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Wednesday, 20 April 2011

एक फर्जी इज्जत के नाम पर.....



एक दूसरे मामले के बहाने ही सही, अच्छा हुआ सुप्रीम कोर्ट ने खापों के कार्यकलाप पर अपनी राय साफ कर दी। दरअसल, हमने देश के स्तर पर तो एक लोकतंत्र को चुन लिया, लेकिन अक्सर इसके भीतर अलग-अलग समाजों के नियम-कायदे के हिसाब से चलना-जीना चाहते हैं। खाप जो भी कहते-करते हैं, उसकी जड़ें जहां से आती हैं, उस पर विचार करना जरूरी न समझ कर कई बार हमारे शासक भी उसे समाज के सेवकों के रूप में पेश करते हैं। लेकिन यहीं वे भूल जाते हैं कि उनका साथ एक जड़-व्यवस्था की जड़े और कितनी मजबूत कर देती हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि उनके इस तरह खयालों से देश या समाज की कितनी जगहंसाई होती है या हमारा समाज कहां ठहरा-पिछड़ा रह जाता है, कितना अमानवीय बना रह जाता है।





कुछ ही दिन पहले मैंने बीबीसी की हिंदी वेबसाइट पर एक वीडियो देखा। अफगानिस्तान के किसी गांव से बाहर ऊबड़-खाबड़ जगह पर हजार से ज्यादा लोग जमा थे। वहां खड़े तालिबान के दो नुमाइंदा मौलवी कुछ फरमान जैसा सुना रहे थे। उसके बाद कमर तक खोदे गए एक गड्ढे में बुर्के में ढकी एक स्त्री को दिखाया गया। कुछ ही पल में चारो ओर खड़े लोगों ने गड्ढे में खड़ी युवती पर पत्थर बरसाना शुरू कर दिया। वह चीखती-चिल्लाती बचने की कोशिश करती हुई गड्ढे से बाहर निकलने का जतन कर रही थी कि एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर लगा और वह गड्ढे में गिर गई। लोगों ने पत्थरों की बरसात जारी रखी और गड्ढे में गिरी चीखती-चिल्लाती वह युवती थोड़ी ही देर में खामोश होकर पत्थरों के नीचे दफन हो गई।

इसके बाद एक युवक लगभग घसीटते हुए बीच में लाया गया, जिसके हाथ पीछे बंधे थे। उसका भी हश्र उसी युवती जैसा ही हुआ और बख्श देने की गुहार लगाते हुए उस युवक को भी उसी तरह पत्थरों से मार-मार कर मार दिया गया।

इन दोनों का कसूर महज यह था कि उन्होंने एक दूसरे से प्रेम कर लिया था।

पिछले पांच-छह साल में पत्रकारिता करते हुए काफी उतार-चढ़ाव भरी और कई बार बेहद त्रासद खबरों से वास्ता पड़ा। खासतौर पर सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं का अध्ययन करते या रिपोर्टिंग करते हुए उनकी तहों में जाने की कोशिश जरूर की, लेकिन अफगानिस्तान के किसी इलाके की इस घटना के वीडियो ने पहली बार मुझे भीतर तक तोड़ दिया। हालांकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान या अपने ही इस महान देश के भीतर से भी अक्सर आने वाली अमूमन इसी प्रकृति की खबरों से सामना होता रहा था।

अफगानिस्तान में तालिबान के बर्बर बर्ताव का वीडियो देखते हुए कई साल पहले घर में पड़ी किसी पुरानी पत्रिका में लगभग बीस-बाईस साल पहले छपी एक रिपोर्ट का ध्यान आया। मुझे ठीक से याद तो नहीं है, लेकिन शायद वह हरियाणा या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मेहराना नाम का एक गांव था। वहां पंचायत के फैसले के बाद दस हजार लोगों की भीड़ के सामने एक लड़का-लड़की के साथ-साथ लड़के के एक दोस्त को भी सरेआम पेड़ से लटका कर फांसी की सजा दे दी गई। लड़के-लड़की का जुर्म वही था- उन्होंने एक-दूसरे से प्रेम कर लिया था। और लड़के के दोस्त का यह कि उसने उन दोनों की मदद की थी।

