि इस व्यवस्था ने कब और कैसे उसके स्वत्व का हरण कर लिया। </div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">अगर किसी लड़की ने अपने गोत्र के किसी लड़के को पसंद कर लिया तो वह अपराधी... अगर किसी अपनी जाति से बाहर और खासतौर पर किसी निचली कही जाने वाली जाति के लड़के को पसंद कर लिया तो अपराधी... और सच कहें तो यह कि अगर उसने अपने भीतर उमड़ रही भावनाओं की हत्या नहीं की तो अपराधी...।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">यह कैसा समाज है जिसमें प्रेम कर लेने को इज्जत दांव पर लगाने का अपराध समझा जाता है? </div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">वे कौन-से कारण हैं कि इस समाज की इज्जत तभी जाती है जब कोई लड़की अपने साथी के रूप में जिसको पसंद करने लगती है वह संयोग से निचली कही जाने वाली जाति से आता है।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">यहां हमारे इस महान सामाजिक संरचना को खतरा दरअसल दोहरा है। पहला, अपनी मर्जी की राह पर चल पड़ना और दूसरा सामाजिक श्रेष्ठता की तथाकथित पवित्रता को भंग करने की कोशिश- दोनों से ही समाज के मौजूदा सामंती ढांचे की नींव खोखली होती है। इसलिए सामाजिक सत्ताधीशों ने समाज के इस चेहरे को बचाने के लिए ऐसे-ऐसे फार्मूले गढ़े कि इसके निशाने पर रखे गए वर्गों को भी पता नहीं चला। अब बताइए जरा कि पति की मौत के बाद उसके साथ सती हो जाने वाली स्त्री के दिमाग पर महान होने का कौन-सा मनोविज्ञान और कैसे हावी हो जाता रहा होगा कि जिंदा जल जाने का वीभत्स फैसला और उस पर अमल से ही उसे ‘शांति’ मिलती होगी?</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">दरअसल, स्त्री का किसी भी रूप में स्वतंत्र होना सामाजिक सत्ताधीशों के लिए सबसे बड़े खतरे का सूचक रहा है। इसलिए उसे काबू में रखने के मकसद से जो सामाजिक हथियार तैयार किए गए, वे सभी पहलुओं से स्त्री की अस्मिता का बार-बार दमन करते हैं। इन हथियारों में एक ओर जहां पैदा होने के बाद शुरू से ही शासित और शोषित के रूप में उसे ढालने के लिए तय किए गए तमाम पारिवारिक-सामाजिक व्यवहार हैं तो दूसरी ओर मजाक में या फिर अपमानित करने के लिए दी जाने वाली गालियों से लेकर घर की चहारदीवारी के बाहर हल्की-फुल्की फब्तियां कसने या छेड़छाड़ से लेकर यौन-उत्पीड़न या बलात्कार तक के बर्बर हथियार हैं, जिनकी मार्फत उसे ‘औकात’ में रखा जाता है। और अगर ये नुस्खे किन्हीं हालात में बेअसर रहे और किसी लड़की ने सपने देखने की हिम्मत कर ही ली तो कभी खुद बाप या फिर कभी जाति या समाज अपनी पंचायत बिठा कर उसे सैंकड़ों-हजारों की भीड़ के सामने सूली पर लटका देगा, ताकि बाकी बची हुई लड़कियां इससे सबक ले सकें।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">और अब तो विज्ञान ने इससे भी आसान और कारगर औजार समाज के हाथों में दे दिया है। मामूली-सी रकम खर्च करो, गर्भ में भ्रूण के लिंग की जांच कराओ और बेटी हो तो मार डालो...। न रहेगा बांस, न बसेगी बांसुरी...। </div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">साथियो, यह वही दौर है, जब दुनिया के किसी भी कोने में बैठ कर किसी छोटी-सी मशीन के जरिए दूसरे कोने की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सकती है। इसे हम मानव समाज के लगातार विकास का नतीजा भी कहते हैं। लेकिन वे कौन-सी वजहें हैं कि हमारे समाज के एक बड़े हिस्से ने विकास के अति आधुनिक संसाधनों को तो अपनी जिंदगी का एक आम हिस्सा बना लिया है, लेकिन सामाजिक बर्ताव के पैमाने पर वह उन्हीं सड़ांधों को जीना चाहता है, जिसे हजारों साल पहले एक बेहद सोची-समझी साजिश के तहत व्यवस्था में घोल दिया गया?