Monday 22 October 2012

भारतीय राजनीति के बरक्स इंदिरा-तत्त्व


अगले लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। साथ ही शुरू हो चुका है, ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ मार्का सर्वेक्षणनुमा खेल। इन सर्वेक्षणों में मीडिया का वह पुराना राग भी शामिल हो गया है कि क्या लोग प्रियंका गांधी में इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं! कांग्रेस की नैया संभालने में राहुल गांधी के लगभग फेल होने के बाद अब नजरें प्रियंका पर हैं। प्रियंका गांधी की वैधता के लिए इंदिरा गांधी से तुलना।

इंदिरा गांधी, भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं, जिन्हें आप खूब पसंद कर सकते हैं, उनकी जम कर आलोचना कर सकते हैं, आपातकाल थोपने के लिए उन्हें तानाशाह कहने में भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए, लेकिन किसी भी तरह से उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। आखिर एक महिला अब तक के भारत की सबसे ताकतवर नेता के दर्जे पर कैसे टिकी रह सकी? इंदिरा को अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की विरासत मिली।

यहां मैं बेहिचक कहूंगी कि शायद अगर नेहरू को एक बेटा होता तो हिंदुस्तान को शायद अब तक उसकी पहली महिला प्रधानमंत्री नहीं मिली होती। एक परंपरागत इंसान की तरह ही नेहरू ने अपनी विरासत अपनी खून को ही सौंपे जाने की जमीन तैयार की। इसके बावजूद नेहरू उस समय के आधुनिक सोच के लोगों में से एक थे। उन्होंने अपनी इकलौती बेटी का लालन-पालन आम लड़कियों की तरह नहीं किया। वे अपनी बच्ची की शिक्षा-दीक्षा को लेकर काफी सजग थे।

जेल में बैठे हिंदुस्तान के इस सबसे कद्दावर नेता को अपनी बड़ी होती बेटी की फिक्र थी और उसने बेटी को छुई-मुई बनाने या महज एक सहयोगी तत्त्व के रूप में विकसित करने के बजाय उसके भीतर शुद्ध राजनीतिक चेतना भरी और व्यावहारिक-वैज्ञानिक सोच का विकास किया। बेटी को दुनिया और विज्ञान के लिए समझाने के लिए चिट्टी लिखी।

एक प्रगतिशील पिता के अपनी बेटी के नाम वे गंभीर खत यह जताने के लिए काफी हैं कि नेहरू ने इंदिरा गांधी की ‘कंडीशनिंग’ कैसे की। वह शख्स जो ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिख रहा है, अपनी बेटी से भी वैसी ही उम्मीद लिए संवाद कर रहा है, ताकि उसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर एक वैज्ञानिक सोच पैदा हो, वह इसे किसी ईश्वर की बनाई संरचना न समझ बैठे। उन खतों की अहमियत इतनी है कि बाद में वे किताब के रूप में संकलित होकर भारतीय बच्चों के बीच पहुंची, स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनीं।

इंदिरा को लोगों से मिलने-जुलने और इस देश के मिजाज से लेकर राजनीति तक को समझने का खूब मौका मिला। इसी कंडीशनिंग ने इंदिरा को फौलादी इरादों वाली महिला बनाया। इंदिरा ने राजनीति को उसी तरह से लिया जिस तरह से कोई पुरुष नेता लेता। राजनीति तो विरासत में मिली, लेकिन उसके शीर्ष पर बैठना ही इंदिरा ने अपना लक्ष्य रखा। फिरोज गांधी से इंदिरा की शादी भी शायद एक समझौता थी। शायद यही वजह है कि इंदिरा ने शादी या पति को कभी अपनी अस्मिता के आड़े नहीं आने दिया, बस अपने लक्ष्य पर नजर टिकाए रखा। इंदिरा के ऊपर कभी भी पत्नी या मां की छवि हावी नहीं हो पाई। वह शुरू से अंत तक एक राजनेता ही रहीं।

इंदिरा का अपने राजनीतिक कॅरियर को लेकर हमेशा एक पुरुषवादी व्यवहार रहा और शायद यही वजह है कि कोई उन्हें डिगा नहीं सका। यहां तक कि आपातकाल जैसा तानाशाही फैसला थोपने और उसकी वजह से बुरी तरह हारने के महज तीन-चार सालों के बाद वे फिर से वहीं खड़ी दिखीं तो इसलिए कि उन्होंने अपने ऊपर भारतीय परंपरावाद के गैरजरूरी आख्यान हावी नहीं होने दिए या अपने सामने की ‘चुनौतियों’ से उसी तरह निपटा, जैसे भारतीय राजनीति के पुरुष नेतृत्व निपटते रहे हैं।