अफगानिस्तान के किसी इलाके की वह घटना हमारे देश के कुछ राजनीतिक वर्गों के लिए शायद इस लिहाज से मुफीद साबित हो सकती है कि इस बहाने वे किसी खास समुदाय की मजहबी रिवायतों पर सवाल उठा सकते हैं। लेकिन बीस-बाईस साल पहले मेहराना की घटना से लेकर आज भी हमारे महान भारत के अलग-अलग हिस्सों से अक्सर आने वाली ‘ऑनर किलिंग’ की खबरें उन्हें विचलित नहीं करतीं। बल्कि कई बार इसे संस्कृति को बचाने की लड़ाई के रूप
में भी पेश किया जाता है।

अव्वल तो मैं ‘सम्मान बचाने के लिए मौत’ की एक फर्जी, बेईमान और बर्बर अवधारणा से जन्मे जुमले 'ऑनर किलिंग' का विरोध करती हूं और इसकी जगह पर पर किसी ऐसे शब्द या शब्द समूह का इस्तेमाल शुरू करने की गुजारिश करती हूं जो इस त्रासदी को सही संदर्भों में समझने में मदद करे। तब तक मैं अपनी ओर से इसे ‘झूठी इज्जत के नाम पर हत्या’ और किसी भी रूप में इसका विरोध नहीं करने वालों को हत्यारों का अलंबरदार कहूंगी...।

प्रेम जैसे सहज, प्राकृतिक और अनिवार्य मानवीय व्यवहारों का गला घोंटने की जिन बर्बरताओं पर किसी व्यक्ति या समाज को शर्म से डूब मरना चाहिए, उसे अंजाम देने के बाद अगर कोई बाप गर्व से यह कहता है कि बेटी की वजह से उसकी इज्जत जा रही थी, इसलिए उसने बेटी को मार डाला और उसे समाज के एक बड़े हिस्से का चुप्पा समर्थन मिलता है तो जरूर हम एक ऐसे समाज में जी रहे हैं जो दिखने में तो सभ्य इंसानों का लगता है, मगर असल में आज भी उसी कबीलाई दौर में जी रहा है जिसमें सोचने-समझने की क्षमता का विकास नहीं हुआ है।

सबसे आधुनिक कंप्यूटरों या मोबाइल फोनों पर उंगलियों से खेलने वाले इस समाज के अच्छे ब्रांडेड कपड़े पहनने वाले, टीवी-फ्रिज या सबसे महंगी कारों के बेहतरीन उपभोक्ताओं के लिए शायद यह एक सख्त टिप्पणी है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इक्कीसवीं सदी का आसमानी सफर करते हुए हमारे समाज में आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो देश में मौजूदा तथाकथित विकास के चेहरे लगते हैं, लेकिन दिमागी तौर पर हजार साल पिछड़े हैं? सूट-बूट और टाई पहने किसी जेंटलमैन के बारे में अगर यह खबर आती है कि उसने अपनी बेटी या बहन की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उसने किसी लड़के को पसंद कर लिया था, तो यह हमें किस सदी की तस्वीर लगती है? 



अपने घर की किसी लड़की के किसी से प्रेम कर लेने से जिनकी इज्जत लुटने लगती है, दरअसल वे वही लोग हैं जिनकी निगाह में अपने घर की चहारदीवारी के भीतर कैद औरतें तो इज्जत हैं, लेकिन दुनिया की बाकी तमाम औरतें खेलने के लिए महज एक शरीर। यह अलग बात है कि अपने घर की औरतें या बच्चियां जब तक उनकी गुलाम हैं, तभी तक उन्हें इज्जत के रूप में देखा जाएगा। और अगर उसने सिर उठा कर देखने की जुर्रत की, तो बहुत मेहरबानी की जाएगी तो उसे समाज-बाहर कर दिया जाएगा या फिर काट डाला जाएगा।