</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">वह सरकारी स्कूलों के लिए पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धतियों का इस्तेमाल कर तैयार किए गए पाठ्यक्रम हों या बहुत पैसे खर्च कर किसी बहुत अच्छे प्राइवेट स्कूल की पढ़ाई, हमारे बच्चों के दिमाग से एक छोटी-सी चीज जाति को नहीं निकाल पाती, एक स्त्री को भी व्यक्ति समझने की मानसिकता पैदा नहीं कर पाती। क्या यह केवल पढ़ाई-लिखाई की विफलता है?</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">चांद को छूने के लिए बेताब हमारे देश की धरती की सड़कें बहुत चिकनी होती जा रही हैं। बहुत ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें दिखाई देने लगी हैं। हमारे घर सभी आधुनिक साजो-सामान से सजने लगे हैं। हमारे घर के दरवाजे पर सबसे महंगी कार खड़ी दिख सकती है। क्लबों या पबों की देर रात की पार्टिंयों में नशे में झूमने को हमने मॉडर्न होना मान लिया है। लेकिन प्रेम करने के बदले किसी लड़की की हत्या कर दी जाती है तो हम समाज को बचाने का झंडा थाम कर लहराने लगते हैं। </div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">देश पर राज करने वालों को सिर्फ इस बात से मतलब है कि समाज का मौजूदा जड़ ढांचा बना रहेगा, तभी तक उनका राज कायम रहेगा। इसलिए अगर उनका बस चले तो शायद वे प्रेम करने के खिलाफ कानून बना दें, लेकिन झूठी इज्जत बचाने के पाखंड में किसी प्रेम करने वाले लड़की-लड़के की हत्या के खिलाफ कोई सख्त कानून बनाना उसे जरूरी नहीं लग रहा। वे कौन-सी वजहें हैं कि आठ या दस फीसदी विकास दर का हवाला देकर हमारी सरकार हमें दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत होने का सपना दिखा रही है, लेकिन सामाजिक विकास या बदलाव के लिए कोई भी नीति उसे जरूरी नहीं लग रही? देखिए, कि हमारे इस महान लोकतंत्र में कोई हत्यारा समाज राज करने वालों को कैसे ब्लैकमेल करता है। क्या सरकारों से यह कहा जा रहा है कि तुम हमें इज्जत बचाने के नाम पर हत्याएं करने की छूट दो, हम तुम्हें वोट देंगे...। और क्या सरकारें वोट लेने के लिए सचमुच इस जंगली और कबीलाई परंपरा को निबाहने की छूट देती रहेगी?</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">जो लोग गोत्र के भीतर शादी करने के एवज बेटियों या उनके प्रेमियों की हत्या कर देते हैं, वही लोग जाति को लेकर इतने जड़ और तालिबानी चेहरे साथ इतने कट्टर हैं कि जाति से बाहर, खास तौर पर किसी निचली कही जाने वाली जाति के लड़के से प्रेम करने पर भी बेटी-बहन या उसके प्रेमी को मार डालने से नहीं हिचकते।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">यानी गोत्र के बाहर शादी करना बाध्यकारी नियम है, लेकिन जाति से बाहर जाने की छूट नहीं। गोत्र के भीतर शादी करने से पवित्रता भंग होती है और जाति के भीतर करने से बची रहती है। वे कहते हैं कि गोत्र के बाहर शादी करने से आगे की पीढ़ी का नस्ल अच्छा होता है- हर लिहाज से...। यही तर्क वे जाति या धर्म से बाहर शादी करने के मामले में क्यों नहीं मानते। अगर गोत्र के भीतर शादी करने से वंश खराब होता है तो जाति या धर्म के भीतर करने से वह कैसे अच्छा होता है? अगर वे विज्ञान का तर्क लाते हैं, तब तो वह गोत्र के साथ-साथ जाति और धर्म- सभी पर लागू होगा न...!</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">इस सामाजिक साजिश को समझिए दोस्तो... इसकी परतें उघाड़ना और समाज को इंसानी चेहरा देना हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए...।