यहां एक सवाल उन्होंने यह भी छोड़ा कि क्या मौजूदा पुरुषवादी राजनीति के बरक्स कोई मानवीय विकल्प नहीं खड़ा किया जा सकता है? लेकिन इंदिरा गांधी अगर उस रास्ते की तलाश करतीं या उस पर चलने की हिम्मत करतीं तो उनके उस रूप में टिके रह सकना किस हद तक संभव होता! पितृसत्तात्मक व्यवस्था की असली राजनीति रही है, जिसमें सत्ता को हमेशा इसका खयाल रखना पड़ता है और शासितों को उभरने से रोकने की हर कोशिश की जाती है, ताकि स्त्री या वंचित वर्गों की कोई समांतर सत्ता खड़ी ही न हो सके।

खैर, इंदिरा से प्रियंका की तुलना के मौके निकाले जा रहे हैं तो यह कांग्रेस के लिए शायद जरूरत है। लेकिन सच यही है कि इंदिरा गांधी से मिलती-जुलती शक्ल वाली प्रियंका गांधी में इंदिरा वाले कोई तेवर नहीं दिखते। प्रियंका की मां सोनिया को अपने पति के मरने के बाद विरासत में कांग्रेस की बागडोर मिली। उसके पहले तक सोनिया ने एक ‘हाउस वाइफ’ ही बनना पसंद किया था। इस बात के कोई सबूत नहीं मिलते कि वे सार्वजनिक राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय होना चाहती थीं। इसके पीछे उनकी छवि को एक ‘विदेशी’ के रूप में प्रचारित और स्थापित कर देना हो सकता है। लेकिन आखिर आज वे एक सबसे ताकतवर महिला के रूप में देश की राजनीति की दशा-दिशा तय कर ही रही हैं।

जो हो, मजबूरी में राजनीति में आई सोनिया को राहुल और प्रियंका गांधी में से किसी एक को राजीव गांधी की विरासत सौंपनी थी। लेकिन सोनिया की यह ‘ताकत’ इस रूप में सामने आई कि उन्होंने परंपरागत भारतीय मां की तरह ज्यादा काबिल दिख रही बेटी की जगह अपने बेटे को विरासत सौंपी। राहुल गांधी को विरासत सौंपना पारिवारिक मामला दिख रहा था। लेकिन क्या भारतीय जनमानस की पुत्र-अनुकूल भावनाओं का ‘खयाल’ रखना भी था?

लेकिन दूसरी ओर इंदिरा की छवि के रूप में देखी जाने वाली प्रियंका ने भी परंपरागत भारतीय स्त्रियों की तरह शादी और बच्चों को ही प्राथमिकता दी। प्रियंका गांधी ने कई बार सार्वजनिक तौर पर कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता पति और बच्चे हैं; और कि वे अपनी घर की दुनिया में खुश हैं। यहां अचरज इस बात पर है कि जिस महिला को प्रधानमंत्री जैसा पद या भारतीय राजनीति के शीर्ष पर बैठने के अवसर मिल सकते हैं, वह ‘हाउस वाइफ’ बनने को ही क्यों तरजीह देती रही है। ज्यादा से ज्यादा अच्छी बहन की तरह राहुल गांधी की मदद करने के लिए प्रियंका कभी-कभी बरसाती मेंढ़क की तरह बाहर निकलती हैं और जरूरत खत्म होते ही अपने ‘घर की दुनिया’ में खुश होने लौट जाती हैं।

एक तरफ इंदिरा थीं, जिन्होंने गुलाम भारत में पढ़ाई-लिखाई की, लेकिन उन्होंने अपने स्व को ज्यादा अहमियत दी। दूसरी तरफ प्रियंका हैं, जो आजाद भारत के सबसे ताकतवर परिवार में पैदा हुईं, पली-बढ़ीं, जिन्हें राजनीति में शीर्ष हैसियत थाली में परोस कर मिल रहा है, वह हाउस वाइफ रहना पसंद कर रही है।

