"लड़कियों के पास लुभाने को कुछ होता भी है, मगर नौकरी न पाने वाले सामान्य युवक के पास कुछ भी नहीं होता." -ये "उच्च" विचार वरिष्ठ साहित्यकार और प्रगतिशील माने जाने वाले एक लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी के हैं, जो उन्होंने "शुक्रवार" पत्रिका के साहित्य वार्षिकांक में प्रकट किए हैं।
सवाल उठता है कि देश-दुनिया के साहित्य और समाज का विश्लेषण करने के बावजूद एक महान कहा जाने वाला व्यक्ति अगर अपने बुजुर्गावस्था में भी इतने कुत्सित विचार के साथ महान बना रह सकता है तो हम खालिस सामंती और मर्दवादी समाज के मनोविज्ञान में तैयार हुए एक साधारण पुरुष से क्या उम्मीद करेंगे। त्रिपाठी जी को नौकरी मांगने के लिए लड़कियों के पास लुभाने का एक हथियार दिखाई देता है। दरअसल, स्त्री की क्षमताओं को खारिज़ किए बिना पितृसत्ता का जिंदा रहना संभव नहीं होगा। इसलिए सबसे पहली चोट उनकी क्षमताओं पर ही किया जाता है। इसके लिए सबसे आसान यही है कि उनके अस्तित्व को उनके शरीर में समेट दिया जाए।
अगर कोई स्त्री किसी दफ्तरी कामकाज को करने में सक्षम है, तो असली खतरा जितना उससे है, उससे ज्यादा एक समांतर सत्ता के खड़ा हो जाने से है। इसलिए पितृसत्तात्मक कुंठाओं का उदाहरण विश्वनाथ त्रिपाठी के विचार के अलावा भी कई रास्ते अपनाए जाते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी चूंकि साहित्य और विचार के एक सत्ता केंद्र माने जाते हैं, इसलिए उनके खयालों की कसौटी पर रखना जरूरी है। लेकिन इस समाज में जितने भी सत्ता केंद्र हैं, वे मूलतः पितृसत्तात्मक व्यवस्था से ही संचालित होते हैं। आखिरी मकसद इसी व्यवस्था की जड़ों को खाद-पानी पिलाना होता है। सबसे ताकतवर सत्ता-केंद्र के रूप में आज टीवी के जरिए जनमानस की चेतना में जिस बारीक तरीके से मर्द कुंठाओं को और मजबूत किया जा रहा है और नई चुनौतियों से पार पाने का रास्ता बताया जा रहा है, वह हैरान करता है। इसलिए भी कि आधुनिकता का ढोल पीटते हुए हम तमाम लोगों को यह प्रगति का रास्ता लगता है, जो अपने मूल चरित्र में स्त्री को, और इस तरह समूचे समाज को उल्टे अंधेरे में डुबो देने की कोशिश में लगा है।
जीटीवी पर दिखाए जा रहे सीरियल "हाउस वाइफ है, सब जानती है" की नायिका सोना कामकाजी महिला नहीं होना चाहती है। उसका पति, उसकी सास और पूरा परिवार उसे कामकाजी महिला यानी वर्किंग वूमेन बनाने के लिए "साजिशें" रचता है। लेकिन वह अपने "धर्मयुद्ध" में अडिग है। इस नायिका के बहाने बताया जा रहा है कि वे पत्नियां लालची और स्वार्थी होती हैं जो ऑफिस जाना चाहती हैं। आजादी की मांग दरअसल वे महिलाएं करती हैं, जिन्हें अपने परिवार की फिक्र नहीं है। इस सीरियल में हाउसवाइफ का जिस तरह से महिमामंडन किया जा रहा है, वह चौंकाता है और कुछ सोचने पर मजबूर करता है। हमेशा सोलह श्रृंगार से लैस किचेन में जाने वाली सोना को देख