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">यह उनके तर्क का ही विस्तार है कि जाति, गोत्र या धर्म के दायरे दरअसल एक सामाजिक फ्रॉड हैं और कुछ खास वर्गों ने इसे अपनी सामाजिक सत्ता को बरकरार रखने का हथियार बनाया हुआ है। स्त्री और समाज के वंचित वर्गों की सामाजिक हैसियत शासित और शोषित की बनी रहे, इसी से पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था बनी रहेगी। इसलिए वे समाज से लेकर राजनीतिक सत्ताओं और शासन के हर पहलू को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">लेकिन हवा किसके रोके रुकी है? दरवाजे और खिड़कियां बंद कर अगर कुछ लोग यह सोच रहे हैं कि वे हवा का रास्ता रोक देंगे, तो इस पर सिर्फ तरस खाया जा सकता है। किसी एक मनोज और बबली को मार कर अगर वे सोचते हैं कि वे बाकी को इस रास्ते सबक दे रहे हैं तो उन कुंए के मेंढ़कों को यह नहीं पता कि रोज न जाने कितने मनोज और बबली उनको मुंह चिढ़ाते हुए अपनी राह बढ़े चले जा रहे हैं। इज्जत बचाने के नाम पर की जाने वाली हत्याओं जैसे जंगली और कबीलाई परंपरा निबाहने वालों के बरक्स एक नई फौज तैयार हो रही है, चुपचाप एक समाज बन रहा है। उस नई दुनिया में जोखिम है, संघर्ष है, लेकिन उम्मीद की सुबह भी वहीं है।</div><div style="text-align: left;"><br />
</div><div style="text-align: left;">स्वार्थी सरकारों और सामंती सामाजिक सत्ताधीशों की तमाम तलवारबाजियों के बावजूद बांसुरी का वह सुर न कभी थमा है, न थमेगा। सोचने की जरूरत सबसे ज्यादा हम स्त्रियों को है। या तो हम इस समाज की खोखली इज्जत के लिए खुद को कुर्बान करती रहें, या फिर अपनी अस्मिता के लिए उन रास्तों की ओर रुख करें जहां सचमुच हमारी गरिमा और आजादी हमारा इंतजार कर रही है...।</div></div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-57161970271275400282011-04-15T05:22:00.000-07:002011-04-15T05:22:58.215-07:00ये हक को रहम में बदलने वाले एनजीओ...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<b style="background-color: red;"><span style="font-size: large;">अपना अपना समाज</span></b><br />
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<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjByyaP1HIEYDBF9T4DivBiDzdGxZ7L4JX3fMv7bnHhP8Bn6LIJ2Ty94pT_PtIEAgHWl1Tp52-tpNCICWsPMbfE0QDnHQWEFtXQrqxLoeiEAfAq-2QgAsqvyfUCI_c9qV2ejhSbLecs_hQ/s1600/Khap.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="218" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjByyaP1HIEYDBF9T4DivBiDzdGxZ7L4JX3fMv7bnHhP8Bn6LIJ2Ty94pT_PtIEAgHWl1Tp52-tpNCICWsPMbfE0QDnHQWEFtXQrqxLoeiEAfAq-2QgAsqvyfUCI_c9qV2ejhSbLecs_hQ/s320/Khap.jpg" width="320" /></a></div><br />
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<span style="background-color: red;">कुछ</span> समय पहले टीवी पर साक्षात्कार के दौरान हरियाणा के मुख्यमंत्री को यह कहते सुना कि खाप पंचायतें कुछ भी गलत नहीं कर रही हैं और वे दरअसल किसी एनजीओ या गैरसरकारी संगठन की तरह काम करती हैं। जब उनसे इन पंचायतों के कानून हाथ में लेने की घटनाओं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मीडिया बिना जाने-समझे खाप और गांवों की पंचायतों को गलत तरीके से पेश करता है। मैं किसी राज्य के मुख्यमंत्री के मुंह से खाप पंचायतों की ऐसी वकालत से हैरान थी। इंतजार किया कि खुद को प्रगतिशील घोषित करने वाले गैरसरकारी संगठन अपनी तुलना खाप पंचायतों से किए जाने पर कोई प्रतिक्रिया देंगे। लेकिन किसी भी एनजीओ को इसमें आपत्तिजनक शायद कुछ नहीं दिखा।<br />
