Friday 15 April 2011

ये हक को रहम में बदलने वाले एनजीओ...


अपना अपना समाज




कुछ समय पहले टीवी पर साक्षात्कार के दौरान हरियाणा के मुख्यमंत्री को यह कहते सुना कि खाप पंचायतें कुछ भी गलत नहीं कर रही हैं और वे दरअसल किसी एनजीओ या गैरसरकारी संगठन की तरह काम करती हैं। जब उनसे इन पंचायतों के कानून हाथ में लेने की घटनाओं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मीडिया बिना जाने-समझे खाप और गांवों की पंचायतों को गलत तरीके से पेश करता है। मैं किसी राज्य के मुख्यमंत्री के मुंह से खाप पंचायतों की ऐसी वकालत से हैरान थी। इंतजार किया कि खुद को प्रगतिशील घोषित करने वाले गैरसरकारी संगठन अपनी तुलना खाप पंचायतों से किए जाने पर कोई प्रतिक्रिया देंगे। लेकिन किसी भी एनजीओ को इसमें आपत्तिजनक शायद कुछ नहीं दिखा।

इस साक्षात्कार के दो-तीन दिन बाद जब एक एनजीओ की ओर से स्त्री अधिकारों पर आयोजित विचार-गोष्ठी में थी तो बात जरा खुल कर सामने आई। उसमें झारखंड से आई और उसी एनजीओ से जुड़ी एक कार्यकर्ता ने माइक हाथ में लेकर कहा कि मुझे विश्वास है कि मैं सबसे अच्छा बोलूंगी। मुझे उसका यह भरोसा बड़ा अच्छा लगा। उसने बताया कि कुछ समय पहले हमारे एनजीओ ने बलात्कार पीड़ित एक लड़की की बहुत मदद की और लंबी लड़ाई लड़ कर उसकी शादी उसी पुरुष से कराई जिसने उसके साथ बलात्कार किया था। वह कार्यकर्ता गर्व से बता रही थी कि किस तरह उसने पीड़ित लड़की को नया जीवन दिया। मैं उसकी बातें सुन कर स्तब्ध थी। उस सेमिनार में ज्यादातर वक्ताओं ने कहा कि गृहणियां परिवार की रीढ़ हैं और परिवार बचाने के लिए गृहणियों के काम को महत्त्व देना जरूरी है। घरेलू महिलाओं के अधिकारों का मैं सम्मान करती हूं और उनके काम का महत्त्व मुझे समझ में आता है। लेकिन मैंने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसके बावजूद क्या हमें इस परंपरागत मानसिकता या ‘कंडीशनिंग’ से उपजी जड़ता को तोड़ने की जरूरत नहीं है जिसके तहत एक लड़की ही गृहिणी बनने का विकल्प चुनती है? क्या हमारे समाज को इस बात का डर सताता है कि घर के दायरे से जब ये महिलाएं निकलती हैं तो पंचायत से लेकर संसद तक में हिस्सेदारी मांगने लगती हैं और देनी पड़ती है?



बहरहाल, यह देखा जा सकता है कि आज भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में गैरसरकारी संगठन किस तरह एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो चुके हैं। लोककल्याण के जो दायित्व हमारी सरकारों के थे, अमूमन उन सबको अब ऐसे संगठनों के हाथों में सौंपा जा रहा है। ये एनजीओ ‘नए भारत’ का निर्माण कर रहे हैं। एक ओर हरियाणा के मुख्यमंत्री कहते हैं कि खाप पंचायतें एनजीओ की तरह काम कर रही हैं, दूसरी ओर एनजीओ कार्यकर्ता बलात्कार की शिकार एक लड़की की शादी उसी के बलात्कारी से करवाती है। इसे कैसे देखा जाए? क्या हम खापों के कार्यकलाप या नागरिकों के अधिकारों को एनजीओ की मार्फत रहम के रूप में बदलते जाने से अनजान हैं? क्या यह अलग-अलग मोर्चे पर ‘दीवारों’ को मजबूत करने की साजिश है, ताकि व्यवस्था अपने मूल रूप में बनी रहे?