हमारे स्कूल की इतिहास की किताबों में कभी पढ़ाया गया था कि विदेशी हमलावरों से लड़ने के लिए जब किसी राजा के सभी सैनिक   मोर्चे पर चले जाते थे और जब लड़ाई हार जाने की खबर आती थी तो राजमहल में मोर्चे पर गए सभी सैनिकों और सेनापतियों की पत्नियां एक साथ जौहर का व्रत ले लेती थीं। यानी अग्निकुंड में सामूहिक आत्मदाह...। इसी तरह, सती होने को एक कुप्रथा के रूप में पढ़ाए जाने के बावजूद उसका संदेश यही निकलता था कि सती होने वाली औरते बहुत महान होती थीं, और बाद में उनके नाम का मंदिर बना दिया जाता था। आज भी कई जगहों पर सती मंदिर देखने को मिल जाएंंगे। तब मेरे बच्चा दिमाग में जौहर व्रत लेने वाली या सती हो जाने वाली स्त्रियों को लेकर बड़ी श्रद्धा उमड़ पड़ती थी। लेकिन आज सोचती हूं तो लगता है कि सती प्रथा के पीछे भले संपत्ति हथियाने की मंशा भी रही हो, लेकिन सती और जौहर व्रत के पीछे निश्चित तौर पर दैहिक पवित्रता की ग्रंथि भी स्त्रियों के साथ-साथ समाज के दिमाग पर हावी रही होगा। और इस लिहाज से सती या जौहर व्रत अगर इज्जत बचाने के लिए हत्या नहीं, तो इज्जत बचाने के लिए आत्महत्या जरूर थी और उसका सिरा भी अलग व्याख्या के साथ तथाकथित आॅनर किलिंग से जुड़ता है।        

सवाल है कि ये इज्जत है क्या और इस तथाकथित इज्जत की यह परिभाषा किसने गढ़ी है...? किसने एक औरत को घर या जमीन की तरह एक जायदाद में तब्दील कर दिया और किसने उसकी अस्मिता के सारे सवालों को खारिज करके उसकी इज्जत को उसके देह का दूसरा नाम बना दिया?

दरअसल, स्त्री को गुलाम बनाए रख कर ही समाज के सामंती चरित्र को बचाए रखा जा सकता है। इसका विस्तार करें तो स्त्रियों के साथ सामाजिक वर्णक्रम में निचले पायदान पर गिनी जाने वाली जातियों को भी इस चक्र में शामिल किया जा सकता है। यानी स्त्रियों और समाज के अधिकांश हिस्से को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले ब्राह्मणवादी सूत्रों ने ऐसा सामाजिक मनोविज्ञान रच दिया है कि उसमें गुलामी और त्रासदी झेलते हुए शोषित और पीड़ित वर्गों को पता भी नहीं चल पाता कि इस व्यवस्था ने कब और कैसे उसके स्वत्व का हरण कर लिया।

अगर किसी लड़की ने अपने गोत्र के किसी लड़के को पसंद कर लिया तो वह अपराधी... अगर किसी अपनी जाति से बाहर और खासतौर पर किसी निचली कही जाने वाली जाति के लड़के को पसंद कर लिया तो अपराधी... और सच कहें तो यह कि अगर उसने अपने भीतर उमड़ रही भावनाओं की हत्या नहीं की तो अपराधी...।

यह कैसा समाज है जिसमें प्रेम कर लेने को इज्जत दांव पर लगाने का अपराध समझा जाता है?

वे कौन-से कारण हैं कि इस समाज की इज्जत तभी जाती है जब कोई लड़की अपने साथी के रूप में जिसको पसंद करने लगती है वह संयोग से निचली कही जाने वाली जाति से आता है।

यहां हमारे इस महान सामाजिक संरचना को खतरा दरअसल दोहरा है। पहला, अपनी मर्जी की राह पर चल पड़ना और दूसरा सामाजिक श्रेष्ठता की तथाकथित पवित्रता को भंग करने की कोशिश- दोनों से ही समाज के मौजूदा सामंती ढांचे की नींव खोखली होती है। इसलिए सामाजिक सत्ताधीशों ने समाज के इस चेहरे को बचाने के लिए ऐसे-ऐसे फार्मूले गढ़े कि इसके निशाने पर रखे गए वर्गों को भी पता नहीं चला। अब बताइए जरा कि पति की मौत के बाद उसके साथ सती हो जाने वाली स्त्री के दिमाग पर महान होने का कौन-सा मनोविज्ञान और कैसे हावी हो जाता रहा होगा कि जिंदा जल जाने का वीभत्स फैसला और उस पर अमल से ही उसे ‘शांति’ मिलती होगी?