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इस साक्षात्कार के दो-तीन दिन बाद जब एक एनजीओ की ओर से स्त्री अधिकारों पर आयोजित विचार-गोष्ठी में थी तो बात जरा खुल कर सामने आई। उसमें झारखंड से आई और उसी एनजीओ से जुड़ी एक कार्यकर्ता ने माइक हाथ में लेकर कहा कि मुझे विश्वास है कि मैं सबसे अच्छा बोलूंगी। मुझे उसका यह भरोसा बड़ा अच्छा लगा। उसने बताया कि कुछ समय पहले हमारे एनजीओ ने बलात्कार पीड़ित एक लड़की की बहुत मदद की और लंबी लड़ाई लड़ कर उसकी शादी उसी पुरुष से कराई जिसने उसके साथ बलात्कार किया था। वह कार्यकर्ता गर्व से बता रही थी कि किस तरह उसने पीड़ित लड़की को नया जीवन दिया। मैं उसकी बातें सुन कर स्तब्ध थी। उस सेमिनार में ज्यादातर वक्ताओं ने कहा कि गृहणियां परिवार की रीढ़ हैं और परिवार बचाने के लिए गृहणियों के काम को महत्त्व देना जरूरी है। घरेलू महिलाओं के अधिकारों का मैं सम्मान करती हूं और उनके काम का महत्त्व मुझे समझ में आता है। लेकिन मैंने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसके बावजूद क्या हमें इस परंपरागत मानसिकता या ‘कंडीशनिंग’ से उपजी जड़ता को तोड़ने की जरूरत नहीं है जिसके तहत एक लड़की ही गृहिणी बनने का विकल्प चुनती है? क्या हमारे समाज को इस बात का डर सताता है कि घर के दायरे से जब ये महिलाएं निकलती हैं तो पंचायत से लेकर संसद तक में हिस्सेदारी मांगने लगती हैं और देनी पड़ती है?<br />
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<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSmUDck1h7VouyX3FZXM42lwF-Lx4BLc9Oe_i9ckwTNH2ts6BEGV250Qie8-nGC4LAPXvJKa5-7v4vR5osOBIJiD_EX1kAy0i97pFbTdl58KUtKTQywuvdSFSee8D3cLMjzEIdgXpUI9g/s1600/Logo.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="301" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSmUDck1h7VouyX3FZXM42lwF-Lx4BLc9Oe_i9ckwTNH2ts6BEGV250Qie8-nGC4LAPXvJKa5-7v4vR5osOBIJiD_EX1kAy0i97pFbTdl58KUtKTQywuvdSFSee8D3cLMjzEIdgXpUI9g/s320/Logo.jpg" width="320" /></a></div><br />
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बहरहाल, यह देखा जा सकता है कि आज भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में गैरसरकारी संगठन किस तरह एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो चुके हैं। लोककल्याण के जो दायित्व हमारी सरकारों के थे, अमूमन उन सबको अब ऐसे संगठनों के हाथों में सौंपा जा रहा है। ये एनजीओ ‘नए भारत’ का निर्माण कर रहे हैं। एक ओर हरियाणा के मुख्यमंत्री कहते हैं कि खाप पंचायतें एनजीओ की तरह काम कर रही हैं, दूसरी ओर एनजीओ कार्यकर्ता बलात्कार की शिकार एक लड़की की शादी उसी के बलात्कारी से करवाती है। इसे कैसे देखा जाए? क्या हम खापों के कार्यकलाप या नागरिकों के अधिकारों को एनजीओ की मार्फत रहम के रूप में बदलते जाने से अनजान हैं? क्या यह अलग-अलग मोर्चे पर ‘दीवारों’ को मजबूत करने की साजिश है, ताकि व्यवस्था अपने मूल रूप में बनी रहे?<br />
<br />
मैं देश में गैरसरकारी संगठनों की भूमिका से इनकार नहीं करती। इनके बीच के कुछ लोगों की लड़ाई की बदौलत ही हमें सूचना का अधिकार कानून जैसा हथियार मिला है। लेकिन इससे उपजी व्यापक उम्मीदों का जमीन पर उतरना अभी बाकी है। फिलहाल इसके फायदे समाज के पढ़े-लिखे, जागरूक और सभ्य माने जाने वाले मध्य या उच्च मध्यवर्ग के बीच ही सिमटे हैं। अस्पताल से भगाए जाने के बाद किसी गरीब महिला को मजबूरन सड़क पर बच्चे को जन्म देना पड़ता है; किसी दलित लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है या उसके हाथ-पांव काट दिए जाते हैं या कहीं जिंदा जला दिया जाता है; कहीं एक विधायक के शोषण से मुक्ति पाने के लिए एक औरत को उसकी हत्या करनी पड़ती है या फिर अपनी मर्जी से अपना साथी चुनने वाली निरूपमा पाठक जिंदा रहने का हक खो बैठती है...! क्या इन हकीकतों को जानने के लिए किसी आरटीआई की जरूरत है? अगर क्रिकेट का विश्वकप जीतना पूरे देश की जीत है तो हरियाणा के मिर्चपुर में वाल्मीकि परिवार की किसी सुमन को जिंदा जला दिया जाना देश के लिए शर्म क्यों नहीं है?<br />