और हाउसवाइफ के पक्ष में उसके क्रांतिकारी डायलॉग सुन कर कॅरियर बनाने के लिए जद्दोजहद कर रही कोई भी लड़की अफसोस से भर जाएगी। स्टार प्लस के धारावाहिक "ये रिश्ता क्या कहलाता है" की अक्षरा का भी यही हाल है। जब उसका पति बीमार होकर चार साल बिस्तर पर पड़ा रहा तो उसने पति के ऑफिस में जाकर सब कुछ संभाल लिया। वह एक कामयाब बिजनेस वूमेन के रूप में जानी जाने लगी। लेकिन जब उसका पति ठीक हो गया तो वह ऑफिस नहीं जाना चाहती है। लेकिन पति और सास के "इमोशनल" अत्याचार के बाद वह अपने पति के साथ दफतर जाने को तैयार हो जाती है।
यह टीवी पर चल रही "हाउसवाइफ क्रांति" है। अब दूरदर्शन पर "उड़ान" का वह दौर खत्म हो गया जो युवा होती लड़कियों को कोई शख्सियत बनने की प्रेरणा दे रहा था। अब महिलाओं को मुंह पर मेकअप पोत-थोप कर किचेन में जाने को ही आदर्श स्थिति बताया जा रहा है।
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के काबीना मंत्री आजम खान स्कूली लड़कियों को नसीहत देते दिखे कि वे खूब पढ़ें-लिखें, लेकिन किसी भी हाल में मायावती न बनें। शायद आजम खान यह कहना चाहते हैं कि लड़कियों को सिर्फ डिंपल यादव बनना चाहिए! डिंपल यादव बनना, मतलब कॅरियर के नाम पर ऐसा पति खोजना जो आपको सब कुछ बना-बनाया दे। राजनीति में कदम रखना चाहें तो पति अपनी सीट छोड़ दे तो आप सांसद बन जाएं। फिर जब पति के संरक्षण में और उसी के भरोसे "कॅरियर" बनाएं तो फेसबुक पर होने वाली "रायशुमारी" में निश्चित रूप से आप पति से जीत जाएंगी। चूंकि आपने मुख्यमंत्री पति की आदर्श पत्नी की भूमिका निभाई है, इसलिए फेसबुक का समाज आप पर फिदा है!!! फेसबुक का समाज मायावती या कोई इस तरह की महिला को नहीं पसंद करेगा, जिसने पति की छाया, यानी "मेहरबानियों" के बिना अपना मुकाम बनाया है।
यानी समाज की तरह घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों को हाउसवाइफ की पटरी पर फिर से वापस लाना टीवी और समाज, सबकी नई मुहिम है। मीडिया में इन दिनों ऐसे सर्वेक्षणों और खबरों की बहुतायत हो गई है जिसमें बताया जाता है कि गृहिणी होना अच्छी बात है। गृहिणी शब्द शायद थोड़ा "ओल्ड फैशन" जैसा हो गया है। इसलिए अब इसे "होममेकर" कहा जा सकता है। सुनने में आधुनिक और कान-दिमाग को सुहाने वाला लगता है। गुलाम बनाने के लिए जोर-जबर्दस्ती के मुकाबले गुलामी का ग्लैमराइजेशन, यानी महिमामंडन ज्यादा अच्छा और दीर्घकालिक असर वाला फार्मूला साबित होता है।
तकरीबन साल पहले का लाइफस्टाइल से जुड़ी हिंदुस्तान टाइम्स की पत्रिका "ब्रंच" के आवरण कथा का विषय यही था। बं्रच का यह संस्करण साल भर से ज्यादा पुराना है लेकिन अपने कंटेंट के कारण सहेज कर रखने लायक है। ब्रंच की आवरण कथा का नाम था कमला गो होम्स। कमला का संबोधन गृहणियों के लिए है। स्टोरी के मुताबिक वो फेमिनिस्ट मूवमेंट पुराना हो गया है जिसमें औरतों की मुक्ति बनाम