दरअसल, स्त्री का किसी भी रूप में स्वतंत्र होना सामाजिक सत्ताधीशों के लिए सबसे बड़े खतरे का सूचक रहा है। इसलिए उसे काबू में रखने के मकसद से जो सामाजिक हथियार तैयार किए गए, वे सभी पहलुओं से स्त्री की अस्मिता का बार-बार दमन करते हैं। इन हथियारों में एक ओर जहां पैदा होने के बाद शुरू से ही शासित और शोषित के रूप में उसे ढालने के लिए तय किए गए तमाम पारिवारिक-सामाजिक व्यवहार हैं तो दूसरी ओर मजाक में या फिर अपमानित करने के लिए दी जाने वाली गालियों से लेकर घर की चहारदीवारी के बाहर हल्की-फुल्की फब्तियां कसने या छेड़छाड़ से लेकर यौन-उत्पीड़न या बलात्कार तक के बर्बर हथियार हैं, जिनकी मार्फत उसे ‘औकात’ में रखा जाता है। और अगर ये नुस्खे किन्हीं हालात में बेअसर रहे और किसी लड़की ने सपने देखने की हिम्मत कर ही ली तो कभी खुद बाप या फिर कभी जाति या समाज अपनी पंचायत बिठा कर उसे सैंकड़ों-हजारों की भीड़ के सामने सूली पर लटका देगा, ताकि बाकी बची हुई लड़कियां इससे सबक ले सकें।

और अब तो विज्ञान ने इससे भी आसान और कारगर औजार समाज के हाथों में दे दिया है। मामूली-सी रकम खर्च करो, गर्भ में भ्रूण के लिंग की जांच कराओ और बेटी हो तो मार डालो...। न रहेगा बांस, न बसेगी बांसुरी...।    

साथियो, यह वही दौर है, जब दुनिया के किसी भी कोने में बैठ कर किसी छोटी-सी मशीन के जरिए दूसरे कोने की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सकती है। इसे हम मानव समाज के लगातार विकास का नतीजा भी कहते हैं। लेकिन वे कौन-सी वजहें हैं कि हमारे समाज के एक बड़े हिस्से ने विकास के अति आधुनिक संसाधनों को तो अपनी जिंदगी का एक आम हिस्सा बना लिया है, लेकिन सामाजिक बर्ताव के पैमाने पर वह उन्हीं सड़ांधों को जीना चाहता है, जिसे हजारों साल पहले एक बेहद सोची-समझी साजिश के तहत व्यवस्था में घोल दिया गया?

वह सरकारी स्कूलों के लिए पूरी तरह वैज्ञानिक पद्धतियों का इस्तेमाल कर तैयार किए गए पाठ्यक्रम हों या बहुत पैसे खर्च कर किसी बहुत अच्छे प्राइवेट   स्कूल की पढ़ाई, हमारे बच्चों के दिमाग से एक छोटी-सी चीज जाति को नहीं निकाल पाती, एक स्त्री को भी व्यक्ति समझने की मानसिकता पैदा नहीं कर पाती। क्या यह केवल पढ़ाई-लिखाई की विफलता है?

चांद को छूने के लिए बेताब हमारे देश की धरती की सड़कें बहुत चिकनी होती जा रही हैं। बहुत ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें दिखाई देने लगी हैं। हमारे घर सभी आधुनिक साजो-सामान से सजने लगे हैं। हमारे घर के दरवाजे पर सबसे महंगी कार खड़ी दिख सकती है। क्लबों या पबों की देर रात की पार्टिंयों में नशे में झूमने को हमने मॉडर्न होना मान लिया है। लेकिन प्रेम करने के बदले किसी लड़की की हत्या कर दी जाती है तो हम समाज को बचाने का झंडा थाम कर लहराने लगते हैं।