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ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब कुछ वामपंथी दलों की भ्रष्टाचार के खिलाफ साझा रैली में ढाई-तीन लाख लोग दिल्ली पहुंचे थे। रामलीला मैदान से लेकर आईटीओ और जंतर-मंतर तक का नजारा सबके लिए आम था। लेकिन आईटीओ के पास एक टीवी का रिपोर्टर कैमरे पर चिल्ला-चिल्ला कर बता रहा था कि इस रैली की वजह से हुए जाम के चलते आम लोग बेहद परेशान हैं। रैली में शामिल एक महिला ने तड़प कर उस पत्रकार से कहा कि क्या हम लोग तुम्हें आम नहीं दिखते! मैं अपने बच्चों के लिए दूध और दाल नहीं खरीद सकती। वह पत्रकार बड़ी विनम्रता से ‘सॉरी’ कह कर आगे बढ़ गया, लेकिन उसकी बात सुनना उसे जरूरी नहीं लगा। उस रैली में किसी एनजीओ की भूमिका नहीं थी, लेकिन वे तमाम लोग भी भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ विरोध जताने आए थे।<br />
<br />
कुछ लोगों के ऐसे खयाल अच्छे लगते हैं कि ‘फेसबुक’ जैसी साइटें क्रांति की वाहक बनेंगी। इनकी भूमिका से इनकार नहीं। लेकिन सच यही है कि देश का खाता-पीता मध्य और उच्च वर्ग संचार की आधुनिक तकनीकों के जरिए अपने हितों के लिए संगठित हो रहा है। उसका असर भी साफ दिख रहा है। लेकिन इसमें समाज के वंचित तबकों के सवाल दबते या पीछे छूटते जा रहे हैं।<br />
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<div style="text-align: right;"><i>(15 अप्रैल को जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तंभ में प्रकाशित)</i></div></div></div></div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-5827734990056969081.post-16014347850015364422011-03-26T07:37:00.000-07:002011-03-26T07:37:41.918-07:00नुमाइंदगी का झुनझुना और व्यवस्था की साजिशें...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9_8IfU83U_X6L06QX7nv5PrJwSIlIEmQ4PLFZ_Ae5cLteSU89ucfF5ZUXDOv2d_wAetbuf-fEPEQVI3pJWV4T3DbU7xdR6nQXUyWeobmJz9dIxEW13xvHIWRNS0ydLqc6Uv9TbzrxV0Y/s1600/women.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh9_8IfU83U_X6L06QX7nv5PrJwSIlIEmQ4PLFZ_Ae5cLteSU89ucfF5ZUXDOv2d_wAetbuf-fEPEQVI3pJWV4T3DbU7xdR6nQXUyWeobmJz9dIxEW13xvHIWRNS0ydLqc6Uv9TbzrxV0Y/s320/women.jpg" width="320" /></a></div><br />
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<b style="background-color: red;">जिसे</b> मुख्यधारा की पत्रकारिता कहा जाता है, वह आज पूरी तरह बाजार पर निर्भर हो चुका है और खुले रूप में बाजार-व्यवस्था का पोषण करता है। वह इस पर बारीक निगाह रखता है कि समाज में जो चल रहा है, उसे कैसे उत्पाद के रूप में पेश किया जाए। वह हर चीज को बेचना जानता है। भावनाओं या संवेदनाओं को भी...। आग्रहों-पूर्वाग्रहों या दुराग्रहों को भी...। वह अगर किसी खास चीज को ज्यादा बेच सकता है तो उसे निशाने पर रखने के बावजूद अपने बीच जगह देता है। और जिसे वह अपने लिए घाटे का सौदा मानता है, उसे चुपचाप हाशिए पर फेंक देने में वह जरा भी हिचक नहीं दिखाता। मुनाफे और घाटे की इसी बेहतरीन सौदेबाजी की वजह से ही सही, पत्रकारिता में महिलाओं को जगह मिली। लेकिन जिस मौके को महिलाओं को अपनी वर्गीय अस्मिता को एक पहचान देने का जरिया बनाना था, वे वहां पहुंचने के बावजूद खुद व्यवस्था को बनाए रखने का जरिया बनी हुई हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि उनका इस्तेमाल व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हो रहा है। प्रिंट मीडिया में आज भी महिलाओं की गिनती इतनी नहीं है कि कम से कम के पैमाने पर भी संतोष किया जा सके। जहां वे हैं, उन्हें काम के तौर पर अमूमन वैसी जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं कि वे समाज में पारंपरिक या रिवायती स्त्री की आकांक्षाओं को तुष्ट करें। यह बेवजह नहीं है कि जितनी भी पत्र-पत्रिकाओं में 'पति को कैसे रिझाएं' 'सास को कैसे मनाएं' या 'रसोई की रानी कैसे बनें' या सजने-संवरने के तमाम बताने से संबंधित तमाम सामग्रियां जुटाने और परोसने की जिम्मेदारियां आम तौर महिला पत्रकारों के जिम्मे सौंपी जाती हैं। <br />