आर्थिक स्वतंत्रता बताया गया था। दरअसल इस आर्थिक स्वतंत्रता के फलसफे के कारण औरतें घर की चारदीवारी से बाहर नौकरी करने के लिए निकल गईं। कार्यक्षेत्र में उन्हें कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा। घटिया बॉस और सहयोगियों की साजिशों से घबराकर कई कमलाओं ने नौकरी से बेहतर घर में बैठकर पति का इंतजार करना और बच्चा पालना बेहतर समझा। अब कारपोरेट मैग्जीन सलाह देती है कि महिलाओं के लिए घर के अंदर ही मनोरंजन का बहुत सा सामान है। अब वो जमाना गया जब महिलाएं मनारंजन के लिए सिर्फ टेलीविजन पर निर्भर रहती थीं। अब तो डीवीडी, म्यूजिक प्लेयर, जिम ऐसे बहुत से सामान हैं जिसमें पति के आने के पहले तक खुद को मशरूफ रखा जा सकता है। और हां महिलाओं को सार्वजनिक जीवन का मजा लेना है तो वे चैरिटी के किसी काम में भागीदार हो सकती हैं।
आज का कॉरपोरेट आधुनिक गृहणियों की एक नई छवि बना रहा है, वह भी उनके मुक्ति गान के साथ। हिंदी समाज के पुनर्जागरण काल में कुछ युगद्रष्टाओं ने महिलाओं के उत्थान की बात की थी। वे शायद आधुनिक भारत की जरूरतें समझ रहे थे। इसलिए उन कुछ मनीषियों ने "होम साइंस" जैसे विषय की परिकल्पना की थी। तब तक भारतीय पुरुष अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिक नौकरी के संपर्क में आ गए थे। नए नौकरीपेशा लोगों को दस से पांच के दफ्तर में जाना होता था। इसके लिए उन्हें समय पर खाना चाहिए था। पुरुष दफ्तर में और महिलाएं घर में अकेली होती थीं। अब महिलाओं को इतना पढ़ा-लिखा तो होना ही चाहिए था कि अगर घर में कोई बच्चा और बुजुर्ग बीमार पड़ जाए तो अंग्रेजी दवा का नाम पढ़ कर उसे दवा दे दे, क्योंकि तब तक अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति भी अपना बाजार बना चुकी! इसके अलावा, अगर दफ्तर के साहब घर पर आ गए तो पत्नी जी कायदे के साथ प्रभावित करने वाले अंदाज में उन्हें नमस्ते कहे। तो एक ऐसा विषय तैयार करना था जो आधुनिक पुरुषों की जरूरत पूरी कर सके। उसी को ध्यान में रख कर महिलाओं के लिए "होम साइंस" जैसा विषय बनाया गया जिसे आधुनिक समाज ने हाथों-हाथ लिया।
जो हो, "होम साइंस" की दीवारों के भीतर से चुपके से सीढ़ियां चढ़ कर महिलाओं ने दूसरे विषयों की तरफ भी रुख कर लिया और दफ्तरों तक जा पहुंचीं और वहां अपनी एक मुकम्मल जगह बनाई। लेकिन चूंकि परिवार बचाना महिलाओं की ही जिम्मेदारी है और पुरुष इस जिम्मेदारी से मुक्त हैं इसलिए महिलाओं के बढ़ते वर्चस्व से समाज की व्यवस्था को खतरा महसूस हो रहा है! कितने बारीक तरीके से व्यवस्था बुनी और बचाई जाती है। आज की आधुनिक कही जाने वाली स्त्री को भी यह समझने में मुश्किल आ रही है कि जो व्यवस्था उसके महिमामंडन में लगा हुआ है, क्या वह उसमें स्त्री की अस्मिता के लिए भी कोई जगह है। या फिर यह समाज बचाने का शिगूफा स्त्री के अस्तित्व को दफन करने की कीमत पर हो रहा है?