देश पर राज करने वालों को सिर्फ इस बात से मतलब है कि समाज का मौजूदा जड़ ढांचा बना रहेगा, तभी तक उनका राज कायम रहेगा। इसलिए अगर उनका बस चले तो शायद वे प्रेम करने के खिलाफ कानून बना दें, लेकिन झूठी इज्जत बचाने के पाखंड में किसी प्रेम करने वाले लड़की-लड़के की हत्या के खिलाफ कोई सख्त कानून बनाना उसे जरूरी नहीं लग रहा। वे कौन-सी वजहें हैं कि आठ या दस फीसदी विकास दर का हवाला देकर हमारी सरकार हमें दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत होने का सपना दिखा रही है, लेकिन सामाजिक विकास या बदलाव के लिए कोई भी नीति उसे जरूरी नहीं लग रही? देखिए, कि हमारे इस महान लोकतंत्र में कोई हत्यारा समाज राज करने वालों को कैसे ब्लैकमेल करता है। क्या सरकारों से यह कहा जा रहा है कि तुम हमें इज्जत बचाने के नाम पर हत्याएं करने की छूट दो, हम तुम्हें वोट देंगे...। और क्या सरकारें वोट लेने के लिए सचमुच इस जंगली और कबीलाई परंपरा को निबाहने की छूट देती रहेगी?

जो लोग गोत्र के भीतर शादी करने के एवज बेटियों या उनके प्रेमियों की हत्या कर देते हैं, वही लोग जाति को लेकर इतने जड़ और तालिबानी चेहरे साथ इतने कट्टर हैं कि जाति से बाहर, खास तौर पर किसी निचली कही जाने वाली जाति के लड़के से प्रेम करने पर भी बेटी-बहन या उसके प्रेमी को मार डालने से नहीं हिचकते।

यानी गोत्र के बाहर शादी करना बाध्यकारी नियम है, लेकिन जाति से बाहर जाने की छूट नहीं। गोत्र के भीतर शादी करने से पवित्रता भंग होती है और जाति के भीतर करने से बची रहती है। वे कहते हैं कि गोत्र के बाहर शादी करने से आगे की पीढ़ी का नस्ल अच्छा होता है- हर लिहाज से...। यही तर्क वे जाति या धर्म से बाहर शादी करने के मामले में क्यों नहीं मानते। अगर गोत्र के भीतर शादी करने से वंश खराब होता है तो जाति या धर्म के भीतर करने से वह कैसे अच्छा होता है? अगर वे विज्ञान का तर्क लाते हैं, तब तो वह गोत्र के साथ-साथ जाति और धर्म- सभी पर लागू होगा न...!

इस सामाजिक साजिश को समझिए दोस्तो... इसकी परतें उघाड़ना और समाज को इंसानी चेहरा देना हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए...।

यह उनके तर्क का ही विस्तार है कि जाति, गोत्र या धर्म के दायरे दरअसल एक सामाजिक फ्रॉड हैं और कुछ खास वर्गों ने इसे अपनी सामाजिक सत्ता को बरकरार रखने का हथियार बनाया हुआ है। स्त्री और समाज के वंचित वर्गों की सामाजिक हैसियत शासित और शोषित की बनी रहे, इसी से पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था बनी रहेगी। इसलिए वे समाज से लेकर राजनीतिक सत्ताओं और शासन के हर पहलू को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।

लेकिन हवा किसके रोके रुकी है? दरवाजे और खिड़कियां बंद कर अगर कुछ लोग यह सोच रहे हैं कि वे हवा का रास्ता रोक देंगे, तो इस पर सिर्फ तरस खाया जा सकता है। किसी एक मनोज और बबली को मार कर अगर वे सोचते हैं कि वे बाकी को इस रास्ते सबक दे रहे हैं तो उन कुंए के मेंढ़कों को यह नहीं पता कि रोज न जाने कितने मनोज और बबली उनको मुंह चिढ़ाते हुए अपनी राह बढ़े चले जा रहे हैं। इज्जत बचाने के नाम पर की जाने वाली हत्याओं जैसे जंगली और कबीलाई परंपरा निबाहने वालों के बरक्स एक नई फौज तैयार हो रही है, चुपचाप एक समाज बन रहा है। उस नई दुनिया में जोखिम है, संघर्ष है, लेकिन उम्मीद की सुबह भी वहीं है।

स्वार्थी सरकारों और सामंती सामाजिक सत्ताधीशों की तमाम तलवारबाजियों के बावजूद बांसुरी का वह सुर न कभी थमा है, न थमेगा। सोचने की जरूरत सबसे ज्यादा हम स्त्रियों को है। या तो हम इस समाज की खोखली इज्जत के लिए खुद को कुर्बान करती रहें, या फिर अपनी अस्मिता के लिए उन रास्तों की ओर रुख करें जहां सचमुच हमारी गरिमा और आजादी हमारा इंतजार कर रही है...।