<br />
हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के फीचर पन्ने तो आज भी स्त्री सुबोधिनी के युग से आगे नहीं पहुंच पाए हैं। कई बार लगता है कि इस तरह की जिम्मेदारियों को संभालने वाली महिलाओं को पत्रकार भी कैसे कहा जाए। लेकिन संस्थान की कथित जरूरतें पूरी करती हुई इन महिलाओं से उनके हिस्से आई बहुत छोटी कामयाबी को भी यों ही कैसे खारिज कर दिया जाए। असल मुश्किल तो यह है कि ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं में संपादकीय नीतियों के बारे में फैसले लेने वाले पदों पर महिलाओं की पहुंच नहीं के बराबर है। हिंदी के साथ अंग्रेजी अखबारों-पत्रिकाओं को मिला दें तो भी संपादक के पद पर किसी महिला का नाम मुश्किल से मिलेगा। अखबारों-पत्रिकाओं में आमतौर पर मान लिया गया है कि रिपोर्टिंग का काम महिलाएं नहीं कर सकतीं। रिपोर्टिंग करती हुई इक्का-दुक्का महिलाओं का नाम सामने आता है। <br />
<br />
यह हालत खासतौर पर हिंदी और प्रिंट मीडिया में है। लेकिन अंग्रेजी को जो लोग प्रगतिशील भाषा मानते हैं, वे दरअसल प्रगति के पैमाने को अपनी नजर और सुविधा के अनुकूल पाकर ही उसकी वकालत करते हैं। वरना वहां भी आधुनिकता के पर्दे में लिपटा परंपरावाद अपने प्रच्छन्न रूप में काम करता रहता है। अंग्रेजी अखबारों में दिल्ली टाइम्स या एचटी सिटी में पार्टी मेकअप और घर को सजाने के तरीके बताने के काम में महिलाओं को माहिर मान कर उन्हें ही इस 'प्रो-वीमेन' पन्नों को संभालने के लिए लगा दिया जाता है। फीचर पन्नों पर या टीवी कार्यक्रमों में ज्यादतर महिलाएं होने के बावजूद अगर ये पन्ने लैंगिक और जातीय स्तर पर सामाजिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने में ही मददगार साबित हो रही हैं तो इसके कारण ढूढ़ने की जरूरत है। क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि समाज पर नियंत्रण बनाए रखने वाली ताकतें अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए बेहद लचीला रुख अख्तियार करते हुए तो दिखती हैं, लेकिन नतीजे के तौर पर फिर-फिर वही आता है कि उनके उस तथाकथित लचीलेपन की वजह से आखिरकार उनकी ही सत्ता बची रहती है। स्त्रियां और समाज की निचली जातियों के प्रति उनका यह लचीलापन तभी दिखता है जब व्यवस्था पर अलग-अलग कोणों से सवाल उठाए जाने लगते हैं।<br />
<br />
दूसरी ओर टीवी मीडिया में बाजार ने अपनी जरूरतों के हिसाब से महिलाओं को जगह दी है। हालांकि फैसले लेने के मामले में उनके दखल के हालात वहां भी बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन वहां की मुश्किल अलग है। कई बार कहा जाता है कि किसी क्षेत्र में महिलाओं की नुमाइंदगी बढ़ेगी तो कामकाज के तौर-तरीके भी खुद-ब-खुद बदल जाएंगे। मगर टीवी चैनलों में तो अच्छी तादाद में महिलाओं की पहुंच हुई है। वहां स्त्री अस्मिता के सवालों को लेकर कोई जद्दोजहद क्यों नहीं दिखाई देती? असली मामला चेतना का है, जागरूकता का है। बहुत आधुनिक दिखाई देना और आधुनिक होना- दोनों दो बातें हैं। अगर किसी स्त्री की कंडीशनिंग उसी तरह हुई है जिससे व्यवस्था के बने रहने में मदद मिलती है तो उसके काम से स्त्रियों का कुछ भला होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। <br />
<br />