मैं देश में गैरसरकारी संगठनों की भूमिका से इनकार नहीं करती। इनके बीच के कुछ लोगों की लड़ाई की बदौलत ही हमें सूचना का अधिकार कानून जैसा हथियार मिला है। लेकिन इससे उपजी व्यापक उम्मीदों का जमीन पर उतरना अभी बाकी है। फिलहाल इसके फायदे समाज के पढ़े-लिखे, जागरूक और सभ्य माने जाने वाले मध्य या उच्च मध्यवर्ग के बीच ही सिमटे हैं। अस्पताल से भगाए जाने के बाद किसी गरीब महिला को मजबूरन सड़क पर बच्चे को जन्म देना पड़ता है; किसी दलित लड़की के साथ बलात्कार किया जाता है या उसके हाथ-पांव काट दिए जाते हैं या कहीं जिंदा जला दिया जाता है; कहीं एक विधायक के शोषण से मुक्ति पाने के लिए एक औरत को उसकी हत्या करनी पड़ती है या फिर अपनी मर्जी से अपना साथी चुनने वाली निरूपमा पाठक जिंदा रहने का हक खो बैठती है...! क्या इन हकीकतों को जानने के लिए किसी आरटीआई की जरूरत है? अगर क्रिकेट का विश्वकप जीतना पूरे देश की जीत है तो हरियाणा के मिर्चपुर में वाल्मीकि परिवार की किसी सुमन को जिंदा जला दिया जाना देश के लिए शर्म क्यों नहीं है?

ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब कुछ वामपंथी दलों की भ्रष्टाचार के खिलाफ साझा रैली में ढाई-तीन लाख लोग दिल्ली पहुंचे थे। रामलीला मैदान से लेकर आईटीओ और जंतर-मंतर तक का नजारा सबके लिए आम था। लेकिन आईटीओ के पास एक टीवी का रिपोर्टर कैमरे पर चिल्ला-चिल्ला कर बता रहा था कि इस रैली की वजह से हुए जाम के चलते आम लोग बेहद परेशान हैं। रैली में शामिल एक महिला ने तड़प कर उस पत्रकार से कहा कि क्या हम लोग तुम्हें आम नहीं दिखते! मैं अपने बच्चों के लिए दूध और दाल नहीं खरीद सकती। वह पत्रकार बड़ी विनम्रता से ‘सॉरी’ कह कर आगे बढ़ गया, लेकिन उसकी बात सुनना उसे जरूरी नहीं लगा। उस रैली में किसी एनजीओ की भूमिका नहीं थी, लेकिन वे तमाम लोग भी भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ विरोध जताने आए थे।

कुछ लोगों के ऐसे खयाल अच्छे लगते हैं कि ‘फेसबुक’ जैसी साइटें क्रांति की  वाहक बनेंगी। इनकी भूमिका से इनकार नहीं। लेकिन सच यही है कि देश का खाता-पीता मध्य और उच्च वर्ग संचार की आधुनिक तकनीकों के जरिए अपने हितों के लिए संगठित हो रहा है। उसका असर भी   साफ दिख रहा है। लेकिन इसमें समाज के वंचित तबकों के सवाल दबते या पीछे छूटते जा रहे हैं।

(15 अप्रैल को जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तंभ में प्रकाशित)

1 comment:

  1. सही समय पर आया एक जरूरी लेख..बस यह की हक़ के रहम में बदलते जाने वाली बात थोडा विस्तार मांग रही है,और विकास का अराजनीतिकरण(सन्दर्भ जॉन पी हैरिस की किताब डीपोलिटिसाइजिंग डेवलपमेंट) वाले नजरिये से देखे जाने का इन्तेजार भी. इस विषय पर आपके अगले लेख का इन्तजार करूँगा

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