Wednesday 11 May 2011

अकेलेपन का अंधेरा...



आर्थिक दृष्टि से वैश्विक भूगोल पर अपनी पहचान बना चुके नोएडा में दो बहनों की दिल दहला देने वाली कहानी ने हमारे समाज को झकझोर कर रख दिया है। यह घटना महानगरीय जीवन की एक ऐसी तस्वीर खींच रही है जो हमसे रुकने को और थोड़ा ठहर कर सोचने को कह रही है कि उपभोक्तावाद और महानगरीय जीवन में रचे-बसे हम कहां पहुंच गए हैं कि खुद में गुम हो जाना ही एक रास्ता पा रहे हैं। महानगरों में बैठे हम लोग, जिनकी जड़ें किसी छोटे शहरों, गांवों या कस्बों में है, जानते हैं कि वहां निजी और सार्वजनिक का अंतर बहुत हद तक मिट गया-सा होता है। पड़ोसी के घर में क्या सब्जी बनी, यह जाने बिना पेट में दर्द होने लगता था! ऐसी जगहों पर परिवार के अंदर के संकट से उबरने का दृश्य बनता था और हालात अपने आप पैदा हो जाते थे। अगर किराए के कमरे में रह रहा कोई व्यक्ति सुबह देर तक सोता रहा तो मकान-मालिक या पड़ोस का कोई किराएदार दरवाजा खटखटाकर जरूर पूछ लेता कि बाबू, तबियत तो ठीक है न! रात भर प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी में पढ़ाई कर भोर में सोए किसी युवक को जरूर खीझ होती होगी कि सो मैं रहा हूं, तो इन महाशय को क्यों परेशानी हो रही है!

लेकिन बड़े होते शहरों ने परिवार के साथ-साथ समाज को भी बहुत छोटा और व्यक्ति को कहीं न कहीं अकेला कर दिया है। इसका नतीजा चुपचाप पसरा। अब तक लोगों के अकेलेपन से अवासदग्रस्त होने की सूचना आती थी। लगता था कि परिवार छोटा हो रहा है और एकाकीपन लोगों को खा रहा है। हालत यह है कि बड़े अपार्टमेंटों और सोसायटियों में रहने वाले लोग यह नहीं जानते कि उनके बगल के फ्लैट में कौन रह रहा है। हां, नंबर से वे भले अपनी पूरी सोसायटी या अपार्टमेंट के बारे में बता दें। लेकिन नोएडा की घटना तो इन सबसे कहीं आगे छलांग कर हमें बता रही है कि मामला अब केवल वहीं कहीं नहीं ठहरा है। महानगरों के बाशिंदे अब तक सिर्फ अपने मुहल्ले से कटे थे। लेकिन इन बहनों ने जो नई तस्वीर दिखाई है वह यही बताता है कि पढ़ा-लिखा और आधुनिक माना जाने वाला इंसान किस तरह केवल अपने परिवार से नहीं, अपने आप तक से कट रहा है।

यह डरने की बात है कि खाते-पीते लोगों को उनका अकेलापन कहां ले के जा रहा है। अकेलेपन के अपने बनाए दायरे ने परिवार के अंदर भी एक दीवार खड़ी कर दी है। इस तरह का एकाकीपन सभी सुविधाओं से संपन्न रिहाइशी इलाकों के बाशिंदों में ज्यादा दिख रहा है। इन बहनों में अकेलेपन का भाव किसी अपने के अभाव में आया था। यह भाव उस अभाव से नहीं पैदा हुआ था, जैसा रोटी, कपड़ा और मकान की जंग लड़ते आर्थिक रूप से कमजोर तबकों में होता है। यहां संपत्ति के लिए होने वाले लड़ाई-झगड़े भी नहीं थे। पैतृक चल-अचल संपत्ति और जमा-पूंजी इन बहनों को मिल ही गई थी। थोड़Þे से बेहतर वित्तीय प्रबंधन से वे एक संपन्न और सुविधाजनक जिंदगी जी सकती थीं। आर्थिक अभाव का भाव या तो इंसान को बहुत दीन बनाता है या व्यवस्था के प्रति विद्रोही। जिनके पास आर्थिक रूप से कुछ खोने के लिए नहीं होता, वे समाज और व्यवस्था को लेकर बागी होते हैं। लेकिन खाते-पीते तबकों में अपनों के साथ की कमी का भाव खुद के प्रति विद्रोह पैदा कर देता है। अपना ही अस्तित्व बेगाना लगने लगता है। सवाल है मन की ग्रंथियों में ये भाव कहां से घुसपैठ कर लेते हैं कि कोई अपने प्रति भी इतना बेहरम हो जाता है?