अपनी अस्मिता के प्रति सचेत कोई भी व्यक्ति अपनी वर्गीय अस्मिता की लड़ाई की धार को और तीखा करेगा। मगर हम पहले से समाज के तौर पर इतना ज्यादा खंडित जीवन जी रहे होते हैं कि वर्गीय लड़ाई की यह व्यापक अवधारणा बहुत छोटे-छोटे छुद्र स्वार्थों के बोझ तले दब कर दम तोड़ देती है। हमारे ज्यादातर काम पर हमारे सामाजिक या यों कहें कि जातीय या आर्थिक वर्ग हावी रहते हैं। ऐसे पूर्वाग्रहों के रहते स्त्री अस्मिता के जरूरी सवालों पर बात करने की गुंजाइश कहां रह जाती है? जाहिर है, यह उसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का न सिर्फ निर्वाह है, बल्कि एक तरह से उसका पोषण भी है जिसमें एक बड़े सामाजिक वर्ग के साथ-साथ स्त्रियों को भी वंचित और परनिर्भर के रूप में ही 'अच्छा' होने का तमगा मिलता है। <br />
<br />
एक समाचार एजेंसी एपी से जारी एक खबर के मुताबिक इंग्लैंड में हुए एक सर्वे में पाया गया कि आधुनिक महिलाएं चाहती हैं कि पति परिवार चलाने के लिए कमाए। खबर कहता है कि ब्रिटेन की ज्यादातर आधुनिक महिलाएं पारंपरिक मूल्यों की ओर लौटना चाहती हैं, जिसके तहत पुरुष परिवार के भरण-पोषण के लिए कमाता था और महिलाएं 'घर और परिवार' की देखभाल करती थीं। इसी तरह चार साल से कम उम्र के बच्चों वाली महिलाओं के वार्षिक ब्रिटिश सोशल एटीट्यूड सर्वे के अनुसार सत्रह फीसदी माताएं चाहती हैं कि पुरुषों और महिलाओं की अलग-अलग भूमिका होनी चाहिए। वर्ष 2002 में किए गए पिछले सर्वेक्षण की तुलना में यह दो फीसदी अधिक है। सर्वेक्षण में पूछे गए सवालों के जवाबों का विश्लेषण करने वाले समाज विज्ञानी ज्योफ डेंच ने कहा- 'बच्चों वाली महिलाएं पारंपरिक श्रम विभाजन की ओर लौट रही हैं, जिसमें वे चाहती हैं कि पति परिवार के लिए रोजी-रोटी का जुगाड़ करे।' सर्वेक्षण के मुताबिक अगर महिलाएं पूरे समय काम करती रहीं तो पारिवारिक जीवन प्रभावित होगा- ऐसा सोचने वाली माताओं की संख्या बढ़ कर सैंतीस फीसदी हो गई। 'डेली मेल' में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक घर और बच्चे की चाहत रखने वाली महिलाओं की संख्या 2002 की तुलना में दोगुनी से अधिक बढ़ कर बत्तीस फीसदी हो गई है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि सर्वाधिक खुशहाल होने की बात करने वाली वे महिलाएं थीं, जो ऐसी घरेलू महिला की भूमिका में थीं और जो थोड़ा-बहुत पैसा भी कमा लेती हैं। <br />
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सवाल है कि ऐसे सर्वेक्षण और उसका प्रकाशन क्या साबित करते हैं। क्या इससे यह नहीं साफ होता है कि व्यवस्था खुद को बनाए रखने के लिए एक साथ कई स्तरों पर काम करती है। कितनी सदियों की जद्दोजहद के बाद महिलाएं अपनी ताकत से जगह हासिल कर रही हैं। ऐसे सर्वेक्षणों के जरिए क्या यह साबित करने की कोशिश नहीं की जा रही है कि स्त्रियां खुद ही मर्दों को मुख्य भूमिका में रखना चाहती हैं और अपनी जिम्मेदारी का दायरा घर की चारदीवारियों को मानती है? हालांकि इससे एक संकेत यह भी मिलता है कि महिलाओं के बढ़ते दखल से व्यवस्था डरी हुई है और ऐसे सर्वेक्षणों के शिगूफे छोड़ कर स्त्री समाज के मनोबल को गिराने की कोशिश कर रही है। ऐसे सर्वेक्षणों और उनके नतीजों को आज की महिलाओं को सचेत तौर पर खारिज करना होगा, क्योंकि ये दरअसल उसी पितृसत्ता की साजिशों का नतीजा हैं जिसकी शिकार वे आज तक रही हैं। <br />
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कुछ समय पहले एक अखबार में एक खबर छपी थी जिसके मुताबिक डॉक्टर महिलाओं को स्वस्थ रहने के लिए दिन के हिसाब से व्रत-उपवास रखने की सलाह देते हैं। क्या खबर देने वाले पत्रकार की यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह इस मामले पर आलोचनात्मक तरीके से काम करता कि स्वस्थ रहने के लिए भूखे रहना कितना फायदेमंद या नुकसानदेह है, फिर एक डॉक्टर द्वारा भूखे रहने के लिए व्रत-उपवास का सहारा लेने की सलाह देना कितना सही है? व्रत-उपवास रखने के 'वैज्ञानिक' कारण