आज का समय कॉरपोरेट का है और वह महिलाओं के लिए नया और आकर्षक "होम साइंस" बना रहा है, ताकि महिलाएं घर की चहारदिवारी में वापस लौट आएं। कॉरपोरेट का यह होमसाइंस उच्च मध्यमवर्गीय महिलाओं के लिए है। अब कोई जरूरत नहीं कि आप किचन में खटती रहें। खाना बनाने के लिए कुक, सफाई वाली सबका सहयोग लें। कामों को आसान करने के लिए आधुनिक मशीनों का सहारा लें। उसके बाद बचे बेशुमार समय का सही इस्तेमाल करें... डीवीडी पर फिल्म देखें, शरीर को फिट रखने के लिए जिम जाएं, डार्क सर्कल, झुर्रियों-झाइयों की चिंता से उबरने के लिए वोदका और व्हिस्की पिएं। और हां कभी टेस्ट बदलने के लिए सार्वजनिक जीवन में जाने की इच्छा हुई तो चैरिटी के किसी कार्यक्रम में जाइए। यानी एक ऐसी महिला की जरूरत है जो सिर पर पल्लू डाल कर आरती भी गा सके, लग्जरी गाड़ी चला कर बच्चों को स्कूल छोड़ने जा सके, जिम में व्यायाम कर शरीर पर चर्बी नहीं जमने दे, शाम में पति के साथ पार्टी में जाकर साल्सा जैसे आधुनिक डांस भी कर सके और घर वापस लौट कर पति के लिए फुलके भी बना सके।
जब आधुनिक उच्च मध्यमवर्गीय महिलाओं के पास पूरे करने के लिए इतने शानदार काम हों तो फिर वह कॅरियर का चकल्लस क्यों पाले। कॅरियर में तो घटिया बॉस और साजिश करनेवाले सहयोगी ही मिलते हैं। यानी यह नया कारपोरेट मीडिया समझा रहा है कि पितृसत्ता तो घर के बाहर दफ्तरों में है। घर में जो है वह गुलामी नहीं, संस्कृति है। संघर्ष से बचने का इससे आसान नुस्खा और क्या हो सकता है? किसी भी व्यवस्था में सत्ता पर कब्जा किए बैठे लोग नहीं बताएंगे कि वंचित वर्गों को उनका हक बिना संघर्ष के नहीं मिल सकता। वे यह सबसे आसान रास्ता बताएंगे कि दुनिया के संघर्ष से बचने के लिए घर में कैद रहना बेहद आसान और बेहतर है। वे यह भी नहीं बताएंगे कि घर की कैद ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन रही है और जब तक इस दुश्मन से लड़ा नहीं जाएगा, बाहर के दुश्मनों से निपटना संभव नहीं है।
इसके अलावा, क्या महिलाओं को इस पर कुछ नहीं सोचना चाहिए कि उसका जो कॉरपोरेट पति अपने ऑफिस की महिलाओं के साथ सामंतों-सा और खालिस मर्द कुंठाओं से बजबजाता हुआ व्यवहार करता है, वह घर में आते ही एक आदर्शवादी पुरुष कैसे और क्यों बन जाता है। वैसे समाज में जहां महिलाएं दफ्तर में अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद से गुजरती हैं, घर में अपनी अस्मिता की बात भी कैसे कर पाएंगी। नौकरी पर गई गीतिका शर्मा के नियोक्ता के नाते उसका सभी तरह से शोषण करने वाला गोपाल कांडा चाहता है कि उसकी दो बेटियों की जल्द से जल्द शादी हो जाए। कांडा अपनी मां के सामने एकपत्नीव्रता रहना चाहता है। तो क्या, जिम, एंटी एजिंग क्रीम और किटी पार्टियों में व्यस्त बीवियों को अपने इन वहशी पतियों के खिलाफ आवाज नहीं उठानी चाहिए। वे होममेकर बनी रहीं और उनका पति कॅरियर के नाम पर लड़कियों को खुदकुशी की राह पर धकेलता रहे। जो आदमी दफ्तर में एक महिला का सिर्फ इसलिए मनमाना शोषण करता है कि उसने उसे नौकरी दी है, या वह उसकी मातहत है या उसके आसपास बैठती है, वही घर में आकर बड़े आराम से एक आदर्श पति बन जाता है।
जिस तरह से घर की सेहत सुधारने के लिए महिलाओं का हाउसवाइफ होना जरूरी बताया जा रहा है, उससे ज्यादा जरूरी यह है कि समाज की सेहत सुधारने के लिए महिलाओं का कामकाजी होना सिखाया जाए। जब तक दफ्तर से लेकर सड़क पर महिलाएं अल्पसंख्यक बनी रहेंगी, तब तक घर के अंदर भी उनकी हालत नहीं सुधरने वाली है। हाउसवाइफ बनाने की यह मुहिम कहीं बड़ी होती लड़कियों के सपनों की दिशा न बदल दे। लेकिन दीर्घकालिक तौर पर इससे समाज की सेहत जो बिगड़ेगी उससे पार पाना संभव नहीं होगा। स्त्रियों ने बड़े संघर्षों से घर की कैद से आजादी हासिल की है। अब उन्हें फिर से उनकी दुनिया को समेटने या सिमटी हुई नई दुनिया पर गर्व करने के लिए दीवारों और जंजीरों का महिमागान का संजाल परोसा जा रहा है। इस सायास या अनायास, लेकिन बारीक चाल को आज की स्त्री को समझना होगा। वरना अपनी अतीत की नियति का शिकार बनने की जिम्मेदार वह भी होगी।