हालांकि उनकी समझ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बीबीसी हिंदी रेडियो सेवा में बात करते हुए एक बार उन्होंने श्रीलंका युद्ध के संदर्भ में यह टिप्पणी की थी कि ‘तुम्हारे आतंकवादी बनने में केवल तुम जिम्मेदार नहीं हो, बल्कि तुम्हारी पद्धति जिम्मेदार है जो तुम्हें आतंकवादी बनाती है।’ इससे पता चलता है कि मुद्दों की वे कितनी गंभीर समझ रखती हैं। लेकिन अपनी अस्मिता को लेकर वे कितनी लापरवाह हैं कि यह भी कह बैठती हैं कि ‘मैं यह हजारों बार दोहरा चुकी हूं कि मैं राजनीति में जाने को इच्छुक नहीं हूं।’ जाहिर है,अपनी अस्मिता को लेकर इतनी गैर-सजग प्रियंका कभी भी इंदिरा गांधी नहीं बन सकतीं।

भारतीय राजनीति के मर्दवादी माहौल में किसी महिला का शीर्ष पर पहुंचना आसान नहीं है। अगर महिलाएं कहीं शीर्ष हैसियत में पहुंच भी जाती हैं तो वहां अपनी लैंगिक विशेषता के साथ खुद को संतुलित बनाए रखने की राह बेहद मुश्किल है। ऊपर तक आते-आते महिलाओं की अस्मिता को इतनी बुरी तरह झकझोर दिया जाता है कि कभी-कभी तो उनमें व्यवहारगत समस्याएं भी दिखने लगती हैं जो उनके पतन का कारण भी बन जाती हैं।

ममता बनर्जी हो या जयललिता, इन्होंने सत्ता के शीर्ष पर जाने के क्रम में कितना दमखम लगाया, यह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन अब राजनीति और प्रशासनिक ढर्रे से लेकर इनके व्यवहार तक में कैसी दिक्कतें आ चुकी हैं, इसे देख कर व्यवस्थावादी ताकतें खुश होती हैं। उनकी कार्यशैली और उनका बर्ताव उनके कट्टर अनुयायियों के अलावा आम जनमानस में भी खिसियाहट पैदा करता है। कई अवसरों पर ममता बनर्जी जहां एक घरेलू झगड़ालू महिला की तरह व्यवहार करने लगती हैं और हर समय एक असुरक्षाबोध से घिरी हास्यास्पद बयान देती रहती हैं तो जयललिता एक रहस्यमयी ‘अम्मा’ बन जाती हैं और अपने एक खास दायरे से बाहर निकलने की कोशिश भी नहीं करतीं। सुषमा स्वराज जिस खेमे की राजनीति करती हैं, उसमें अगर किन्हीं हालात में उन्हें शीर्ष पर जाने भी दिया गया यो भी वे हमेशा एक मोहरा रहेंगी और सामाजिक सत्तावाद उनका मूल एजेंडा रहेगा।


इंदिरा गांधी के बाद सिर्फ मायावती में वह ताकत दिखाई देती है जो सत्ता के शीर्ष पर जाकर अपनी ताकत और उसी रूप में गरिमा बनाए रखती हैं। तमाम आलोचनाओं, पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों की तीखी अभिव्यक्तियों के बावजूद मायावती बाधाओं के सामने हबड़-तबड़ नहीं मचातीं, पूरी परिपक्वता से अपना धीरज बनाए रखती हैं और अपने विरोधियों का सामना करती हैं। मीडिया से लेकर अपने विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने में मायावती सक्षम हैं। आप सवाल उठा सकते हैं, लेकिन वे भारतीय राजनीति के चरित्र को समझ कर उसके हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाती हैं। उन्होंने राज-व्यवस्था का कोई नया विकल्प नहीं खड़ा किया है, लेकिन अपनी क्षमता साबित की है।

इसमें कोई शक नहीं कि दलित सशक्तीकरण और सामाजिक न्याय की राजनीति के अध्याय में फिलहाल एक प्रतीक से आगे व्यवहार के स्तर पर कुछ ठोस कर पाना उनके लिए अभी बाकी है। लेकिन इतना तय है कि भारतीय राजनीति के मर्दवादी चाल-चेहरे और चरित्र में अगर कोई दूसरी इंदिरा गांधी या उससे आगे होगी तो वह मायावती ही होंगी। लेकिन देश के शीर्ष पद के लिए मायावती के नाम पर भारत की सत्तावादी आबो-हवा में दोहरी ‘पीड़ा’ घुल जाती है तो इसकी वजहें भी समझी जा सकती हैं!