और उसके फायदे बताने वाले आम लोग भले इन 'तर्कों' की 'वैज्ञानिकता' से प्रभावित होते हैं, लेकिन एक पत्रकार भी अगर उसी माइंडसेट से इसे खबर के रूप में परोसता है, तो असल में वह उन्हीं लोगों की ताकत बनता है या उसमें शामिल होता है, व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नित नई-नई साजिशें रचते रहते हैं। इसके पीछे केवल आर्थिक मुनाफा नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक कारण छिपे हैं कि आज करवा चौथ जैसे शुद्ध जड़वादी त्योहार टीवी या प्रिंट मीडिया के लिए एक प्रिय 'मौका' हो गए हैं।<br />
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आज कल कथित शोधों के हवाले से बड़े पैमाने पर ऐसी खबरें परोसी जा रही हैं जिनमें बताया जाता है कि गोत्र से बाहर शादी करने से उन्नत नस्ल की संतान प्राप्त होती है। लेकिन ऐसे शोध खोजने से भी नहीं मिलते जिसमें यह कहा गया हो कि जाति, मजहब या दूसरे नस्ल के व्यक्ति से शादी करने से भी जो संतान प्राप्त होगी वह मौजूदा नस्ल से ज्यादा उन्नत होगी। दहेज हत्या और दूसरे तमाम घरेलू हिंसा कानूनों के खिलाफ छपी सामग्रियों पर एक शोध-पत्र तैयार हो सकता है। ऐसी खबरें कहां से और किन मानसिकता से तैयार हो रही हैं? जाहिर है, व्यवस्था खुद को कायम रखने के लिए इस तरह की खबरें प्रायोजित करतीहै और मीडिया में बैठे उनके नुमाइंदे उनके लिए हथियार के तौर पर काम करते हैं।<br />
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लेकिन कई बार लगता है कि ऐसा सब कुछ साजिशन भी किया जाता है। किसी स्त्री के साथ बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग करते समय बिना किसी हिचक के 'इज्जत लूट लेने' या 'दुष्कर्म करने' जैसे शब्दों का इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जाता है। अगर किसी स्त्री को बच्चा नहीं हुआ तो उसे 'बांझ' कहते हुए किसी की जुबान नहीं लड़खड़ाती। सवाल है कि क्या यह सिर्फ शब्दों का लापरवाह इस्तेमाल भर है? मेरे खयाल से एक पत्रकार का कोई काम समाज को किसी न किसी रूप में शिक्षित करता है। लेकिन हो यह रहा है कि एक तरफ वह स्त्री के खिलाफ किए गए सबसे वीभत्स अपराध के लिए 'दुष्कर्म' जैसे शब्द का साजिशन इस्तेमाल करता है और बलात्कार शब्द के दंश को हल्का करता है तो दूसरी ओर वह इसी अपराध के लिए व्यवस्था का प्रिय रहा जुमला 'इज्जत लूट लिया' जैसे शब्दों से अपनी खबर सजाता है। यानी दोनों स्तरों पर भुक्तभोगी स्त्री ही आखिरकार निशाने पर है।<br />
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हाल ही में दिल्ली मेट्रो ट्रेन में महिलाओं के लिए अलग एक डिब्बा आरक्षित होने पर अखबारों और टीवी में हैरतअंगेज रिपोर्टिंग दिखाई पड़ी। कई रिपोर्टरों ने इसे बाकायदा पुरुषों पर अत्याचार के रूप में पेश किया और इस सुविधा को महिलाओं के समानता का अधिकार मांगने के खिलाफ बताया। दो ही बातें हैं। या तो ऐसी रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार, वे पुरुष हों या महिला, पूरी तरह पुरुष कुंठा और दुराग्रहों से भरे हुए हैं या फिर उनका दिमागी विकास अभी बाकी है। वे निश्चित तौर पर किसी मसले को उसके असली और व्यापक संदर्भों के साथ देखने के मामले में अक्षम हैं। हैरानी होती है कि लगभग सभी जगहों पर असुरक्षित स्त्री के लिए अलग डिब्बा आरक्षित करने को उनके समानता के अधिकारों की मांग के खिलाफ बताने वाले लोग कैसे खुद को एक पत्रकार कहते हैं। खुद को बाकियों से श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में पेश करने वाला कोई भी व्यक्ति अगर किसी मसले का ईमानदारी से विश्लेषण नहीं कर सकता तो उसकी क्षमता पर सवाल उठाया जाना चाहिए।</div>वल्लरीhttp://www.blogger.com/profile/15177148431066670204noreply@blogger.com0