दरअसल, महानगरों में बच्चों के पालन-पोषण के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, उनमें हैसियत का तत्त्व सबसे ऊपर होता है। लेकिन उसमें जो आभिजात्य फार्मूले अंगीकार किए जाते हैं, किसी बच्चे के एकांगी और अकेले होने की बुनियाद वहीं पड़ जाती है। आज यह वक्त और समाज की एक बड़ी और अनिवार्य जरूरत मान ली गई है कि एक आदमी एक ही बच्चा रखे। एकल परिवार के दंपत्ति इस बात को लेकर बेपरवाह रहते हैं कि वे अपने छोटे परिवार के दायरे से निकल कर बच्चों को अपना समाज बनाने की सीख दें। काम के बोझ से दबे-कुचले माता-पिता डेढ़ साल के बच्चे को ‘कार्टून नेटवर्क’ की रूपहली दुनिया के बाशिंदे बना देते हैं। बच्चे के पीछे ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़े, इसलिए उसके भीतर कोई सामूहिक आकर्षण पैदा करने के बजाय उसकी ऊर्जा को टीवी सेट में झोंक देते हैं। फिर दो-तीन साल बाद उसके स्कूल के परामर्शदाता से सलाह लेने जाते हैं कि बच्चा तो टीवी सेट के सामने से हटता ही नहीं और पता नहीं कैसी बहकी-बहकी कहानियां गढ़ता है।

वह ऐसा क्यों नहीं होगा? उसकी दुनिया को समेटते हुए क्या हमें इस बात का भान भी हो पाता है कि हमने उसे इस दुनिया से कैसे काट दिया। होश संभालते ही जिस बच्चे को अपने साथी के रूप में ‘टॉम-जेरी’ और ‘डोरेमॉन’ मिला हो, वह क्यों नहीं आगे जाकर अपने मां-बाप से भी कट जाएगा? स्कूल जाने से पहले मां-बाप छोटे बच्चों को सलाह देते हैं कि अपनी पेंसिल किसी को नहीं देना, अपनी बोतल से किसी को पानी नहीं पीने देना। हम नवउदारवादी मां-बाप बच्चे को पूरे समाज से काटते हुए बड़ा बनाते हैं। उसके पास अपना कहने के लिए सिवा अपने मां-बाप के अलावा और कोई नहीं होता। और जब वही मां-बाप साथ छोड़ देते हैं तो वह अपने को निहायत बेसहारा महसूस करने लगता है। अपने घर की चारदीवारी को ही अपनी जीवन की सीमा का अंत मान लेता है। महानगरों में ऐसे अकेले लोगों की   पूरी फौज खड़ी हो रही है जो रहते तो ‘सोसायटी’ में हैं, लेकिन अरस्तू की परिभाषा के मुताबिक ‘सामाजिक प्राणी’ नहीं हैं। यानी मनुष्य होने की पहली शर्त खो बैठे हैं।

2 comments:

  1. यानी मनुष्य होने की पहली शर्त खो बैठे हैं।
    समाज की संवेदनहीनता , क्या यही है सभ्य समाज मानसिकता सोंचने को मजबूर करती एक जरुरी पोस्ट, आभार......
    आपके ब्लाग पर आने में देरी की क्षमा चाहूँगा

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  2. आज ही ब्लॉग का पता चला. पढ़ा इसे. लेख/लेखक/लेखिका की चिंता सही है लेकिन शायद ही कोई अमल करे. मैं मजाक ही में कहता रहा हूँ , यद्यपि सत्य है-'महानगरों के बच्चे अपने माता-पिता को तस्वीरों में/से जानते/पहचानते हैं'. डर है कि ये बच्चे भी माता-पिता होंगे एक दिन!
    पुनश्च: बधाई.

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